Sunday, December 24, 2006

एक महँगा प्रायश्चित



वह 31 दिसम्बर की रात थी । हालाँकि ट्रेन छूटने में देर थी फिर भी मैं प्लेटफार्म से एक पत्रिका लेकर अपनी बर्थ पर बैठ गया । सामने की बर्थ पर एक अधेड़ सज्जन लेटे हुए थे । उनके पैरों के पास एक साधारण चेहरे-मोहरे वाली लड़की बैठी हुई थी । अपनी तरफ देखता पाकर उसने मेरी पत्रिका की ओर इशारा करते हुए पूछा- ‘कौन-सी है,’ और मैंने उत्तर देने के बजाय वह पत्रिका उसकी ओर बढ़ा दी ।

कम्पार्टमेंट में अचानक लोगों की आवक-जावक बढ़ती देखकर मैं समझ गया कि ट्रेन छूटने को है तभी वे बुजुर्ग सज्जन बोने- “लगता है ट्रेन छूट रही है । कहाँ तक जाएँगे आप ?”

‘कटनी’ कह कर मैं चुप हो गया किन्तु लगा कि वे कुछ और बात करने को उत्सुक हैं, उसीलिए आगे बोला- “मैं यहीं पास के कस्बे के एक बैंक में फील्ड आफिसर हूँ । गत वर्ष ही शिक्षा पूरी की और प्रथम पोस्टिंग यहाँ हो गई । अभी दो दिन की छुट्टी लेकर अपने घर इलाहाबाद जा रहा हूँ कटनी से गाड़ी बदलूँगा ।” सुनकर वे सज्जन बोले, मैं डॉ. अन्थोनी, यहाँ बिलासपुर से थोड़ी दूर एक गाँव में प्राईवेट प्रेक्टिस करता हूँ । यह मेरी बेटी ‘मेरी’ है। इसने भी पिछले ही साल एम.एस.सी. किया है और अभी-अभी रिसर्च असिस्टेंट के पद पर नियुक्त हुई है। मैं इसे जबलपुर पहुँचाने व रहने-वहने का इंतजाम करने के लिए जा रहा हूँ। दो-चार दिन बाद वापस आ जाऊँगा।’

अभी तक मेरी बगल में बैठे हमउम्र सज्जन जो शायद चौथी बर्थ के अधिकारी थे, हमारी बातें खामोशी से सुन रहे थे, बोले, ‘मैं जबलपुर का रहने वाला हूँ, यहाँ बिजनेस के सिलसिले में आया था। यह मेरा भतीजा बंटी है इसे भी घुमाने के लिए ले आया था’ कहते हुए उन्होंने एक 8-9 वर्ष के बच्चे की ओर इशारा किया जो उम्र की बर्थ पर लेटा कोई कामिक्स पढ़ रहा था । ‘जबलपुर में मेरे लायक कोई काम हो तो बताइएगा।’ ‘जरूर’, वे बोले ।

परिचय की औपचारिकता समाप्त होते-होते ट्रेन के साथ-साथ हम लोगों की बातों ने भी गति पकड़ ली। मैं, मेरा पड़ोसी, जिसने अपना नाम बख्शी बताया था, व ‘मैरी’, हम-उम्र होने के नाते बातचीत में काफी मशगूल हो गए । बीच-बीच में ‘मैरी’ के पापा भी शामिल हो लेते थे। तभी ऊपर से ‘बंटी’ भी उतर आया और कहने लगा अंकल कोई जोक-वोक सुनाइए । बच्चा बड़ा प्यारा था और बेहद वाचाल । मेरे यह कहने पर कि पहले तुम सुनाओ वह जो शूरू हुआ तो रूकने का नाम ही नहीं लिया । उसकी प्यारी-प्यारी बातें सुनकर हम सब खूब हँसे और सभी ने कुछ न कुछ सुनाया । थोड़ी ही देर में ऐसा लगने लगा जैसे सब एक दूसरे को काफी दिनों से जानते हैं और कब रात के 11 बज गए पता ही न चला।

घड़ी देखकर ‘मैरी’ ने कहा- ‘पापा 11 बज गए हैं । खाना खाकर दवा ले लीजिए वर्ना फिर आपको नींद नहीं आएगी ।’ मैं भी उठ खड़ा हुआ और अपना बिस्तर लगाने लगा। बख्शी बंटी को सुलाने के लिए ऊपर की बर्थ में चढ़ गया। थोड़ी देर में मैरी के पापा ने हम लोगों को खाने के लिए आमंत्रित किया । हम लोगों के मना करने पर भी वे न माने और यह कह कर कि आज न्यू इयर्स नाइट है सब साथ मिलकर खाएँगे बंटी को भी नीचे उतार लिया गया । संकोचवश हमें बैठना पड़ा । खाना बहुत स्वदिष्ट था। क्रिसमस के कारण केक वगैरह कई चीजें थीं, जो हम सब ने मिलकर बड़े मजे से खाईं । ऐसा लगा कि उन्होंने दो टाईम का खाना रखा था जिसे हमने एक ही बार में सफाचट कर दिया और मेरे यही कहने पर अन्थोनी साहब हो-हो करके हँसने लगे। ‘आज खाने के लिए मना करके मैं बहुत बड़ी गलती करने जा रहा था।’ खाने के बाद मैंने कहा ।

‘क्यों ?’

‘इतने लज़ीज खाने से वंचित जो रह जाता । सुनकर बख्शी ने मेरी बात से सहमति जताई । ‘मैंरी’ थैंक्स कहकर मुस्कुरा दी । तभी कंपार्टमेंट में एक काफी वाला आया । बंटी को छोड़ हम सब ने काफी पी । खाने के बाद ठंड में गर्म-गर्म काफी ने और भी मजा ला दिया । अब तक 12 बजे चुके थे अतः सबने एक-दूसरे का नए वर्ष की बधाई दी और अपनी-अपनी बर्थ से जा लगे।

मेरी बर्थ के नीचे अन्थोनी साहब व बख्शी की वर्थ के नीचे ‘मैरी’ ने अपना विस्तर बिछा लिया था। मैरी और मैं एक दूसरे को सुविधा से देख सकते थे अतः लेटे-लेटे कॉलेज की बातें होने लगी। थोड़ी ही देर में अन्थोनी साहब के खर्राटे सुनाई पड़ने लगे। बख्शी अलबत्ता जाग रहा था किन्तु बातों में शामिल नहीं हो रहा था शायद इसीलिए कि हमारा विषय कॉलेज की पढ़ाई पर ज्यादा था और वह इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं रखता था।

