Sunday, December 24, 2006

अपना-पराया


उस दिन आफिस के लिए निकला तो देखता हूँ कि पड़ोसन भाभी, अस्त व्यस्त साड़ी लपेटे, बदहवास सी कहीं चली जा रही थी । मैंने स्कूटर उनके पास रोक कर पूछा- ‘क्या बात है भाभी इस तरह .......मेरी बात पूरी भी न होने पाई थी कि वह सुबकने लगीं।’ सुबकते हुए बड़ी मुश्किल से बोल पाईं, “अभी-अभी खबर मिली है कि गुड्डी के दूल्हे ने जहर खा लिया है, इसलिए उसके यहाँ जा हूँ ।” मन बहुत आहत हुआ, किंतु क्या कर सकता था सिवाय इसके कि उन्हें बस स्टेण्ड तक छोड़ दूँ ।

शाम को लौटते समय सोचा चलो उनके घर का हाल तो ले लूँ । मैंने दरवाजा खटखटाया ही था कि अंदर से भाभी की हँसी सुनाई पड़ी । मैं चौंका, तभी भाभी बाहर आ गई । उनके मुस्कुराते चेहरे को देखकर मैंने कहा- ‘अफवाह थी ना ?’

‘नहीं, वो तो मुझे तब राहत मिली जब बस स्टैण्ड में ही पता चला कि ज़हर, गुड्डी के दूल्हे ने नहीं, उसके जेठ ने खाया था।’ भाभी ने कहा ।

नसीहत

मुन्ना दौड़ता हुआ कमरे से निकल रहा था, कि उसका पैर फर्श में पड़े गिलास से टकराया गया और गिलास टूट गया। पास खड़े पापा जी ने एक चपत लगा कर ‘देखकर चलने’ की नसीहत पिला दी ।

चंद दिनों बाद एक दिन मुन्ना बरामदे में खेल रहा था । पापाजी कहीं जाने को जल्दी-जल्दी निकले तो उनका पैर कमरे में रखे कप से टकरा गया । मुन्ना की निगाह पापा जी से मिली किंतु अप्रत्याशित रुप से इस बार फिर चपत उसे पड़ गई और साथ ही नसीहत, कि चीजों को ठीक जगह पर क्यों रखते।

माँग का सिन्दूर

‘माँ’! तुम क्यों, माथे पर बिंदी और माँग में सिंदूर लगाती हो ? प्रश्न अप्रत्याशित तो न था किंतु आज ही उठ जाएगा उसे बिल्कुल गुमान न था। यद्यपि काफी समय से वह जवान हो रहे बेटे की निगाहों की तीखी-चुभन महसूस कर रही थी लेकिन आज तो उसने दाग ही दिया वह प्रश्न जिससे अक्सर वह आशंकित रहा करती थी।

यह प्रश्न सिर्फ उसके बेटे का नहीं वरन् सारे रिश्तेदार एवं हर उस व्यक्ति की ओर से किसी न किसी बहाने उठता रहा है जिन्हें पता है कि उसके पति की मृत्यु हो चुकी है। इस नेक काम में मोहल्ले के कुछ लोगों का तो यह प्रथम कर्तव्य हो गया था कि प्रत्येक आने जाने को इस रोचक तथ्य से अवगत कराएं कि वह विधवा होकर भी सधवा की तरह रहती । यह कार्य केवल सूचना के स्तर तक ही नहीं रहता था, इसके पीछे उनका मूल उद्देश्य यह छुपा रहता था कि कहीं यह परिवार किसी नये व्यक्ति की सहानुभूति ने पा ले ।

बेटे, अब तुझे मैं क्या बताऊँ कि जिस दिन तेरे बाप को खाट से उतारा गया था तू केवल पाँच वर्ष का था । तेरी बहन उन्हें बस टुकर-टुकर निहारे जा रही थी और तू बाप को सोता समझ कर उन्हें जगाने के लिए ज़िद कर रहा था। लोग न तो तुझे वहाँ तक जाने दे रहे थे और न ही तू मेरे पास आ पा रहा था। उस दिन हमदर्दी दिखाने वाले तो बहुत इकट्ठे हुए थे लेकिन अधकतर लोगों की निगाहों में विधवा की जवानी ही खटकी थी।

