‘माँ’! तुम क्यों, माथे पर बिंदी और माँग में सिंदूर लगाती हो ? प्रश्न अप्रत्याशित तो न था किंतु आज ही उठ जाएगा उसे बिल्कुल गुमान न था। यद्यपि काफी समय से वह जवान हो रहे बेटे की निगाहों की तीखी-चुभन महसूस कर रही थी लेकिन आज तो उसने दाग ही दिया वह प्रश्न जिससे अक्सर वह आशंकित रहा करती थी।
यह प्रश्न सिर्फ उसके बेटे का नहीं वरन् सारे रिश्तेदार एवं हर उस व्यक्ति की ओर से किसी न किसी बहाने उठता रहा है जिन्हें पता है कि उसके पति की मृत्यु हो चुकी है। इस नेक काम में मोहल्ले के कुछ लोगों का तो यह प्रथम कर्तव्य हो गया था कि प्रत्येक आने जाने को इस रोचक तथ्य से अवगत कराएं कि वह विधवा होकर भी सधवा की तरह रहती । यह कार्य केवल सूचना के स्तर तक ही नहीं रहता था, इसके पीछे उनका मूल उद्देश्य यह छुपा रहता था कि कहीं यह परिवार किसी नये व्यक्ति की सहानुभूति ने पा ले ।
बेटे, अब तुझे मैं क्या बताऊँ कि जिस दिन तेरे बाप को खाट से उतारा गया था तू केवल पाँच वर्ष का था । तेरी बहन उन्हें बस टुकर-टुकर निहारे जा रही थी और तू बाप को सोता समझ कर उन्हें जगाने के लिए ज़िद कर रहा था। लोग न तो तुझे वहाँ तक जाने दे रहे थे और न ही तू मेरे पास आ पा रहा था। उस दिन हमदर्दी दिखाने वाले तो बहुत इकट्ठे हुए थे लेकिन अधकतर लोगों की निगाहों में विधवा की जवानी ही खटकी थी।
उसे याद है कि लाश को कंधा देने वाले पहले व्यक्ति गोपाल बाबू थे, उसके बाद सब कुछ धुँधला गया था । होश आने पर उसने देखा था कि गोपाल बाबू दोनों बच्चों को बहला रहे हैं।
तब उसे ध्यान आया था कि अभी तक उसके माथे का सिंदूर और चूड़ियाँ ज्यों की त्यों सलामत हैं। शायद बेहोशी की वजह से किसी ने इस ओर ध्यान न दिया हो । पिछला द्दश्य याद आते ही उसे फिर रुलाई फूट पड़ी थी और ज्यों ही उसने हाथ चौखट पर पटकने को उठाया अचानक गोपाल बाबू ने उसे हवा में रोक तक कहा था-
“रहने दो यह सब । चूड़ियाँ टूटने, न टूटने से मरने वाले को कोई फर्क नहीं पड़ता और न सिंदूर पोंछने से उसकी आत्मा को शांति ही मिल जाती है।”
“कैसी बाते करते हैं आप ? यह तो ज़माने की रीति है, यह सब श्रृंगार सुहागिन के लिए ही है और जब सुहाग ही न रहा तो श्रृंगार कैसा ?” वह फिर सिसक उठी थी।
“मैं नहीं मानता कि ये चूड़ियाँ, बिंदी और सिंदूर सिर्फ सुहागिन का ही अधिकार है....”