चूँकि कम्पार्टमेंट के प्रायः सभी लोग सोने लगे थे और मुझे ऊपर की बर्थ से बात करने में जरा जोर से बोलना पड़ना था अतः मैं नीचे आकर अन्थोनी साहब की बर्थ में, एक तरफ बैठ गया। ‘मैरी’ भी उठी और शाल ओढ़कर अपनी बर्थ में बैठ गई । कॉलेज की पढ़ाई और नई नौकरी के खट्टे मीठे अनुभव सुनते-सुनाते सुबह होने को आई किन्तु हमें नींद न आई । एक स्टेशन पर गाड़ी रूकी । मैं प्लेटफार्म पर उतर कर यूँ ही टहलने लगा । जब गाड़ी चलने को हुई तो दो कुल्हड़ चाय ली और अन्दर आ गया । एक कुल्हड़ मैरी को पकड़ाकर हम लोग फिर बातें करने लगे ।

मैरी कान्वेंट में पढ़ी एवं क्रिश्चियन होने के नाते हिन्दी का उच्चारण एक विशेष लहजे से करती थी जो मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था। उसका हर विषय में दखल भी काफी था अतः बातें करने में मजा आ रहा था । फिर बातों-बातों में उसकी एक सहेली मेरी क्लास फैलो निकल आई, जिससे बातचीत में और अंतरगंता आ गई । सुबह के सात बजने को आए, थोड़ी ही देर मे गाड़ी कटनी पहुँच जाएगी यह सोचकर मैं मैरी से बोल- “आधे घंटे बाद यह ट्रेन छोड़कर हम सब अलग-अलग दिशाओं में जाने वाली गाड़ी में बैठेंगे ।” मैरी ने सुना और एक प्रश्नवाचक निगाह उठाई तो मेरे मुँह से निकला- “यह मेरे अभी तक के जीवन की सबसे सुखद यात्रा है।” ‘शायद मेरी भी।’ यह सुन, थोड़ा उत्साहित होकर मैंने धीरे से पूछा, ‘पत्र लिखोगी ?’ उसने नकारात्मक सर हिलाने से मेरा चेहरा शायद उतर गया था अतः वह तुरंत बोली- ‘उत्तर दूँगी।’ और हम दोनों हँसे पड़े।

घर पहुँच कर मैं वहाँ की उलझनों में फंस गया । माँ का, छोटी बहन की शादी के लिए लड़का ढूँढ़ने के लिए हर पल याद दिलाना, पिताजी का नौकरी में ऊँच-नीच की शिक्षा व यार दोस्तों को नई नौकरी की पार्टी इत्यादि के बीच कभी-कभी ‘मैरी’ याद आ जाती। कई बार सोचा कि समय निकालकर एक पत्र लिखूँ किन्तु संकोच बार-बार आड़े आता रहा।

छुट्टी समाप्त होने पर नौकरी पर जाने के लिए ज्यों ही ट्रेन में बैठा मैरी की याद जोर मारने लगी, और मैं ब्रीफकेस से पैड निकालकर ट्रेन में ही पत्र लिखने बैठ गया । जिन्दगी में कभी किसी को इस तरह पत्र नहीं लिखा था अतः समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे शुरू करूँ और क्या लिखूँ । कई पेज लिखने व फाड़ने के पश्चात अंततः कुछ यूँ लिखा-

क्या संबोधन उचित होगा तय न कर पाने के कारण इस तरह पत्र आरंभ कर रहा हूँ जैसे बगैर भूमिका के बीच से कोई कहानी सुनाना शुरू कर दे। लिखना क्या है सिवाय उसके कि रेल यात्रा बहुत याद आती है और आज फिर रेल में बैठा उन्हीं स्टेशनों से गुजर रहा हूँ किन्तु अकेला....आशा है आपकी आगे की यात्रा अच्छी कटी होगी पर मेरी न कट सकी । अब न जाने कब मिलें यह सोचकर अच्छा नहीं लगता अतः पत्र लिखने बैठ गया . सुना है पत्रों का सहारा, बहुत बड़ा सहारा होता है और फिर आपसे आश्वासन भी मिला है...आगे पत्र मिलने पर-

‘विश्वास’

पत्र स्टेशन के ही लेटर बाक्स में डाल दिया। इसके बाद बड़ा हल्कापन महसूस हुआ पर चौथे पाँचवें दिन से ही जवाब का इंतजार कष्ट देने लगा। आफिर में रोज ड़ाकबड़े उतावले मन से देखता और निराश हो जाता । लगभग माह भर बाद जब एक छोटा-सा पत्र डाक में दिखा तो मन बल्लियों उछलने लगा। इतना सब्र न था कि घर जा कर पढ़ता, आफिस में ही खोल कर पढ़ने लगा ।

‘मिस्टर विश्वास’,
हिन्दी में खत लिखा इसलिए उत्तर भी हिन्दी में दे रही हूँ लेकिन मुझे आपकी तरह पोइटिक भाषा नहीं आती। यात्रा यकीनन बहुत अच्छी रही । जबलपुर बख्शी ने हमें अपने घर इनव्हाइट भी किया। अभी तक तो हम नहीं गए । जाने क्यों पापा को वह अच्छा नहीं लगा जबकि तुम्हारी अक्सर तारीफ करते हैं। यदि बिलासपुर जाओ तो पापा से मिलने अवश्य जाना । वहाँ से 25 कि.मी. ही तो है, हमारा गाँव।

अच्छा बस !