उसे याद है कि लाश को कंधा देने वाले पहले व्यक्ति गोपाल बाबू थे, उसके बाद सब कुछ धुँधला गया था । होश आने पर उसने देखा था कि गोपाल बाबू दोनों बच्चों को बहला रहे हैं।

तब उसे ध्यान आया था कि अभी तक उसके माथे का सिंदूर और चूड़ियाँ ज्यों की त्यों सलामत हैं। शायद बेहोशी की वजह से किसी ने इस ओर ध्यान न दिया हो । पिछला द्दश्य याद आते ही उसे फिर रुलाई फूट पड़ी थी और ज्यों ही उसने हाथ चौखट पर पटकने को उठाया अचानक गोपाल बाबू ने उसे हवा में रोक तक कहा था-

“रहने दो यह सब । चूड़ियाँ टूटने, न टूटने से मरने वाले को कोई फर्क नहीं पड़ता और न सिंदूर पोंछने से उसकी आत्मा को शांति ही मिल जाती है।”

“कैसी बाते करते हैं आप ? यह तो ज़माने की रीति है, यह सब श्रृंगार सुहागिन के लिए ही है और जब सुहाग ही न रहा तो श्रृंगार कैसा ?” वह फिर सिसक उठी थी।

“मैं नहीं मानता कि ये चूड़ियाँ, बिंदी और सिंदूर सिर्फ सुहागिन का ही अधिकार है....”

“आपके मानने न मानने से क्या होता है ? यह तो सदियों पुराना रिवाज़ है। फिर जिनकी बदौलत इनका अस्तित्व था जब वे ही नहीं रहे तो इन चीजों से कैसा मोह ?” वह किसी तरह बोली थी।

“उनकी बदौलत तो और भी कई चीज हैं, यह घर ! ये बच्चे ! क्या तुम इन्हें भी त्याग दोगी ? गोपाल बाबू चुप नहीं हुए थे वे कहते गए, “मैं कहता हूँ छोड़ो इन ढकोसलों को ! न तुम सदा की भांति माँग में सिंदूर भरो, बिंदी लगाओ और चूड़ियाँ पहनो । ऐसा करके तुम किसी को आहत नहीं कर होओगी बल्कि इससे तुम्हारा आत्मबल बढ़ेगा इस एहसास के साथ जीने के लिए कि तुम्हारा पति अब भी तुम्हारे साथ है । तुम अकेली नहीं हो जमाने से जूझने के लिए, अपने बच्चों को संवारने के लिए ।”

वह वक्त न तो प्रतिवाद करने का था और न ही उसमें वह शक्ति ।

इसके बाद गोपाल बाबू अक्सर हमारे घर आने गले थे । बच्चों का हाल चाल पूछते, कोई समस्या होती हो राय देते और चले जाते । पति की पेंशन से काम नहीं चल पा रहा था अतः मोहल्ले वालों के कपड़े सीने लगी, पहले तो लोग झिझके फिर सस्ता और ठीक ठाक सिलने की वजह से धीरे-धीरे आने लगे । बेटी भी काम में हाथ बटाने लगी अतः गृहस्थी किसी तरह चल निकली ।

लेकिन उस दिन तो वह काफी परेशान हो गई थी जब स्कूल से आकर बस्ता पटकते हुए सूजी आँखों से तूने पूछा थे, “माँ गोपाल बाबू यहाँ क्यों आते हैं ? उन्हें मना कर दो, लड़के मुझे चिढ़ाते हैं।” तब तू ज्यादा बड़ा नहीं हुआ था, अतः थोड़ी देर बाद में बहल गया था। लेकिन जानती हूँ कि आज यह संभव नहीं है।

जब से गोपाल बाबू इस घर में आने लगे पड़ोसियों के ताने पीठ पीछे सुनाई देने लगे थे । मैं सदा ही इसे अनसुना किए रही क्योंकि ताने मेरे परिवार का कवच भी बन गए थे। लोग गोपाल बाबू के रसूख से रही इस घर की ओर आँख उठाने में हिचकते रहे वर्ना तुझे क्या मालूम कि इस शहर वाले हमारी बोटी-बोटी नोंच डालते । मैं तुम सबकी सलामती के लिए जाने किस गर्त में पहुँच जाती और तेरी बहन जो आज सुख से अपने पति के घर में है, कहीं घुँघरू बाँध रही होती ।