“आपके मानने न मानने से क्या होता है ? यह तो सदियों पुराना रिवाज़ है। फिर जिनकी बदौलत इनका अस्तित्व था जब वे ही नहीं रहे तो इन चीजों से कैसा मोह ?” वह किसी तरह बोली थी।
“उनकी बदौलत तो और भी कई चीज हैं, यह घर ! ये बच्चे ! क्या तुम इन्हें भी त्याग दोगी ? गोपाल बाबू चुप नहीं हुए थे वे कहते गए, “मैं कहता हूँ छोड़ो इन ढकोसलों को ! न तुम सदा की भांति माँग में सिंदूर भरो, बिंदी लगाओ और चूड़ियाँ पहनो । ऐसा करके तुम किसी को आहत नहीं कर होओगी बल्कि इससे तुम्हारा आत्मबल बढ़ेगा इस एहसास के साथ जीने के लिए कि तुम्हारा पति अब भी तुम्हारे साथ है । तुम अकेली नहीं हो जमाने से जूझने के लिए, अपने बच्चों को संवारने के लिए ।”
वह वक्त न तो प्रतिवाद करने का था और न ही उसमें वह शक्ति ।
इसके बाद गोपाल बाबू अक्सर हमारे घर आने गले थे । बच्चों का हाल चाल पूछते, कोई समस्या होती हो राय देते और चले जाते । पति की पेंशन से काम नहीं चल पा रहा था अतः मोहल्ले वालों के कपड़े सीने लगी, पहले तो लोग झिझके फिर सस्ता और ठीक ठाक सिलने की वजह से धीरे-धीरे आने लगे । बेटी भी काम में हाथ बटाने लगी अतः गृहस्थी किसी तरह चल निकली ।
लेकिन उस दिन तो वह काफी परेशान हो गई थी जब स्कूल से आकर बस्ता पटकते हुए सूजी आँखों से तूने पूछा थे, “माँ गोपाल बाबू यहाँ क्यों आते हैं ? उन्हें मना कर दो, लड़के मुझे चिढ़ाते हैं।” तब तू ज्यादा बड़ा नहीं हुआ था, अतः थोड़ी देर बाद में बहल गया था। लेकिन जानती हूँ कि आज यह संभव नहीं है।
जब से गोपाल बाबू इस घर में आने लगे पड़ोसियों के ताने पीठ पीछे सुनाई देने लगे थे । मैं सदा ही इसे अनसुना किए रही क्योंकि ताने मेरे परिवार का कवच भी बन गए थे। लोग गोपाल बाबू के रसूख से रही इस घर की ओर आँख उठाने में हिचकते रहे वर्ना तुझे क्या मालूम कि इस शहर वाले हमारी बोटी-बोटी नोंच डालते । मैं तुम सबकी सलामती के लिए जाने किस गर्त में पहुँच जाती और तेरी बहन जो आज सुख से अपने पति के घर में है, कहीं घुँघरू बाँध रही होती ।
अब तुझे क्या समझाऊँ कि पति क्या होता है ? समाज के द्वारा थोपित एक अधिकृत बलात्कारी, जो बस बच्चे पैदा कर सदा बाप होने का दम भरता रहता है ? मेरी नज़र में वह पति कहलाने का कदापि हकदार नहीं है। अरे पति तो वह है जो स्त्री को अपना नाम, इज्जत, एक छत, दो रोटी और बच्चों को जीने की निश्चिंतता दे ।
आज इस समाज में तुम्हें अपने पैरों पर खड़े रहने लायक बनाने वाला, तुम्हारा बाप नहीं है । तुम्हें जानने वाला हर व्यक्ति यही जानता है कि तुम गोपाल बाबू के विशेष कृपा पात्र हो; भले ही तुमने उन्हें कभी पसंद नहीं किया ।
तुमने शायद ही कभी सोचा हो कि कैसे पल-पल धुल कर मैंने तुम लोगों को पढ़ाया, लिखाया, बेटी की शादी की । और तेरी नौकरी ! जिसका तुझे इतना गुमान है, जानता है किसकी बदौलत तेरे पास है ! अगर उस दिन तेरी नौकरी के लिए गोपाल बाबू सेक्योरिटी न भरते तो तू आज भी चप्पलें चटकाता फिरता । मैं सारे रिश्तेदारों के सामने झोली फैला चुकी थी लेकिन हाथ आई थी केवल कोरी सहानुभूति या बहाने । और आज जब तू चार पैसे कमाने लगा हैतो अपनी ही माँ को कटघरे में खड़ा कर रहा है !