‘मैरी’

पत्र न जाने कितनी बार खोला, पढ़ा और बंद किया । हर बार कुछ नयापन मिलता और उतावलापन तो इतना कि उसी समय जवाब लिखने बैठ गया। फिर सोचा यह ठीक नहीं है। वह क्या समझेगी कि मुझे इनके इलावा कुछ काम नहीं है ? और उसने लिखा भी तो नहीं कि पत्र लिखना। यह ध्यान आते ही एक बार फिर पत्र अच्छी तरह पढ़ा । वास्तव में उसने ऐसा कुछ नहीं लिखा था-अतः मन कुछ खिन्न हो गया । पर जी, कब तक काबू में रहता । फिर सोचा लिख अभी लेता हूँ, पोस्ट दो-चार दिन बाद करूँगा । और यह आइडिया क्लिक कर गया । उसी समय पत्र लिख डाला, लेकिन पोस्ट बाकायदा 3-4 दिन बाद ही किया। कहना न होगा कि इस बीच पत्र की इबारत कई बार बदली जा चुकी थी।

अचानक मुझे कुछ दिनों के लिए बैंक के काम से बाहर जाना पड़ा । लौटने पर सबसे पहले डाक देखने की उतावली थी। बैंक पहुँचते ही सारे पत्र देख डाले, लेकिन उसका कोई पत्र न था। धीर-धीरे कई माह बीत गए किंतु न तो ‘मैरी’ का ख्याल दिमाग से उतरा और न उसका कोई पत्र आया । जब कभी कहीं जाने के लिए ट्रेन में बैठता तो उसके साथ बीते पल याद आने लगते और दिल उदास हो जाता । ऐसा कब तक चलेगा सोचकर, मैनें खुद को समझाना शुरु किया कि यह क्या पागलपन है । उतना पढ़-लिख जाने के बावजूद भी इस बीसवीं सदी में रेल यात्रा के चंद घंटों के साथ को दिल से लगाकर मजनूं बना बैठा हूँ । ऐसे तो रोज न जाने कितने लोग मिलते और बिछुड़ते होंगे, यह तो सफ़र है । ‘सफर की दोस्ती-सफर तक’ वाला जुमला जो मेरा एक साथी अक्सर कहा करता था, दोहराया-और मन को जोरों से झिड़क दिया ।

धीरे-धीरे वक्त के साथ-साथ उसकी याद भी धूमिल होने लगी । नौकरी की बढ़ती व्यस्तताओं में कब साल व्यतीत हो गया पता ही न चला कि एक दिन अचानक डाक खोलते समय एक इनलैंड में जानी-पहचानी हस्तलिपि देखकर दिल जरा जोर से धड़कने लगा । लिखा था-

श्रीमान् जी,

आपका पत्र बहुत दिनों बाद रिडायरेक्ट होकर मुझे मिला क्योंकि मैं जबलपुर की नौकरी छोड़कर अगस्त में आगरा आ गई थी । यहाँ यूनिवर्सिटी में लेक्चररशिप मिल गई है । देर के लिए गुस्सा मत करना । जब भी सफर करती हूँ तुम्हारी याद आती है और आज तो बहुत ही आ रही है, क्योंकि आज हमारी मुलाकात की सालगिरह है ना ।
बस अभी इतना ही,

आगरा आओ तो मिलना, देखने लायक कई जगहें हैं, और हाँ, पापा से मिले या नहीं ?

31 दिसम्बर,
-‘मैरी’

जाने क्यों इस बार पत्र का उत्तर शीघ्र देने की इच्छा नहीं हुई ।

मेरा स्थानान्तरण दूसरे शहर में हो चुका था । नई जगह व कार्य की अधिकता में उलझ गया । ‘मैरी’ का ध्यान बीच-बीच में आता अवश्य किन्तु मैं पत्र लिखना टालता रहा, जिसका एक कारण यह भी था कि उसके पत्र में मुझे आत्मीयता तो मिली, किन्तु वह ऊष्मा नहीं, जिसमें मैं झुलस रहा था ।


X X X

अचानक एक दिन घर से बुलावा आने पर मैं छुट्टी लेकर घर चला गया । वहाँ पता चला कि मेरे विरुद्ध षडयंत्र रचा जा रहा है- विवाह की बात जोरों पर है, पर मैं अभी विवाह करना नहीं चाहता था । इसलिए नहीं कि मैरी की ओर झुकाव होने लगा था बल्कि इसलिए कि मैं स्वयं इतने शीघ्र इस बंधन के लिए मानसिक रुप से तैयार न था । घर में और सब को तो बहला लिया किन्तु पापा के सामने एक न चली । विवाह न करने का कोई ठोस कारण न बतला सका जबकि उनके तर्क इस मुद्दे पर अकाट्य थे । और अंत में उनका यह कहना कि - “तुम्हीं भर नहीं हो घर में, मेरे और भी बच्चे हैं, मुझे उनके बारे में भी सोचना है ।” मुझे निरुत्तर कर गया ।

मेरी चुप का अर्थ स्वीकृति मानकर विवाह की तैयारी आरंभ हो गई । मैं यंत्र-चलित सा घर के कार्यों में सहयोग देता रहा । लेकिन जब लड़की देखने का प्रस्ताव आया तो छुट्टी खत्म होने का बहाना कर यह कहता हुआ भाग खड़ा हुआ कि- आप लोग जानें ।

और लड़की पसंद कर ली गई । विवाह की तारीख भी तय हो गई । पापा का पत्र पाकर घर पहुँचा तो छोटा भाई कुछ निमंत्रण पत्र लेकर मेरे पास आया और बोला, “भइया, आपने तो बड़ी देर कर दी । अब निमंत्रण पत्र आपके परिचितों व दोस्तों का कैसा पहुँचेगे । रिशतेदारों को तो हमने भेज दिए केवल आपके मित्रों के, पते न होने की वजह से रख छोड़े हैं ।”

मेरी इच्छा कुछ करने की नहीं थी, किन्तु भाई से क्या कहता ? उसका मन रखने के लिए बोला, ‘मैं तो थका हुआ हूँ । अटैची में एक एड्रेस वाली डायरी पड़ी है, उसी में से देख-देखकर तू लिख दे- मैं नहाने जा रहा हूँ ।’

विवाह बगैर किसी विशेष उल्लेखनीय चर्चा के सम्पन्न हो गया । पत्नी से पहली मुलाकात आम वैवाहिक मुलाकातों की तरह थी- रात आई और चली गई । दो दिन बाद पत्नी मायके और मैं ड्यूटी पर चला गया ।

बैंक आया तो तीन माह की ट्रेनिंग का आदेश पत्र मिला । यह मुझे वरदान सा लगा क्योंकि मैं बहुत अपसेट हो गया था- विवाह के बाद, दोस्तों के मजाक अच्छे न लगते और उनसे कुछ बोल भी नहीं पाता था। बाम्बे ट्रेनिंग करके जब शहर वापस आया तो एक साथ दो चौंकाने वाले पत्र मिले पहला- प्रमोशन का, दूसरा मैरी का । उसने लिखा था-

