Sunday, December 24, 2006

रिश्ता

क्या दोस्ती की चरम परिणति विवाह ही है ? अचानक यह प्रश्न एम.ए. फाइनल की क्लास में जब एक छात्रा ने शोखी से उछाला तो विभा ठिठक गई । एक पल के लिए उसे लगा कि यह प्रश्न समाजशास्त्र की शिक्षिका से नहीं वरन् डॉक्टर विभा भास्कर राव से किया गया एक व्यक्तिगत प्रश्न है।

उस समय तो उसने यह कहकर कि ‘यह कोई गणित की क्लास नहीं जिसमें एक प्रश्न को हल करने का एक ही सर्वमान्य तरीका एवं निश्चित उत्तर होता है। यहाँ प्रश्न-उत्तर देश-काल, समाज अथवा परिस्थितियों से प्रभावित होते रहते हैं जिन्हें केवल ‘हाँ’ या ‘ना’ के द्वारा चिन्हित नहीं किया जा सकता’, टाल दिया, लेकिन प्रश्न ने अचानक उसे25 वर्ष पीछे ढकेल दिया ।

कॉलेज के अंतिम चरण में जब उसने भास्कर के साथ यह तय पाया कि ‘अंतरजातीय’ होने के कारण उनके विवाह में दोनों परिवारों की सहमति असंभव है और कोर्ट मैरिज के अलावा कोई चारा नहीं, तो इसकी प्रथम घोषणा उसने अपनी सबसे अंतरंग रहेली, नीता से की थी। तब नीता ने कुछ ऐसा ही प्रश्न किया था, ‘तुम लोग अपने परिवार की अपेक्षाओं के विरूद्ध जो निर्णय ले रहे हो यही तुम्हारे संबंधों का अंतिम विकल्प है ? क्या दोस्ती के दायरे में रहकर तुम लोग नहीं जी सकते ? तुम लोग अपने माँ-बाप को तो संकीर्ण विचारों वाला कहते हो पर क्या वे तुम पर खुदगर्ज या स्वार्थी होने का आरोप नहीं लगा सकते ?’ इस पर उसने नीता को खूब खरी-खोटी सुनाई थी और यह कहकर कि ‘नसीहत देने के लिए एक तू ही तो बची थी’, उसने वर्षों उससे बोलचाल तक बंद कर दी थी ।

परिवारों के विरोध को दीकयानूसी करार देते हुए, जीवन को अपने ढंग से जीने का दृष्टिकोण विभा एवं भास्कर को अविवेकपूर्ण नहीं लगा था और न ही उन्हें कभी अपने निर्णय पर पछतावा ही हुआ । हाँ, यह बात अलग है कि विवाह के बाद वे दोनों अपने परिवारों से पूरी तरह कट गए थे।

पति, पैसा व प्रतिष्ठा के मामले में विभा खुद को न केवल भाग्यशाली मानती थी, वरन् उसे इस बात का गर्व भी था कि इन सब के लिए उसने कभी कोई समझौता नहीं किया । हाँ, जीवन में कुछ पल ऐसे अवश्य आए जब उसे लगा कि ‘सुख का कोई भी शिखर अभेद्य नहीं है।’

विवाह के बाद विभा को उस शहर में रहना अखरने लगा था। खास कर ऐसे मौकों पर तो वह बिल्कुल असहज हो जाती थी जब उन दोनों को साथ देखकर परिचितों की निगाहें आपस में कुछ अजीब सा संप्रेषण करती । अतः अवसर मिलते ही अपनी पोस्टिंग एक तराई वाले इलाके में करा ली जहाँ आमतौर से लोग जाने में कतराते थे।

उस कस्बेनुमा बस्ती में शहरी चकाचौंध व सुविधाएँ तो कम थीं किन्तु नीरव प्राकृतिक दृश्यों की प्रचुरता थी। वहाँ विभा को असीम शांति मिली। भास्कर अक्सर दौरे पर रहते थे अतः खाली समय पाकर उसने काफी दिनों से पेंडिंग पड़े शोधपत्र को फिर से लिखना आरंभ कर दिया ।