तुझे तो शायद यह भी नहीं मालुम कि जिस दिन तेरी बहन का कन्यादान गोपाल बाबू ने लिया उसी दिन से उनकी पत्नी ने अपना कमरा अलग कर लिया था। बीबी की जली कटी से बच कर जरा सकून पाने जब कभी वह यहाँ आते तो तेरी निगाहें उन्हें चैन न लेने देतीं। उन्होंने अपनी सारी खुशियाँ होम कर दी इस घर को उजड़ने से बचाने के लिए किन्तु इस घर ने उन्हें कभी अपना न समझा। वे इधर के रहे न उधर के ।
लेकिन आज जब तूने मूँह खोलकर प्रश्न का नश्तर चला ही दिया है तो जवाब देने में मैं भी हिचकूँगी नहीं । मैं इस प्रश्न के पीछे छुपी तेरी भावनाओं तथा शंकाओं को अच्छी तरह महसूस कर रही हूँ - सुन; “जब पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष को अपने ढंग से जीने देने में समाज को कोई आपत्ति नहीं होती तो औरत के लिए तरह तरह के बंधन क्यों हैं ? उसे अपने ढंग से जीने देने में समाज की भृकुटी क्यों तन जाती है ? यह दोहरा मापदंड क्यों ? नारी को ही क्यों उसके किसी पुरुष के संबंधों को लेकर संदेह की निगाह से देखा जाता है ? क्या इसलिए कि यह पुरुष प्रधान समाज जिसमें सारे नियमों का निर्धारण वह स्वयं करता है, सारी स्वतंत्रता अपने नाम कर स्त्री के पैर दासता की जंजीर से जकड़ कर, अपना स्वामित्व दिखाना चाहता है ?” वह बोलती गई, “मेरे माथे का यह बिंदी, ये चूड़ियाँ और माँग का सिंदूर समाज के नियमों को चुनौती देने की एक अलख है जिसे मैं आजीवन जलाए रखूँगी । और जहाँ तक मेरे और गोपाल बाबू के संबंधों की बात है तो सुन, कुछ ऐसे संबंध भी होते हैं जिन्हें किसी रिश्ते का नाम देना जरूरी नहीं, क्योंकि हर रिश्ते को दकियानूसी समाज ने एक सीमित परिभाषा में बाध रखा है । यह बात तुम चाह कर भी न मानोगे क्योंकि तुम भी पक्षाघात से ग्रसित समाज की वह उंगली हो जो एक बार किसी औरत पर उठ गई तो फिर मुड़ नहीं पाती अन्यथा तुम अपनी माँ से शायद यह प्रश्न न उठाते ।”
यह प्रश्न सिर्फ उसके बेटे का नहीं वरन् सारे रिश्तेदार एवं हर उस व्यक्ति की ओर से किसी न किसी बहाने उठता रहा है जिन्हें पता है कि उसके पति की मृत्यु हो चुकी है। इस नेक काम में मोहल्ले के कुछ लोगों का तो यह प्रथम कर्तव्य हो गया था कि प्रत्येक आने जाने को इस रोचक तथ्य से अवगत कराएं कि वह विधवा होकर भी सधवा की तरह रहती । यह कार्य केवल सूचना के स्तर तक ही नहीं रहता था, इसके पीछे उनका मूल उद्देश्य यह छुपा रहता था कि कहीं यह परिवार किसी नये व्यक्ति की सहानुभूति ने पा ले ।
बेटे, अब तुझे मैं क्या बताऊँ कि जिस दिन तेरे बाप को खाट से उतारा गया था तू केवल पाँच वर्ष का था । तेरी बहन उन्हें बस टुकर-टुकर निहारे जा रही थी और तू बाप को सोता समझ कर उन्हें जगाने के लिए ज़िद कर रहा था। लोग न तो तुझे वहाँ तक जाने दे रहे थे और न ही तू मेरे पास आ पा रहा था। उस दिन हमदर्दी दिखाने वाले तो बहुत इकट्ठे हुए थे लेकिन अधकतर लोगों की निगाहों में विधवा की जवानी ही खटकी थी।
उसे याद है कि लाश को कंधा देने वाले पहले व्यक्ति गोपाल बाबू थे, उसके बाद सब कुछ धुँधला गया था । होश आने पर उसने देखा था कि गोपाल बाबू दोनों बच्चों को बहला रहे हैं।
तब उसे ध्यान आया था कि अभी तक उसके माथे का सिंदूर और चूड़ियाँ ज्यों की त्यों सलामत हैं। शायद बेहोशी की वजह से किसी ने इस ओर ध्यान न दिया हो । पिछला द्दश्य याद आते ही उसे फिर रुलाई फूट पड़ी थी और ज्यों ही उसने हाथ चौखट पर पटकने को उठाया अचानक गोपाल बाबू ने उसे हवा में रोक तक कहा था-
“रहने दो यह सब । चूड़ियाँ टूटने, न टूटने से मरने वाले को कोई फर्क नहीं पड़ता और न सिंदूर पोंछने से उसकी आत्मा को शांति ही मिल जाती है।”
“कैसी बाते करते हैं आप ? यह तो ज़माने की रीति है, यह सब श्रृंगार सुहागिन के लिए ही है और जब सुहाग ही न रहा तो श्रृंगार कैसा ?” वह फिर सिसक उठी थी।
“मैं नहीं मानता कि ये चूड़ियाँ, बिंदी और सिंदूर सिर्फ सुहागिन का ही अधिकार है....”