....शादी की बधाई, पहले तो कार्ड देखकर यकीन ही न आया कि तुम्हारी शादी है, किन्तु सच-सच ही होता है । अच्छा सरप्राईज दिया । (यहीँ लिखावट कुछ फैली सी लगी या मुझे ही भ्रम हुआ, कह नहीं सकता ।) आगे था- अपनी पत्नी का ख्याल रखना । अभी तो मैं 3 तारीख को ‘उत्कल’ से घर जा रही हूँ, जुलाई मैं लौटूँगी । पत्नी को लेकर आगरा घुमाने के लिए लाना-‘मैरी’।

पत्र पढ़कर एकदम चौंक पड़ा । सोचने लगा कि इसे किसने कार्ड भेज दिया । दिमाग पर बहुत जोर डालने पर भी यह याद न आया कि भाई को पते वाली डायरी मैंने ही दी थी । पत्र पढ़कर ऐसा लगा कि जैसे किसी ने ऊँचे पहाड़ से अचानक ढकेल दिया हो । सोचा, कैसा लगा होगा उसे उस तरह बगैर किसी पूर्व सूचना के विवाह का कार्ड पाकर । बड़ी ग्लानि हुई । गलती का एहसास तब हुआ जब कुछ नहीं हो सकता था । आज तक मैं ‘मैरी’ के पत्र ही पढ़ता रहा उसके मन को न पढ़ पाया इसका बहुत अफसोस हुआ । पत्र में 3 तारीख को ‘उत्कल’ से जाने की सूचना केवल सूचना न थी शायद वह चाहती थी कि मैं उससे ट्रेन में मिलूँ, किन्तु मैं हिम्मत न कर सका, हालाँकि यह बहुत मुश्किल न था । मै ‘बीना’ स्टेशन, जो रास्ते में ही पड़ता था, आसानी से मुलाकात कर सकता था ।

मुझे अक्सर टूर में रहना पड़ता था। पत्नी प्रायः ससुराल या मायके में रहती, क्योंकि घर वाले पुराने विचारों के कारण नहीं चाहते थे कि परदेस में वह अकेली रहे । यह मेरे लिए एक प्रकार से अच्छा ही था क्योंकि मैं स्वयं को अभी तक नार्मल नहीं कर पाया था और पत्नी मेरे लिए सुख-सुविधा न होकर एर अवरोध सी लग रही थ, मेरे एकाकी जीवन में।

X X X


जीवन की गाड़ी चल ही रही थी- किसी तरह कि एक दिन दिल्ली जाने का मौका पड़ । झिझकते मैंने ‘मैरी’ को अपने जाने की तारीख सूचित कर दी । उसकी नाराज़गी के कारण यद्यपि मुझे भरोसा ते न था कि वह मिलने आएगी फिर भी आगरा स्टेशन आने के काफी पूर्व से मन में न जाने क्यों उथल-पुथल होने लगी और आउटर के पहले से ही मैं बार-बार खिड़की के बाहर झाँकने लगा ।

ट्रेन रुकते ही मैं प्लेटफार्म में खड़ा हो गया था। थोड़ी देर में देखा कि ‘मैरी’ अपनी सहेली के साथ जल्दी-जल्दी गेट से अंदर आ रही थी। उसने मुझे देखा न था। मेरे डिब्बे को पार करके ज्यों ही आगे बढ़ने लगी, मैने आवाज़ दी। वह ठिठकी, पलटी और लपक कर एकदम करीब आ गई। तभी शायद उसे अपनी सहेली का ध्यान आया और कुछ बोलते-बोलते रुक गई। सहेली से परिचय के बाद मैंने ही उससे पूछा, ‘कैसी हो ?’

‘देख तो रहे हो।’

‘बहुत दुबली लग रही हो, मेस में खाना ठीक से नहीं मिलता या डायटिंग कर रही हो ।’ कहकर मैं जबरन मुस्कुराया। ‘अच्छा, तुम जैसै बड़े मोटे हो गए हो ? प्रश्न दाग कर वह चुप हो गई । इसके पहले कि बात कुछ आगे बढ़ती, सहेली वे समय दोनों आड़े आने के कारण चंद औपचारिक बातों ही हो पाईं और मेरी गाड़ी चल पड़ी। एक बार फिर हम एक-दूसरे से जुदा हुए। लेकिन कितना अंतर था इस जुदाई और उस जुदाई में। गाड़ी के प्लेटफार्म छोड़ते-छोड़ते जब ‘मैरी’ से मेरी आँख मिली तो उसमें मुझे अनगिनत सवाल झाँकते नज़र आए पर मेरी आँखों में उनका कोई उत्तर न पाकर उसने अपनी नजरें झुका ली । यह भी हो सकता है कि ऐसा उसने अपनी आँखों की नमी छुपाने के लिए किया हो ।

लौटते समय मैंने जान बूझकर ‘मैरी’ को इसकी सूचना न दी और सच पूछिए तो मुझे साहस ही नहीं हो रहा था उन आँखों का दुबारा सामना करने का । लेकिन जब गाड़ी आगरा पहुँचने को हुई मन मैं एकाएक आया कि हो सकता है बायचांस ‘मैरी’ स्टेशन पर दिख जाए । हालाँकि यह मेरा कोरा पागलपन था, फिर भी मै प्लेटफार्म आने पर खिड़की से इधर-उधर झाँकने लगा । मन में तरह-तरह के विचार उठ रहे थे- ‘मैरी’ को लेकर, कितनी निश्छल लड़की है। मेरे ऐसे व्यवहार के बाद भी चेहरे में जरा सी शिकन न लाई । मिलते वक्त कोई शिकवा नहीं, कोई शिकायत नहीं । और एक मैं हूँ जिसने क्षमा माँगने की औपचारिकता भी नहीं निभाई-अपनी बेवकूफी की -कमजोरी की । सोचते-सोचते एकदम बेचैन हो उठा, और इसके पूर्व की गाड़ी आगरा छोड़े मैं अपना सूटकेश उठाकर प्लेटफार्म पर उतर गया ।