ऐसे ही एक दिन जब विभा कालेज से लौटी तो सामने टेबल पर एक निमंत्रण पत्र देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ । उत्सुकतावश बगैरे हाथ-मुँह धोए उसे तुरंत पढ़ने लगी। ‘अरे यह तो तान्या की शादी की कार्ड है।’ तान्या, उसकी छोटी बहन, वह उछल पड़ी । पर यह क्या, दो दिन बाद ही शादी है। भास्कर बाहर गया हुआ है, क्या किया जाय ? अगर वह कल सुबह तक आ जाय और वे शाम को निकल पड़े तब कहीं विदाई के समय तक पहुँच पाएंगे । सहसा वह उदास हो गई। महरी ने जाने कब चाय रख दी थी जो बिल्कुल ठंडी हो गई । कमरे में शाम उतर आई थी। महरी को बता कर वह यूँ ही बाहर निकल पड़ी । रास्ते में पी. सी.ओ. दिखा। सोचा चलो पहले भास्कर को बता दूँ ताकि वह सुबह तक आ ही जाए, और लगे हाथ तान्या को बधाई भी दे दूँ । भास्कर को तो बगैर विषय को विस्तार दिए तुरंत आने को कह दिया किन्तु घर फोन लगाते समय उसकी उंगलियाँ नम्बरों को डायल करते वक्त कुछ काँप-काँप जाती थीं । पाँच वर्ष के लंबे संवादहीन अंतराल के बाद आज पहली बार वह घर फोन लगा रही थी।

उधर फोन की घंटी और इधर दिल की धड़कन, विभा को समान रूप से सुनाई दे रही थी। अभी वह यह सोच ही रही थी कि बातों का सिलसिला किस बिन्दु से शुरू करेगी कि फोन पर आवाज सुनाई दी “हेलो, कौन ?”

निश्चित ही यह माँ का स्वर था। यह आवाज़ कितना भी दूर या कितने ही वर्षों के बाद क्यों न सुनाई दे, इसे पहचानने में वह कभी धोखा नहीं खा सकती। एक पल के लिए उसे लगा कि माँ उसके सामने खड़ी है और वह एक दम बच्ची बन गई है। बड़े उलाहना भरे स्वर में अपने गुस्से का इजहार करते हुए वह बोली- “यह क्या माँ, बेटी को बुलाने के लिए सिर्फ निमंत्रण पत्र और वो भी इतनी देर से कि आदमी पहुँच ही न सके। कहीं दामाद जी बुरा मान गए तो ....

अचानक विभा को लगा कि उसकी आवाज किसी गहरे सूखे कुएँ में डूब रही है। दूसरी ओर से कोई प्रतिक्रिया न पाकर उसे लगा कि कहीं माँ की आवाज पहचानने में उससे भूल तो नहीं हो गई। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था और फोन डिस्कनेक्ट भी नहीं हुआ था। उसने एक दो बार हैलो-हैलो किया लेकिन जब कोई जवाब नहीं आया तो फोन रख दिया। सोचा, शायद रॉग नम्बर रहा हो, अब वहाँ पहुँचनकर ही सबको चौकाएगी।

घर आकर वह एकदम व्यस्त हो गई, हालाँकि मन किसी भी कार्य में नहीं लग रहा था और रह-रह कर सबकी याद आ रही थी। आज उसे पहली बार घर में एस.टी.डी. की सुविधा न होना खला था। तैयारी करते-करते रात आधी से ज्यादा गुज़र गई फिर भी संतुष्टि नहीं। विवाह के बाद पहली बार मायके जा रही है और वह भी ऐसे शुभ अवसर पर । भाई बहनों के लिए कुछ तो ले ही जाना होगा। कल शापिंग के लिए समय भी कितना कम रहेगा और यहाँ मिलता भी क्या है ? सोचते-सोचते न जाने कब उसकी आँख लग गई।