“आपके मानने न मानने से क्या होता है ? यह तो सदियों पुराना रिवाज़ है। फिर जिनकी बदौलत इनका अस्तित्व था जब वे ही नहीं रहे तो इन चीजों से कैसा मोह ?” वह किसी तरह बोली थी।
“उनकी बदौलत तो और भी कई चीज हैं, यह घर ! ये बच्चे ! क्या तुम इन्हें भी त्याग दोगी ? गोपाल बाबू चुप नहीं हुए थे वे कहते गए, “मैं कहता हूँ छोड़ो इन ढकोसलों को ! न तुम सदा की भांति माँग में सिंदूर भरो, बिंदी लगाओ और चूड़ियाँ पहनो । ऐसा करके तुम किसी को आहत नहीं कर होओगी बल्कि इससे तुम्हारा आत्मबल बढ़ेगा इस एहसास के साथ जीने के लिए कि तुम्हारा पति अब भी तुम्हारे साथ है । तुम अकेली नहीं हो जमाने से जूझने के लिए, अपने बच्चों को संवारने के लिए ।”
वह वक्त न तो प्रतिवाद करने का था और न ही उसमें वह शक्ति ।
इसके बाद गोपाल बाबू अक्सर हमारे घर आने गले थे । बच्चों का हाल चाल पूछते, कोई समस्या होती हो राय देते और चले जाते । पति की पेंशन से काम नहीं चल पा रहा था अतः मोहल्ले वालों के कपड़े सीने लगी, पहले तो लोग झिझके फिर सस्ता और ठीक ठाक सिलने की वजह से धीरे-धीरे आने लगे । बेटी भी काम में हाथ बटाने लगी अतः गृहस्थी किसी तरह चल निकली ।
लेकिन उस दिन तो वह काफी परेशान हो गई थी जब स्कूल से आकर बस्ता पटकते हुए सूजी आँखों से तूने पूछा थे, “माँ गोपाल बाबू यहाँ क्यों आते हैं ? उन्हें मना कर दो, लड़के मुझे चिढ़ाते हैं।” तब तू ज्यादा बड़ा नहीं हुआ था, अतः थोड़ी देर बाद में बहल गया था। लेकिन जानती हूँ कि आज यह संभव नहीं है।
जब से गोपाल बाबू इस घर में आने लगे पड़ोसियों के ताने पीठ पीछे सुनाई देने लगे थे । मैं सदा ही इसे अनसुना किए रही क्योंकि ताने मेरे परिवार का कवच भी बन गए थे। लोग गोपाल बाबू के रसूख से रही इस घर की ओर आँख उठाने में हिचकते रहे वर्ना तुझे क्या मालूम कि इस शहर वाले हमारी बोटी-बोटी नोंच डालते । मैं तुम सबकी सलामती के लिए जाने किस गर्त में पहुँच जाती और तेरी बहन जो आज सुख से अपने पति के घर में है, कहीं घुँघरू बाँध रही होती ।
अब तुझे क्या समझाऊँ कि पति क्या होता है ? समाज के द्वारा थोपित एक अधिकृत बलात्कारी, जो बस बच्चे पैदा कर सदा बाप होने का दम भरता रहता है ? मेरी नज़र में वह पति कहलाने का कदापि हकदार नहीं है। अरे पति तो वह है जो स्त्री को अपना नाम, इज्जत, एक छत, दो रोटी और बच्चों को जीने की निश्चिंतता दे ।
आज इस समाज में तुम्हें अपने पैरों पर खड़े रहने लायक बनाने वाला, तुम्हारा बाप नहीं है । तुम्हें जानने वाला हर व्यक्ति यही जानता है कि तुम गोपाल बाबू के विशेष कृपा पात्र हो; भले ही तुमने उन्हें कभी पसंद नहीं किया ।