उतरने को तो उतर गया । लेकिन बेक्र-जर्नी कराकर बाहर निकलते समय बड़ी दुविधा सी हुई । एक मन हुआ कि वापस चला जाऊँ फिर दूसरे ही पल ‘मैरी’ की वही आँखें निगाहों के सामने आ गई और मैं तांगा करके ‘आगरा होटल’ जा पहुँचा । नहा-धोकर एक कप चाय पीकर सोचा कि एक नींद निकाल लूँ, लेकिन उसका मासूम चेहरा बार-बार आँखों के सामने आ जाता । हारकर उठ बैठा। घड़ी देखा तो दिन के तीन बजे थे। इच्छा हुई कि ‘मैरी’ को टेलीफोन किया जाए । अतः काउन्टर से डायरेक्टरी मंगा कर कॉलेज का नंबर डायल करने लगा ।

टेलीफोन शायद किसी और ने उठाया था। थोड़ी देर बाद मैरी की आवाज आई-

“यस, मैरी इज दिस साइड ।”

‘मैरी, शायद उसे यकीन न आया होगा।

मैं, तुम्हारा ....विश्वास-अनिल विश्वास.....मेरी आवाज कुछ लड़खड़ा गई।

‘मेरा विश्वास तो कब का खो चुका।’ वाक्य इस बात का सूचक था कि वह आवाज़ पहचान चुकी है।
‘मज़ाक अच्छा कर लेती हो।’

‘मज़ाक, हाँ कर भी लेती हूँ और सह भी लेती हूँ ।’ उसकी आवाज कुछ भारी लगी।

मैं समझ गया कि उस दिन सहेली की उपस्थिति में वह जितना नार्मल बनी हुई थी, आज मौका पाकर बिफर गई है। मैं बोला, ‘मैरी जानती हो, मैं सिर्फ तुमसे मिलने के लिए अभी यहाँ उतरा हूँ लेकिन अगर तुम्हें इतनी ही बेरूखी दिखानी है तो मजबूरन मुझे जाना पड़ेगा .....’ मैं आगे बोलने के लिए कुछ शब्द ढूँढने लगा था कि वह बोली-

‘नहीं-नहीं,ऐसे कैसे चले जाओगो! इस शहर से, बगैर मुझसे मिले।’ मुझे लगा कि वह कुछ नरम हो रही है। ‘तो-फिर...’

‘मैं वहीं आ रही हूँ, मेरी दोनों परियड खत्म हो गए हैं। मैं दस मिनट में निकल रही हूँ और चार बजे तक तुम्हारे पास होऊँगी। तुम तैयार रहना, कहीं बाहर चलेंगे।’ मुझे लगा कि वह एकदम नार्मल हो गई।

4 बजे मैं स्वयं होटल के गेट पर आ गया, जाने क्यों उसके साथ होटल के कमरे में बैठने की इच्छा नहीं हुई। थोड़ी ही देर में वह आटो से आ गई तो मैं भी उसी में बैठ गया ।

‘कहाँ चलोगे ’

‘तुम्हारी मर्जीं,’ कहकर मैं सीट पर फैल- गया । उसने ड्रायवर को किसी मकबरे के पास ही बाग में एक एकांत देखकर हम बैठ गए। बहुत देर तक हममें से कोई कुछ न बोला। वातावरण बोझिल होने लगा तो मैंने चुप्पी तोड़ने की गरज से कहा, ‘आगरा में तुमने ताज जैसी जगह छोड़कर यहाँ आने की क्यों सोची ?’

“मक़बरा तो मक़बरा है-लोग बादशाहों के मक़बरे पर जाते हें उसकी सान देखने तो मैं फ़कीर के मकबरे पर आ गई, उससे सुकून माँगने।”

‘अपना-अपना विश्वास है।’

‘विश्वास नहीं आस्था।’

‘लगता है विश्वास शब्द से तुम्हें काफी नफ़रत हो गई है।’

‘रूठ गए क्या ?’ अचानक वह झुकी और एकदम से अपने हाथों के बीच मेरे चेहरे को लेकर आँखों में झाँकते हुए बोली-

‘विश्वास, नाराज मत हो। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि मेरा विश्वास छला गया । तुमसे मिलने के बाद मैं कैसे-कैसे सपने बुनने लगी थी। उस पल का इंतजार था कि कब तुम्हारी तरफ से प्रस्ताव आए और मैं निहाल हो जाऊँ। किन्तु मेरा दुर्भाग्य, तुम्हारी ओर से आया भी तो तुम्हारे विवाह में बतौर बाराती शामिल होकर बधाई देने का निमंत्रण । क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि उसके बाद का एक-एक पल मैंने किस तरह जिया है।’क्षण भर को उसकी आवाज़ रुकी, शायद शब्दों का अवरोध था फिर बोली,.... “विश्वास, तुम मेरे जीवन में आने वाले प्रथम पुरुष हो। मैं नहीं जानती थी कि प्यार क्या होता है-कैसा होता है ? ‘डेनिस राविन्स’ के उपन्यासों में पढ़ा था, लेकिन तुमसे मिलने के बाद मुझे लगा था कि शायद तुम ही वह व्यक्ति हो जिस पर मैं अपना प्यार लुटा सकती हूँ । तुमसे मिलने के बाद मैं काफी बदल गई थी। पापा को इसका कुछ-कुछ आभास हो गया था फिर भी वे कुछ न बोले थे। यहाँ तक उन्हें मेरे चुनाव पर कोई आपत्ति न थी, और इसीलिए उन्होंने तुमसे मिलना चाहा था। इसका जिक्र मैंने अपने पत्र में बार-बार तुमसे किया था लेकिन अफसोस कि तुमने मेरी बात न समझी। और तुम्हारे निमंत्रण पत्र ने ऐसा विस्फोट किया कि मेरे सपनों के घोंसले का तिनका, सँवरने के पूर्व ही बिखर गया...मेरा विश्वास पराया हो गया...” बोलते-बोलते वह इतनी भावुक हो उठी की आवाज भर्रा गई। मैं कुछ कह पाने की स्थिति में न था फिर भी उसे तसल्ली देने के लिहाज से बोला-

‘इसमें कोई शक नहीं कि मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया और इसीलिए मैं बड़ी हिम्मत करके तुम्हारे सामने अपने गुनाह स्वीकार करने आ गया हूँ ।अब तुम्हें जो सजा देना हो-दो, मैं तैयार हूँ ।’
‘सजा से क्या होगा ? क्या तुम मुझे मिल जाओगे ? हाँ तुम अवश्य अपने आपको एक बोझ से मुक्त पाओगे, है ना ।’

‘नहीं, बात यह नहीं है......’