अब तुझे क्या समझाऊँ कि पति क्या होता है ? समाज के द्वारा थोपित एक अधिकृत बलात्कारी, जो बस बच्चे पैदा कर सदा बाप होने का दम भरता रहता है ? मेरी नज़र में वह पति कहलाने का कदापि हकदार नहीं है। अरे पति तो वह है जो स्त्री को अपना नाम, इज्जत, एक छत, दो रोटी और बच्चों को जीने की निश्चिंतता दे ।

आज इस समाज में तुम्हें अपने पैरों पर खड़े रहने लायक बनाने वाला, तुम्हारा बाप नहीं है । तुम्हें जानने वाला हर व्यक्ति यही जानता है कि तुम गोपाल बाबू के विशेष कृपा पात्र हो; भले ही तुमने उन्हें कभी पसंद नहीं किया ।

तुमने शायद ही कभी सोचा हो कि कैसे पल-पल धुल कर मैंने तुम लोगों को पढ़ाया, लिखाया, बेटी की शादी की । और तेरी नौकरी ! जिसका तुझे इतना गुमान है, जानता है किसकी बदौलत तेरे पास है ! अगर उस दिन तेरी नौकरी के लिए गोपाल बाबू सेक्योरिटी न भरते तो तू आज भी चप्पलें चटकाता फिरता । मैं सारे रिश्तेदारों के सामने झोली फैला चुकी थी लेकिन हाथ आई थी केवल कोरी सहानुभूति या बहाने । और आज जब तू चार पैसे कमाने लगा हैतो अपनी ही माँ को कटघरे में खड़ा कर रहा है !

तुझे तो शायद यह भी नहीं मालुम कि जिस दिन तेरी बहन का कन्यादान गोपाल बाबू ने लिया उसी दिन से उनकी पत्नी ने अपना कमरा अलग कर लिया था। बीबी की जली कटी से बच कर जरा सकून पाने जब कभी वह यहाँ आते तो तेरी निगाहें उन्हें चैन न लेने देतीं। उन्होंने अपनी सारी खुशियाँ होम कर दी इस घर को उजड़ने से बचाने के लिए किन्तु इस घर ने उन्हें कभी अपना न समझा। वे इधर के रहे न उधर के ।

लेकिन आज जब तूने मूँह खोलकर प्रश्न का नश्तर चला ही दिया है तो जवाब देने में मैं भी हिचकूँगी नहीं । मैं इस प्रश्न के पीछे छुपी तेरी भावनाओं तथा शंकाओं को अच्छी तरह महसूस कर रही हूँ - सुन; “जब पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष को अपने ढंग से जीने देने में समाज को कोई आपत्ति नहीं होती तो औरत के लिए तरह तरह के बंधन क्यों हैं ? उसे अपने ढंग से जीने देने में समाज की भृकुटी क्यों तन जाती है ? यह दोहरा मापदंड क्यों ? नारी को ही क्यों उसके किसी पुरुष के संबंधों को लेकर संदेह की निगाह से देखा जाता है ? क्या इसलिए कि यह पुरुष प्रधान समाज जिसमें सारे नियमों का निर्धारण वह स्वयं करता है, सारी स्वतंत्रता अपने नाम कर स्त्री के पैर दासता की जंजीर से जकड़ कर, अपना स्वामित्व दिखाना चाहता है ?” वह बोलती गई, “मेरे माथे का यह बिंदी, ये चूड़ियाँ और माँग का सिंदूर समाज के नियमों को चुनौती देने की एक अलख है जिसे मैं आजीवन जलाए रखूँगी । और जहाँ तक मेरे और गोपाल बाबू के संबंधों की बात है तो सुन, कुछ ऐसे संबंध भी होते हैं जिन्हें किसी रिश्ते का नाम देना जरूरी नहीं, क्योंकि हर रिश्ते को दकियानूसी समाज ने एक सीमित परिभाषा में बाध रखा है । यह बात तुम चाह कर भी न मानोगे क्योंकि तुम भी पक्षाघात से ग्रसित समाज की वह उंगली हो जो एक बार किसी औरत पर उठ गई तो फिर मुड़ नहीं पाती अन्यथा तुम अपनी माँ से शायद यह प्रश्न न उठाते ।”