सुबह-सुबह टेलीफोन की घंटी से उसकी नींद खुली। फोन उठाया तो कोई लड़की दीदी-दीदी कर ही थी। चैतन्य होते ही उसने आवाज़ पहचान ली। अरे तान्या, लगी बधाई देने । तभी तान्या की आवाज़ आई, “दीदी, कल तुमने माँ को फोन लगाया था, ना । तब से माँ बहुत अपसेट हैं। शायद तुम यहाँ आने की सोच रही हो, पर प्लीज दीदी, ऐसा मत करना। निमंत्रण भी इसी हिसाब से भेजा गया था कि तुम्हें देर से मिले। मेरे विवाह के चक्कर में पापा बिल्कुल टूट से गए थे। जहाँ कहीं भी बात शुरू होती थी तुम्हारे प्रेम विवाह को लेकर मामला बिगड़ जाता । माँ की ज़िद थी कि लड़का स्वजातीय एवं अच्छे परिवार से हो किन्तु हमारे शुभचितंक हमेशा तुम्हारे विवाह की बातें उछाल कर सबको बरगला देते । वो तो भला हो इन लोगों का । चूँकि हाल ही में यहाँ ट्रासंफर होकर आए थे, इनका लोगों से ज्यादा मेल मिलाप नहीं हो पाया और पापा ने दौड़-धूप करके महीने भर मे सब तय कर लिया । अब इसके पहले कि कोई विघ्न पड़े, माँ चाहती है कि विवाह सम्पन्न हो जाए । सो प्लीज दीदी, क्षमा करना।” और फोन डेड हो गया था।

भला हो समय का, जो कोई भी ज़ख्म हरा नहीं रहने देता । किन्तु अब उसका मन गाहे-वगाहे सोचने लगा था कि क्या उनका निर्णय वास्तव में स्वार्थपरक था। ऐसा उसे उस समय भी लगा था जब शिवम् होने को था।

डॉ. दयाल उस दिन घर आई थीं। चेक-अप के बाद बोली, “मिस्टर भास्कर बेहतर हो कि कुछ दिनों के लिए आप माँ या किसी बुजुर्ग महिला को बुला लें। इनकी देखरेख में आपको सुविधा रहेगी।” स्वाभाविक रूप से दी गई सलाह भी उसे सूल-सी चुभी थी और भास्कर के यह कहने पर कि ‘क्या माँ को फोन कर दूँ,’ वह लगभग चीख उठी थी। वह जानती थी कि ससुराल में भी उसे ‘घर-तोड़ू’ औरत के रूप में देखा जाता था। उसने उनका होनहार कमाऊ लड़का जो उनसे अलग कर दिया था। लेकिन इस बात के लिए वह भास्कर की मन ही मन बहुत प्रशंसा करती है क्योंकि वह, उसकी भावनाओं का ध्यान रखते हुए कभी घरवालों की बात नहीं निकालता था । विभा ने उसमें यह बहुत अच्छी बात पाई थी। खैर, उसकी ज़िद कि किसी को न बुलाया जाए के आगे तो वह चुप रहा पर उसकी ख़ीझ कभी-कभी झलक जाती थी । यह शिवानी के होने के बाद तो अक्सर नज़र आने लगी थी । ऐसे अवसरों पर न जाने क्यों उसे माँ की बातें याद आने लगती थीं । माँ ने एक दिन कहा था-