‘तो फिर क्या बात है, अचानक उसकी आवाज़ फिर तेज हो गई - तुम तो अपनी गृहस्थी बसाकर खुश हो ना । फिर क्यों आए हो ? यह देखने कि मैं कैसे जिन्दा हूँ...मरी क्यों नहीं अब तक ।’

‘क्या बक रही हो’, मैंने उसे झिड़कना चाहा और इसके पहले कि वह आगे कुछ कहे मैंने उसका सिर अपने कंधे पर टिका लिया फिर उसे धीरे-धीरे सहलाते हुए बोला- “ये माना कि मैं तुम्हारे बर्फ से ठंडे पत्रों में छुपी चाहत की उष्मा समय रहते महसूस नहीं कर पाया किंतु यह गलत है कि मैंने तुम्हें छला । सच तो यह है कि इसके पहिले कि हममें से कोई अपने प्यार का इजहार ढंग से कर पाता या यूं कहें कि परिपक्वता की स्थिति आने के पूर्व ही मैं, अप्रत्यशित रूप से दूसरे रास्ते में मुड़ गया और तुम वहीं खड़ी रहीं । मैं मानता हूँ कि इसके लिए तुम कदापि दोषी नहीं हो-मैं ही परिस्थितियों का सामना न कर सकने वाला कायर इंसान हूँ और इसीलिए तुम्हारे समक्ष बतौर गुनहगार खड़ा हूँ। बोलो क्या दंड सोचा है, इस मुज़रिम के लिए ?” इतना कहकर मैं नाटकीय ढंग से सर उसके सामने झुकाकर इस तरह खड़ा हो गया-जैसे ऐतिहासिक फिल्म में अपराधी बादशाह के सामने । यह सोचकर थोड़ी देर झुका रहा कि शायद उसे हँसी आ जाए तथा माहौल कुछ हल्का हो, लेकिन उसके अगले वाक्य ने मानों एक विस्फोट सा कर दिया- “क्या तुम अपनी पत्नी को छोड़ सकते हो ?” सुनकर मैं सकते में आ गया ।

इसके पहले कि कुछ सम्हल पाता वह आगे बोली, “बस, घबरा गए। रोमांस तो सब कर लेते हैं, लेकिन निभाना सबको नहीं आता । प्यार, त्याग माँगता है और त्याग की बात पर सभी किनारा कर लेते हैं। मैरी की यह बात मेरे बर्दाश्त के बाहर हो गई, और अचानक मेरे मुँह से निकला- “मैरी, यहाँ तुम शायद उतनी सही नहीं हो जितनी समझ रही हो। ज़ज्बातों ने तुम्हें विवेक शून्य कर दिया है । तुम मुझे त्याग की नहीं, एक जघन्य अपराध करने को प्रेरित कर रही हो। यदि किसी स्त्री को उसका पति इसलिए छोड़ दे कि वह विवाह से पूर्व किसी ओर से प्यार करता था, लेकिन माँ-बाप व समाज के सामने अपनी प्रेमिका का हाथ पकड़ने की हिम्मत न दिखा सका था, तो क्या इसे उस पुरुष का त्याग कहा जाएगा ? यह तो उसकी नीचता कहलाएगी । अपने स्वार्थ के लिए किसी निर्दोष को दंड देना कहाँ तक उचित है ? फिर हमारे प्यार के बीच वह स्वयं तो नहीं आई । उसका क्या कसूर है ? क्या यही कि अपने माँ-बाप के कहने पर उसने मुझे वरमाला पहना दी और चुपचाप डोली में बैठकर मेरे साथ चली आई । नहीं मैरी-नहीं, गुनाह मेरा है, तो प्रायश्चित भी मैं ही करूँगा। किन्तु कैसे, बस यही अभी तक नहीं सूझ रहा ।”

‘मेरी’ सुबकने लगी। फिर थोड़ी देर बाद अपने को संयत कर बोली- ‘विश्वास, मुझे क्षमा कर दो। मैं भावनाओं में बहकर तुमसे कितनी ओछी बात कर बैठी दरअसल यह मेरा प्यार नहीं मेरी ईर्ष्या थी, जो मुझ पर हावी हो गई थी। सच, इस सब में बेचारी ‘रेखा’ का क्या दोष? उसे किस बात की सजा दी जाए ?’ मुझे लगा कि अब वह कुछ पसीज रही है। वह आगे बोली, ‘मुझ रेखा से कोई शिकायत नहीं, प्रभु ईशू तुम दोनों का गृहस्थ् जीवन अपार खुशियों से भर दे, यही कामना है। लेकिन एक वादा करो’, यह कहकर उसने मेरा हाथ अपने हाथों के बीच जकड़ लिया और एक-एक शब्द पर जोर देकर बोली- ‘आज के बाद, ईश्वर के लिए, तुम मुझसे कभी न मिलना और न ही पत्र लिखना । मैं तुम्हें या तुम्हारे पत्र को पाकर एकदम विचलित हो जाती हूँ। तुम्हारा क्या, तुम तो....’ वह आगे कुछ कहना चाहती थी-कि मैं स्वयं आवेश में आकर बोल उठा, ‘हाँ, मेरा क्या है। मैं तो चैन की बंसी बजा रहा हूँ, ना ! अरे तुमने तो अपना दर्द एकाकी झेला है। कम से कम इसमें तो तुम्हें कोई अड़चन न थी। किन्तु मेरा कष्ट तुम्हारी समझ से बाहर है। मैं तो अकेले के एहसास तक से वंचित हो गया। जब भी अकेला होता तो तुम्हारा मासूम चेहरा एक प्रश्न बनकर सामने खड़ा हो जाता और मैं एक अपराध बोध से दब जाता। और जब रेखा सामने होती तो एक सामाजिक दायित्व ठीक से न निभा पाने की ग्लानि से मन भर जाता । तुम कभी ऐसी स्थिति का अंदाज लगा सकती हो, कि मैं रेखा के साथ लेटा हुआ तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ या तुम्हारा पत्र पढ़ते समय रेखा का चेहरा आँखों के सामने से नहीं हट रहा।’ मैं रौ में और भी न जाने क्या-क्या बोलता कि मैरी ने मेरी मुँह पर हाथ रख कर बोली,