रिवाज


बात सन् 1970 के आसपास की है। कार्यालय में मेरे सहकर्मी रमेश के विवाह की प्रथम वर्षगांठ के चंद रोज पहले उसके यहाँ बेटी पैदा हुई तो उसने दोनों अवसरों को मिलाकर एक शानदार पार्टी दी। चूँकि रमेश कर्मचारियों का नेता भी था, विभाग में अच्छा प्रभाव था। कार्यालय के सभी बढ़े अधिकारी कार्यक्रम में शामिल हुए तथा उसकी कार्य क्षमता एवं सद्व्यवहार की काफी सराहना की गई । उत्सव हुए मुश्किल से एक सप्ताह ही हुआ होगा कि एक दिन कार्यालय पहुँचा तो पता चला कि रात को रमेश की पत्नी का देहांत हो गया । हम लोग तुरन्त उसके घर रवाना हुए ।

लोग दाह-संस्कार के बाद लौटते समय मासूम छोटी-सी बच्ची के बारे में ज्यादा सोचते रहे । लेकिन एक बात और, जो शायद हम सभी को खटक रही थी वह यह कि दाह संस्कार के दौरान रमेश अनुपस्थित था । बात आई गई हो गई । तीन-चार दिन बाद अचानक जब रमेश का जिक्र आया और फिर वही बात उठी । तब उसके एक अंतरंग साथी ने बताया कि उनके यहाँ रिवाज है कि पति अगर दाह में शामिल होगा तो वह एक वर्ष तक दूसरा विवाह नहीं कर सकता ।

कहना न होगा कि रमेश का दूसरा विवाह एक वर्ष के भीतर हो गया ।

खून


बात पुरानी सही, याद अभी तक ताजा है और क्यों न हो, घटना ही ऐसी थी। मेरे कार्यलय में एक खूबसूरत नौजवान ‘मंगलेश्वर’ चौकीदार के पद पर नियुक्त था।

मंगलेश्वर नया होने के कारण कम बोलता था मगर अनुशासित था । कुछ दिनों के बाद मैंने पाया कि वह अक्सर लेट आने लगा था और एक दिन तो दोपहर दो बजे के बाद आया । उस दिन मैंने उसे जमकर फटकार लगा दी। वह बगैर कुछ सफाई दिए चुपचाप सामने से हट गया ।

इस पर मेरे एक सहयोगी ने बताया कि उसकी पत्नी बहुत बीमार है और अस्पताल में भर्ती है। सुना है कि उसे खून की भी जरूरत है। सुनकर मुझे बड़ी ग्लानि हुई । मैंने उसे बुलाकर अफसोस व्यक्त किया और तुरन्त अस्पताल जाकर खून देने की पेशकश की । वो बहुत सकुचा रहा था किंतु मेरे साथ दो चार और आ गए थे अतः वह ज्यादा न बोल पाया।

अस्पाल में जब हमने संबंधित डॉक्टर से खून देने की बात कही तो डॉ. बिफर उठा । सबब पूछने पर गुस्से से मंगलेश्वर की ओर इशारा करके के बोले-कि तीन-चार बार हमने इसे खून देने के लिए कहा किन्तु इसने साफ इंकार कर दिया ।

अब चौंकने की हमारी बारी थी। खैर, हममें से एक ने खून दिया किंतु देर हो चुकी थी अतः उसकी पत्नी बच नहीं पायी ।

बाद में पता चला कि वह इसीलिए खून नहीं देना चाहता था कि पत्नी उस नापसंद थी।

रिश्ता

क्या दोस्ती की चरम परिणति विवाह ही है ? अचानक यह प्रश्न एम.ए. फाइनल की क्लास में जब एक छात्रा ने शोखी से उछाला तो विभा ठिठक गई । एक पल के लिए उसे लगा कि यह प्रश्न समाजशास्त्र की शिक्षिका से नहीं वरन् डॉक्टर विभा भास्कर राव से किया गया एक व्यक्तिगत प्रश्न है।