तुमने शायद ही कभी सोचा हो कि कैसे पल-पल धुल कर मैंने तुम लोगों को पढ़ाया, लिखाया, बेटी की शादी की । और तेरी नौकरी ! जिसका तुझे इतना गुमान है, जानता है किसकी बदौलत तेरे पास है ! अगर उस दिन तेरी नौकरी के लिए गोपाल बाबू सेक्योरिटी न भरते तो तू आज भी चप्पलें चटकाता फिरता । मैं सारे रिश्तेदारों के सामने झोली फैला चुकी थी लेकिन हाथ आई थी केवल कोरी सहानुभूति या बहाने । और आज जब तू चार पैसे कमाने लगा हैतो अपनी ही माँ को कटघरे में खड़ा कर रहा है !
तुझे तो शायद यह भी नहीं मालुम कि जिस दिन तेरी बहन का कन्यादान गोपाल बाबू ने लिया उसी दिन से उनकी पत्नी ने अपना कमरा अलग कर लिया था। बीबी की जली कटी से बच कर जरा सकून पाने जब कभी वह यहाँ आते तो तेरी निगाहें उन्हें चैन न लेने देतीं। उन्होंने अपनी सारी खुशियाँ होम कर दी इस घर को उजड़ने से बचाने के लिए किन्तु इस घर ने उन्हें कभी अपना न समझा। वे इधर के रहे न उधर के ।
लेकिन आज जब तूने मूँह खोलकर प्रश्न का नश्तर चला ही दिया है तो जवाब देने में मैं भी हिचकूँगी नहीं । मैं इस प्रश्न के पीछे छुपी तेरी भावनाओं तथा शंकाओं को अच्छी तरह महसूस कर रही हूँ - सुन; “जब पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष को अपने ढंग से जीने देने में समाज को कोई आपत्ति नहीं होती तो औरत के लिए तरह तरह के बंधन क्यों हैं ? उसे अपने ढंग से जीने देने में समाज की भृकुटी क्यों तन जाती है ? यह दोहरा मापदंड क्यों ? नारी को ही क्यों उसके किसी पुरुष के संबंधों को लेकर संदेह की निगाह से देखा जाता है ? क्या इसलिए कि यह पुरुष प्रधान समाज जिसमें सारे नियमों का निर्धारण वह स्वयं करता है, सारी स्वतंत्रता अपने नाम कर स्त्री के पैर दासता की जंजीर से जकड़ कर, अपना स्वामित्व दिखाना चाहता है ?” वह बोलती गई, “मेरे माथे का यह बिंदी, ये चूड़ियाँ और माँग का सिंदूर समाज के नियमों को चुनौती देने की एक अलख है जिसे मैं आजीवन जलाए रखूँगी । और जहाँ तक मेरे और गोपाल बाबू के संबंधों की बात है तो सुन, कुछ ऐसे संबंध भी होते हैं जिन्हें किसी रिश्ते का नाम देना जरूरी नहीं, क्योंकि हर रिश्ते को दकियानूसी समाज ने एक सीमित परिभाषा में बाध रखा है । यह बात तुम चाह कर भी न मानोगे क्योंकि तुम भी पक्षाघात से ग्रसित समाज की वह उंगली हो जो एक बार किसी औरत पर उठ गई तो फिर मुड़ नहीं पाती अन्यथा तुम अपनी माँ से शायद यह प्रश्न न उठाते ।”
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