‘बस करो विश्वास, मैं तुम्हारी उलझन समझ रही हूँ । अब रेखा के साथ तो कम से कम अन्याय न करो । मेरा क्या है मैं तो किसी तरह जी ही रही हूँ, किन्तु उसका पारिवारिक जीवन बर्बाद मत करो। उसका हाथ जब समाज के सामने थामा है तो जीवन भर निभाने में हिचक कैसी ? उसका साथ देना तुम्हारा धर्म ही नहीं दायित्व भी है, इसके विमुख मत हो । हाँ, मुझे अवश्य यह वचन दो कि अब मेरे जीवन में पुनः नहीं आओगे, बस यही प्रार्थना है।’ कहकर वह फफक पड़ी।

‘वायदा तो तुम्हें भी करना होगा।’

‘मुझ....अब मुझसे तुम क्या चाहते हो ?’ मैरी चौंकी।

‘पहले वचन दो, फिर कहूँगा।’

‘ठीक है।’

“तो सुनो, तुम अपना विवाह कर लो। और जिस दिन मैं सुनुँगा कि तुमने मेरी बात मान ली, उसी क्षण से सैं तुम्हारे जीवन से उसी क्षण यूँ निकल जाऊँगा जैसे कभी आया ही न था । किन्तु जब तक तुम अकेली हो, मुझे एक मित्र समझ कर स्वस्थ मैत्री के संबंध बनाए रखने दो । हाँ, इतना अवश्य वायदा देता हूँ कि तुम्हारी भावनाओं का सदा ख्याल रखूँगा ।” मैं एक ही सांस में उसे बिना कोई अवसर दिए बोल गया ।

रात ज्यादा होने लगी थी । बाग सुनसान हो गया था लेकिन बातें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं । तभी चौकीदार के यह कहने पर कि साहब 9 बजे गेट बंद हो जाता है, हम दोनों तुरंत उठ खड़े हुए ।



X X X


‘मेरी’ से मिले एक वर्ष हो गया था । इस बीज मैं निरंतर उसे पत्र लिखता व विवाह की सलाह देता रहा। प्रत्युत्तर में उसके पत्र सदा की भांति संक्षिप्त एवं औपचारिक ही रहे । हारकर एक दिन मैंने बिना उसकी सलाह लिए एक नामी पत्रिका के ‘वैवाहिक विज्ञापन’ में उसका बायोडाटा भेज दिया और पत्र व्यवहार के लिए उसी का पता देकर उसे सूचित कर दिया ।

रेखा मायके में थी । अचानक एक दिन वहाँ से एक तार मिला । मुझे शीघ्र बुलाया था । मैं मन में कई आशंकाएँ निए रात की गाड़ी से ही ससुराल रवाना हो गया । वे लोग चिंता न करें, इसलिए टेलीफोन से आने की सूचना भी दे दी फलस्वरुप मेरे श्वसुर स्टेशन पर ही मिल गए ।

बाहर निकलते ही मैंने तार का सबब पूछा तो वे हँस दिए । मुझे ऐसा लगा जैसे वे कुछ छुपा रहे हैं । पूछने पर कि घर में सब कुशल से तो हैं उन्होंने सकारात्मक सर हिलाकर कहा, ‘हाँ-हाँ, चिन्ता न करो । बहुत दिनों से तुम्हारा समाचार न मिलने से शायद बिटिया ने तार दिया होगा ।’

खैर, घर पहुँच कर सबसे मिलना जुलना हुआ पर ऐसा लग रहा था कि हर व्यक्ति उससे नज़रें मिलाने में हिचकिचा रहा है । रेखा कहीं दिखाई न दी किन्तु संकोचवश किसी से पूछ न सका । रात में खाना खाकर कमरे में लेट गयया । थोड़ी देर बाद रेथा का चेहरा दिखाई दिया । उसे देखकर पलंग में मैंने थोड़ा खिसककर जगह बना दी किंतु वह खड़ी रही।

‘क्या बात है, बहुत नाराज़ हो क्या ?’ मैंने पूछा ।

‘जी हाँ, आपने मेरे साथ धोखा जो किया है ।’ बगैर किसी भूमिका के वह आँखें तरेर कर बोली ।

‘धोखा ।’ मैं चौंका ।

‘धोखा नहीं तो क्या ! जब आप किसी अन्य लड़की से प्यार करते थे तो मुझसे शादी करने की क्या जरुरत थी ? विवाह के बाद भी आप उससे मिलते रहे । आप मुझे अपने पास भी इसीलिए नहीं रखते की कहीं राज न खुल जाए । कहिए, क्या यह सब सच नहीं है ?’ वह काफी गुस्से में थी ।

‘यह पूरी तरह सच नहीं है मैं.......’

आप झूठ बोल रहे हैं । मैंने उस लड़की के खत देखे हैं, जो आप आलमारी में मुझसे छुपाकर रखते थे और मेरे पास बतौर प्रमाण आब उपलब्ध हैं ।

‘लेकिन....’

‘लेकिन क्या ? हर स्त्री अपने पति पर अपना एकाधिकार चाहती है, जो मुझे नहीं मिला । मैं इतनी कमजोर नहीं हूँ कि इस घुटन भरी जिंदगी को यूँ ही जीती रहूँ । हर पल यह अहसास एक काँटो की तरह चुभता रहे कि समाज के सामने पत्नी स्वीकार करने वाले इस पुरुष की मैं बस एक ब्याहता भर हूँ । में तो केवल सामाजिक मोहर लग जाने के कारण श्रीमती अनिल विश्वास बन गई हूँ, असली तो ....’

‘कुछ मेरी भी सुनोगी या ....’

‘अब सुनने को बचा ही क्या है ?’ मुझे बगैर कुछ कहने का अवसर दिए वह बोलती गई,

‘आज तो आप मेरी सुन लीजिए और बस-आज के बाद कभी न सुनना ।’

मैं कुछ बोलूँ कि उसने स्वयं बात आगे बढाई, - ‘मैने तय कर लिया है कि अब हम इस तरह दोहरी जिंदगी नहीं जिऐंगे । मैं सारे कागज तैयार करा लूँगी और आपको आजाद कर दूँगी अपने ढंग से जीने के लिए । चूंकि हम दोनों की सहमति रहेगी अत: कोई कानूनी अड़चन भी नहीं आएगी हमारे सेपरेशन में ।’

‘नहीं रेखा, यह क्या पागलपन है। लोग सुनेंगे तो......’