उस समय तो उसने यह कहकर कि ‘यह कोई गणित की क्लास नहीं जिसमें एक प्रश्न को हल करने का एक ही सर्वमान्य तरीका एवं निश्चित उत्तर होता है। यहाँ प्रश्न-उत्तर देश-काल, समाज अथवा परिस्थितियों से प्रभावित होते रहते हैं जिन्हें केवल ‘हाँ’ या ‘ना’ के द्वारा चिन्हित नहीं किया जा सकता’, टाल दिया, लेकिन प्रश्न ने अचानक उसे25 वर्ष पीछे ढकेल दिया ।

कॉलेज के अंतिम चरण में जब उसने भास्कर के साथ यह तय पाया कि ‘अंतरजातीय’ होने के कारण उनके विवाह में दोनों परिवारों की सहमति असंभव है और कोर्ट मैरिज के अलावा कोई चारा नहीं, तो इसकी प्रथम घोषणा उसने अपनी सबसे अंतरंग रहेली, नीता से की थी। तब नीता ने कुछ ऐसा ही प्रश्न किया था, ‘तुम लोग अपने परिवार की अपेक्षाओं के विरूद्ध जो निर्णय ले रहे हो यही तुम्हारे संबंधों का अंतिम विकल्प है ? क्या दोस्ती के दायरे में रहकर तुम लोग नहीं जी सकते ? तुम लोग अपने माँ-बाप को तो संकीर्ण विचारों वाला कहते हो पर क्या वे तुम पर खुदगर्ज या स्वार्थी होने का आरोप नहीं लगा सकते ?’ इस पर उसने नीता को खूब खरी-खोटी सुनाई थी और यह कहकर कि ‘नसीहत देने के लिए एक तू ही तो बची थी’, उसने वर्षों उससे बोलचाल तक बंद कर दी थी ।

परिवारों के विरोध को दीकयानूसी करार देते हुए, जीवन को अपने ढंग से जीने का दृष्टिकोण विभा एवं भास्कर को अविवेकपूर्ण नहीं लगा था और न ही उन्हें कभी अपने निर्णय पर पछतावा ही हुआ । हाँ, यह बात अलग है कि विवाह के बाद वे दोनों अपने परिवारों से पूरी तरह कट गए थे।

पति, पैसा व प्रतिष्ठा के मामले में विभा खुद को न केवल भाग्यशाली मानती थी, वरन् उसे इस बात का गर्व भी था कि इन सब के लिए उसने कभी कोई समझौता नहीं किया । हाँ, जीवन में कुछ पल ऐसे अवश्य आए जब उसे लगा कि ‘सुख का कोई भी शिखर अभेद्य नहीं है।’

विवाह के बाद विभा को उस शहर में रहना अखरने लगा था। खास कर ऐसे मौकों पर तो वह बिल्कुल असहज हो जाती थी जब उन दोनों को साथ देखकर परिचितों की निगाहें आपस में कुछ अजीब सा संप्रेषण करती । अतः अवसर मिलते ही अपनी पोस्टिंग एक तराई वाले इलाके में करा ली जहाँ आमतौर से लोग जाने में कतराते थे।

उस कस्बेनुमा बस्ती में शहरी चकाचौंध व सुविधाएँ तो कम थीं किन्तु नीरव प्राकृतिक दृश्यों की प्रचुरता थी। वहाँ विभा को असीम शांति मिली। भास्कर अक्सर दौरे पर रहते थे अतः खाली समय पाकर उसने काफी दिनों से पेंडिंग पड़े शोधपत्र को फिर से लिखना आरंभ कर दिया ।