“बेटी, हमारे समाज में विवाह सिर्फ स्त्री-पुरुष का मिलन संस्कार नहीं है, यह दो परिवारों के मिलन को भी मोहर लगाता है। लड़का-लड़की एक-दूसरे के गले में जयमाला डालकर सारे समाज एवं नाते रिश्तेदारों को दरकिनार कर एक स्वाभाविक जिंदगी नहीं जी सकते । गृहस्थ जीवन का एक अहम् तत्व समाज में सबके साथ जीना है और इसीलिए समाज के ‘बनाए नियम-कायदे, संबंध-संबंधी नकारे नहीं जाते ।” विभा ने इस पर भी जब अपनी जिद दोहराई तो बाबू जी जो अभी तक चुप थे यह कहकर हट गए, कि बेटी संबंधों के धागे टूट तो एक झटके में जाएँगे लेकिन देखना वे फिर जुड़ नहीं पाएंगे।

बच्चे जब छोटे थे, अक्सर तीज-त्यौहार पर पड़सियों के यहाँ रिश्तेदारों की चहल-पहल देखकर तरह-तरह के प्रश्न करते । तंग आकर उसने दोनों को हास्टल भेज दिया था । अब तो दोनों बड़े हो गए थे। बड़े ही नहीं, विवाह योग्य भी । इसी के चलते उसने भास्कर से एक दिन शिवानी की शादी के लिए गंभीरता से विचार करने को कहा और वह मान भी गया था। अगले ही हफ्ते उसने शिवानी का वैवाहिक विज्ञापन छपा समाचार पत्र लाकर उसे पकड़ा कर कहा था कि लो अब पत्रचार फाइनल करने का जिम्मा तुम्हारा ।

उसने यूँ ही उत्सुकता वश पेपर पर नज़र डाली थी कि देखूं उम्र वगैरह ठीक-ठाक लिखी है कि नहीं लेकिन ‘स्वजातीय वर की आवश्यकता’ पढ़कर उसका वजूद हील गया । तो इन्होंने भी पुरुषोचित अधिकार का उपयोग यथासमय कर ही लिया । पहले तो उसने सोचा कि पूछूँ “कहाँ गई वह प्रगतिशील विचारधारा, जो अपने विवाह के समय वड़ा जोर मार रही थी । जीने का यह दोहरा मापदंड, बीवी और बेटी को लिए अलग-अलग, आखिर क्यों ? पर उसने कुछ नहीं कहा ।

इस घटना के चंद रोज बाद ही उसे एक सेमीनार अटेंड करने कलकत्ता जाना पड़ा। पहले ही दिन यूनिवर्सिटी से निकलते वक्त अचानक उसे नीतू दिख गई। वह वहीं लेकचरर थी । फिर क्या था, नीतू से मिलकर उसे लगा उसके कॉलेज के दिन लौट आए । नीतू के साथ उसका बेटा राकेश भी था, जो वहीं किसी प्राइवेट कंपनी में अच्छे पद पर था।

तीन-चार दिन कैसे, पता ही नहीं चला । सेमीनार के बाद उसका सारा समय नीतू के साथ ही बीतता । कभी-कभी राकेश भी साथ रहता और तीनों कहीं घूमने निकल जाते । गेस्ट हाउस तो बह सिर्फ सोने के लिए ही जाती थी । आते वक्त नीतू, उसे स्टेशन तक छोड़ने आई थी । बिछुड़ते समय यूँ भी मन बोझिल हो जाता है फिर बचपन की सहेली से अलग होने की तो बात ही और है । जब ट्रेन छूटने का समय आया तो तीन दिन से मन में घुमड़ रही बात आखिर मुँह तक आ ही गई । नीतू का हाथ पकड़ कर वह बोली, “मेरे विचार से, राकेश की जोड़ी शिवानी के साथ बहुत जचेगी, अगर तुम्हारी सहमति हो तो ?” गाड़ी छूट चुकी थी, और वह बार फिर ख्यालों में खो गई ।

एक सप्ताह बाद नीतू का लंबा सा खत मिला । वैसा ही, जैसा कॉलेज की छुट्टियों में लिखा करती थी । प्रेम पगा, अतरंग बातें व यादों को दोहराता हुआ । अंत में था, “विभा बुरा न मानना, मैं अब बी दोस्ती का, रिश्ते में बदलना आवश्यक नहीं समझती । ”

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