“और तब लोग क्या कहेंगे जब जानेंगे कि तुम्हारे दो-दो बीवियाँ हैं ! तुम्हें शायद यह ज्यादा बुरा न लगे क्योंकि तुमने तो इस स्थिति को जान-बूझकर या यूँ कहूँ कि आगे बढ़कर अपनाया है, लेकिन मेरे लिए यह डूब मरने जैसी बात है। मुझे अपने अधिकारों पर किसी का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं है। मैंने अपने माँ-बाप को सारी स्थिति बताकर राजी कर लिया है। मोहल्ले के ही स्कूल में नौकरी भी मिल रही है। कोई परेशानी नहीं होगी। और सुनो, अगर कभी कोई सुलझे विचारों वाला पुरुष मिल गया तो विवाह भी कर लूँगी। जिंदगी भर किसी के नाम को रोती नहीं रहूँगी....” कहते-कहते वह एकदम सुबकने लगी। मैंने जब उसे चुप कराने की कोशिश की तो वह फौरन बाहर चली गई, मुझे बगैर किसी सफाई का मौका दिए।

दूसरे दिन भी वह सामने न आई । मैंने प्रयास भी किया किन्तु असफल रहा । घर के अन्य सदस्यों का व्यवहार तो पहले से ही असामान्य लग रहा था अतः कुछ अपमानित सा महसूस करता हुआ शाम की गाड़ी से वापसी का प्रोग्राम बना लिया।

उसरे पापा स्टेशन तक छोड़ने आए थे। रास्ते भर तो कुछ नहीं बोले लेकिन जब ट्रेन में बैठ गया तो लगा कि उनका सब्र टूट रहा है। उनकी आँखें नम थीं जिसे अपने हाथों से पोंछते हुए, टुकड़ों-टुकड़ों में केवल इतना बोले- ‘बेटा मैंने उसे बहुत समझाया किन्तु वह बहुत जिद्दी है। सोचा था कि शायद तुम कुछ समझा सको और बात इतनी न पढ़े इसीलिए तार भी मैंने ही किया था किन्तु अफसोस....।’ वह चुप हो गए थे। मैं उनसे क्या कहता। वह मेरी बात सुनने तक को तैयार न थी फिर मानना तो बहुत दूर की बात है।’

ड्यूटी पर आकर किसी काम में मन नहीं लग रहा था । कभी ‘रेखा’ तो कभी ‘मैरी’ सामने आ जाती और ऐसा लगता कि दोनों चीख चीखकर कह रही है कि तुमने हमें धोखा दिया है। हमारा विश्वास छला है ....तुम्हें प्रायश्चित करना होगा....। ईश्वर अंधा नहीं है तुम्हें इसका फल अवश्य देगा....और मैं अपने दोनों कान बंद कर लेता। ऐसा लगता कि मस्तिष्क की शिरायें फट पड़ेंगी।

कुछ दिनों बाद, एक दिन ऑफिस में व्यस्त था कि पोस्टमैन एक रजिस्टर्ड लेटर लेकर आया । पता देखकर मैं चौंका और शीघ्रता से लिफाफा फाड़ा तो कुछ टाइप्ड पेपर्स के साथ एक छोटी सी स्लिप मिली, जिसमें लिखा था- ‘विवाह विच्छेद के कागज मैंने दस्तखत कर दिए हैं, आप भी करके भिजवा दें, ताकि दोनों निश्चिंत एवं स्वतंत्र जीवन जी सकें....रेखा।

बस और कुछ नहीं लिखा था। अतः मुझे भी क्रोध आ गया । गुस्से में मैंने बगैर एक सेकेंड लगाए पेपर्स साईन करके उसी समय उन्हें पोस्ट करा दिया। इसके बाद आफिस में जरा भी मन न लगा तो घर चला आया।

घर आकर लेटा ही था कि ऑफिस का चपरासी आया और एक तार पकड़ाकर चला गया । तार में लिखा था-‘मीट एट देहली एयरपोर्ट ऑन फिफ्थ अरली मार्निग-मैरी’

मेरी कुछ समझ में नहीं आया। सामने कैलेण्डर में चार तारीख चमक रही थी। कुछ सोचने समझने का वक्त ही न था, अगर अभी एक घंटे बाद की ट्रेन पकड़ूँगा तभी दिल्ली दो-तीन बजे रात तक पहुँच पाऊँगा, यह सोचकर फौरन तैयार हो गया।

रास्ते में नींद का तो प्रश्न था ही नहीं । न जाने क्या-क्या विचार आते-जाते रहे और दिल्ली पहुँचते-पहुँचते मेरी हालत अजीब सी हो गई । घड़ी न चार बजा दिए थे अतः सीधे टैक्सी करके एयरपोर्ट पहुँचा। एयर पोर्ट की सीढ़ियाँ चढ़ ही रहा था ‘मैरी’ सामने से आती दिखाई दी। लगा, मेरा ही इंतजार कर रही थी। पास आकर बोली, ‘अच्छा हुआ कि तुम आ गए । मैं डर ही रही थी कि कहीं न आए तो मन में एक बोझ लिए जाना पड़ेगा।’

‘जाना पड़ेगा, क्या मतवब।’ मैं चौंका।

‘हाँ मैं जा रही हूँ, मैंने तुम्हारा वायदा पूरा किया ।’ वह आगे बोली- “कल चर्च में ‘मैरी’ मिस्टर वर्गिस की हो गई । वो कनाडा में रहते हैं और आज ही मैं उनके साथ जा रही हूँ तुम्हें अपराध से सदा के लिए आज़ाद करके इस इल्तज़ा के साथ कि तुम भी अपना वचन निभाओगे।”

‘अच्छा अलविदा ! वह देखो मि. वर्गिस क्लियरेंस करा रहे हैं । मैं जान बूझकर तुम्हारा परिचय उनसे नहीं कराऊँगी क्योंकि पुरुष स्त्रियों से ज्यादा शक्की होते हैं, है ना।’ इतना कहकर वह शीघ्रता से चल दी। मैंने देखा कि काँच के उस पार से एक खूबसूरत-सा युवक इशारे से उसे बुला रहा था ।

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