ऐसे ही एक दिन जब विभा कालेज से लौटी तो सामने टेबल पर एक निमंत्रण पत्र देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ । उत्सुकतावश बगैरे हाथ-मुँह धोए उसे तुरंत पढ़ने लगी। ‘अरे यह तो तान्या की शादी की कार्ड है।’ तान्या, उसकी छोटी बहन, वह उछल पड़ी । पर यह क्या, दो दिन बाद ही शादी है। भास्कर बाहर गया हुआ है, क्या किया जाय ? अगर वह कल सुबह तक आ जाय और वे शाम को निकल पड़े तब कहीं विदाई के समय तक पहुँच पाएंगे । सहसा वह उदास हो गई। महरी ने जाने कब चाय रख दी थी जो बिल्कुल ठंडी हो गई । कमरे में शाम उतर आई थी। महरी को बता कर वह यूँ ही बाहर निकल पड़ी । रास्ते में पी. सी.ओ. दिखा। सोचा चलो पहले भास्कर को बता दूँ ताकि वह सुबह तक आ ही जाए, और लगे हाथ तान्या को बधाई भी दे दूँ । भास्कर को तो बगैर विषय को विस्तार दिए तुरंत आने को कह दिया किन्तु घर फोन लगाते समय उसकी उंगलियाँ नम्बरों को डायल करते वक्त कुछ काँप-काँप जाती थीं । पाँच वर्ष के लंबे संवादहीन अंतराल के बाद आज पहली बार वह घर फोन लगा रही थी।

उधर फोन की घंटी और इधर दिल की धड़कन, विभा को समान रूप से सुनाई दे रही थी। अभी वह यह सोच ही रही थी कि बातों का सिलसिला किस बिन्दु से शुरू करेगी कि फोन पर आवाज सुनाई दी “हेलो, कौन ?”

निश्चित ही यह माँ का स्वर था। यह आवाज़ कितना भी दूर या कितने ही वर्षों के बाद क्यों न सुनाई दे, इसे पहचानने में वह कभी धोखा नहीं खा सकती। एक पल के लिए उसे लगा कि माँ उसके सामने खड़ी है और वह एक दम बच्ची बन गई है। बड़े उलाहना भरे स्वर में अपने गुस्से का इजहार करते हुए वह बोली- “यह क्या माँ, बेटी को बुलाने के लिए सिर्फ निमंत्रण पत्र और वो भी इतनी देर से कि आदमी पहुँच ही न सके। कहीं दामाद जी बुरा मान गए तो ....

अचानक विभा को लगा कि उसकी आवाज किसी गहरे सूखे कुएँ में डूब रही है। दूसरी ओर से कोई प्रतिक्रिया न पाकर उसे लगा कि कहीं माँ की आवाज पहचानने में उससे भूल तो नहीं हो गई। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था और फोन डिस्कनेक्ट भी नहीं हुआ था। उसने एक दो बार हैलो-हैलो किया लेकिन जब कोई जवाब नहीं आया तो फोन रख दिया। सोचा, शायद रॉग नम्बर रहा हो, अब वहाँ पहुँचनकर ही सबको चौकाएगी।

घर आकर वह एकदम व्यस्त हो गई, हालाँकि मन किसी भी कार्य में नहीं लग रहा था और रह-रह कर सबकी याद आ रही थी। आज उसे पहली बार घर में एस.टी.डी. की सुविधा न होना खला था। तैयारी करते-करते रात आधी से ज्यादा गुज़र गई फिर भी संतुष्टि नहीं। विवाह के बाद पहली बार मायके जा रही है और वह भी ऐसे शुभ अवसर पर । भाई बहनों के लिए कुछ तो ले ही जाना होगा। कल शापिंग के लिए समय भी कितना कम रहेगा और यहाँ मिलता भी क्या है ? सोचते-सोचते न जाने कब उसकी आँख लग गई।

सुबह-सुबह टेलीफोन की घंटी से उसकी नींद खुली। फोन उठाया तो कोई लड़की दीदी-दीदी कर ही थी। चैतन्य होते ही उसने आवाज़ पहचान ली। अरे तान्या, लगी बधाई देने । तभी तान्या की आवाज़ आई, “दीदी, कल तुमने माँ को फोन लगाया था, ना । तब से माँ बहुत अपसेट हैं। शायद तुम यहाँ आने की सोच रही हो, पर प्लीज दीदी, ऐसा मत करना। निमंत्रण भी इसी हिसाब से भेजा गया था कि तुम्हें देर से मिले। मेरे विवाह के चक्कर में पापा बिल्कुल टूट से गए थे। जहाँ कहीं भी बात शुरू होती थी तुम्हारे प्रेम विवाह को लेकर मामला बिगड़ जाता । माँ की ज़िद थी कि लड़का स्वजातीय एवं अच्छे परिवार से हो किन्तु हमारे शुभचितंक हमेशा तुम्हारे विवाह की बातें उछाल कर सबको बरगला देते । वो तो भला हो इन लोगों का । चूँकि हाल ही में यहाँ ट्रासंफर होकर आए थे, इनका लोगों से ज्यादा मेल मिलाप नहीं हो पाया और पापा ने दौड़-धूप करके महीने भर मे सब तय कर लिया । अब इसके पहले कि कोई विघ्न पड़े, माँ चाहती है कि विवाह सम्पन्न हो जाए । सो प्लीज दीदी, क्षमा करना।” और फोन डेड हो गया था।

भला हो समय का, जो कोई भी ज़ख्म हरा नहीं रहने देता । किन्तु अब उसका मन गाहे-वगाहे सोचने लगा था कि क्या उनका निर्णय वास्तव में स्वार्थपरक था। ऐसा उसे उस समय भी लगा था जब शिवम् होने को था।

डॉ. दयाल उस दिन घर आई थीं। चेक-अप के बाद बोली, “मिस्टर भास्कर बेहतर हो कि कुछ दिनों के लिए आप माँ या किसी बुजुर्ग महिला को बुला लें। इनकी देखरेख में आपको सुविधा रहेगी।” स्वाभाविक रूप से दी गई सलाह भी उसे सूल-सी चुभी थी और भास्कर के यह कहने पर कि ‘क्या माँ को फोन कर दूँ,’ वह लगभग चीख उठी थी। वह जानती थी कि ससुराल में भी उसे ‘घर-तोड़ू’ औरत के रूप में देखा जाता था। उसने उनका होनहार कमाऊ लड़का जो उनसे अलग कर दिया था। लेकिन इस बात के लिए वह भास्कर की मन ही मन बहुत प्रशंसा करती है क्योंकि वह, उसकी भावनाओं का ध्यान रखते हुए कभी घरवालों की बात नहीं निकालता था । विभा ने उसमें यह बहुत अच्छी बात पाई थी। खैर, उसकी ज़िद कि किसी को न बुलाया जाए के आगे तो वह चुप रहा पर उसकी ख़ीझ कभी-कभी झलक जाती थी । यह शिवानी के होने के बाद तो अक्सर नज़र आने लगी थी । ऐसे अवसरों पर न जाने क्यों उसे माँ की बातें याद आने लगती थीं । माँ ने एक दिन कहा था-

“बेटी, हमारे समाज में विवाह सिर्फ स्त्री-पुरुष का मिलन संस्कार नहीं है, यह दो परिवारों के मिलन को भी मोहर लगाता है। लड़का-लड़की एक-दूसरे के गले में जयमाला डालकर सारे समाज एवं नाते रिश्तेदारों को दरकिनार कर एक स्वाभाविक जिंदगी नहीं जी सकते । गृहस्थ जीवन का एक अहम् तत्व समाज में सबके साथ जीना है और इसीलिए समाज के ‘बनाए नियम-कायदे, संबंध-संबंधी नकारे नहीं जाते ।” विभा ने इस पर भी जब अपनी जिद दोहराई तो बाबू जी जो अभी तक चुप थे यह कहकर हट गए, कि बेटी संबंधों के धागे टूट तो एक झटके में जाएँगे लेकिन देखना वे फिर जुड़ नहीं पाएंगे।

बच्चे जब छोटे थे, अक्सर तीज-त्यौहार पर पड़सियों के यहाँ रिश्तेदारों की चहल-पहल देखकर तरह-तरह के प्रश्न करते । तंग आकर उसने दोनों को हास्टल भेज दिया था । अब तो दोनों बड़े हो गए थे। बड़े ही नहीं, विवाह योग्य भी । इसी के चलते उसने भास्कर से एक दिन शिवानी की शादी के लिए गंभीरता से विचार करने को कहा और वह मान भी गया था। अगले ही हफ्ते उसने शिवानी का वैवाहिक विज्ञापन छपा समाचार पत्र लाकर उसे पकड़ा कर कहा था कि लो अब पत्रचार फाइनल करने का जिम्मा तुम्हारा ।

उसने यूँ ही उत्सुकता वश पेपर पर नज़र डाली थी कि देखूं उम्र वगैरह ठीक-ठाक लिखी है कि नहीं लेकिन ‘स्वजातीय वर की आवश्यकता’ पढ़कर उसका वजूद हील गया । तो इन्होंने भी पुरुषोचित अधिकार का उपयोग यथासमय कर ही लिया । पहले तो उसने सोचा कि पूछूँ “कहाँ गई वह प्रगतिशील विचारधारा, जो अपने विवाह के समय वड़ा जोर मार रही थी । जीने का यह दोहरा मापदंड, बीवी और बेटी को लिए अलग-अलग, आखिर क्यों ? पर उसने कुछ नहीं कहा ।

इस घटना के चंद रोज बाद ही उसे एक सेमीनार अटेंड करने कलकत्ता जाना पड़ा। पहले ही दिन यूनिवर्सिटी से निकलते वक्त अचानक उसे नीतू दिख गई। वह वहीं लेकचरर थी । फिर क्या था, नीतू से मिलकर उसे लगा उसके कॉलेज के दिन लौट आए । नीतू के साथ उसका बेटा राकेश भी था, जो वहीं किसी प्राइवेट कंपनी में अच्छे पद पर था।

तीन-चार दिन कैसे, पता ही नहीं चला । सेमीनार के बाद उसका सारा समय नीतू के साथ ही बीतता । कभी-कभी राकेश भी साथ रहता और तीनों कहीं घूमने निकल जाते । गेस्ट हाउस तो बह सिर्फ सोने के लिए ही जाती थी । आते वक्त नीतू, उसे स्टेशन तक छोड़ने आई थी । बिछुड़ते समय यूँ भी मन बोझिल हो जाता है फिर बचपन की सहेली से अलग होने की तो बात ही और है । जब ट्रेन छूटने का समय आया तो तीन दिन से मन में घुमड़ रही बात आखिर मुँह तक आ ही गई । नीतू का हाथ पकड़ कर वह बोली, “मेरे विचार से, राकेश की जोड़ी शिवानी के साथ बहुत जचेगी, अगर तुम्हारी सहमति हो तो ?” गाड़ी छूट चुकी थी, और वह बार फिर ख्यालों में खो गई ।

एक सप्ताह बाद नीतू का लंबा सा खत मिला । वैसा ही, जैसा कॉलेज की छुट्टियों में लिखा करती थी । प्रेम पगा, अतरंग बातें व यादों को दोहराता हुआ । अंत में था, “विभा बुरा न मानना, मैं अब बी दोस्ती का, रिश्ते में बदलना आवश्यक नहीं समझती । ”

पर्चा

माँ का टेलीफोन पाकर उसे तुरंत जाना था । मनीष को ऑफिस में सूचना भेजी तो वे स्टेशन पहुँच गए । कारण पता न होने से हम दोनों चिंतित थे । रिटायर होने के बाद पापा अस्वस्थ रहने लगे थे जिसका एक कारण छोटी बहन की शादी न हो पाना भी था । इसी के चलते अपने ऑफिस के साथी से लेकर मनीष ने दो पते मुझे एक पर्चे में लिख कर चलते समय पकड़ा दिए और कहा कि यदि सब कुछ सामान्य हो तो इन लड़कों को देख लेना, कानपुर के ही हैं ।

स्टेशन पर छोटा भाई आ गया था । रिक्शे के बजाय जब वह टैक्सी स्टैण्ड की और बढ़ा तो मन और आशंकित हो चला । भाई से पूछने पर उसने कुछ ठीक से उत्तर नहीं दिया तो वह चुप लगा गई ।

शहर से दूर जब हमारी टैक्सी एक प्राइवेट नर्सिंग होम के पास रूकी तो उसे याद आया कि यह तो उसकी माँ की सहेली का नर्सिंग होम है । माँ बाहर इंतजार में ही थी, मिलते ही सुबकने लगी । अब उसका धीरज टूट गया । उसने गुस्से से पूछा- कोई मुझे बताएगा कि आखिर हुआ क्या है ? तब माँ बड़ी मुश्किल से आँखें पोंछते हुए बोली- “क्या करुँ, छोटी अबार्शन के लिए तैय्यार ही नहीं थी ।”

अगले ही क्षण उसने चुपचाप माँ की नज़र बचा कर पर्स में रखा मनीष का पर्चा खिड़की के बाहर गिरा दिया ।