Sunday, December 24, 2006

अपना-पराया


उस दिन आफिस के लिए निकला तो देखता हूँ कि पड़ोसन भाभी, अस्त व्यस्त साड़ी लपेटे, बदहवास सी कहीं चली जा रही थी । मैंने स्कूटर उनके पास रोक कर पूछा- ‘क्या बात है भाभी इस तरह .......मेरी बात पूरी भी न होने पाई थी कि वह सुबकने लगीं।’ सुबकते हुए बड़ी मुश्किल से बोल पाईं, “अभी-अभी खबर मिली है कि गुड्डी के दूल्हे ने जहर खा लिया है, इसलिए उसके यहाँ जा हूँ ।” मन बहुत आहत हुआ, किंतु क्या कर सकता था सिवाय इसके कि उन्हें बस स्टेण्ड तक छोड़ दूँ ।

शाम को लौटते समय सोचा चलो उनके घर का हाल तो ले लूँ । मैंने दरवाजा खटखटाया ही था कि अंदर से भाभी की हँसी सुनाई पड़ी । मैं चौंका, तभी भाभी बाहर आ गई । उनके मुस्कुराते चेहरे को देखकर मैंने कहा- ‘अफवाह थी ना ?’

‘नहीं, वो तो मुझे तब राहत मिली जब बस स्टैण्ड में ही पता चला कि ज़हर, गुड्डी के दूल्हे ने नहीं, उसके जेठ ने खाया था।’ भाभी ने कहा ।

नसीहत

मुन्ना दौड़ता हुआ कमरे से निकल रहा था, कि उसका पैर फर्श में पड़े गिलास से टकराया गया और गिलास टूट गया। पास खड़े पापा जी ने एक चपत लगा कर ‘देखकर चलने’ की नसीहत पिला दी ।

चंद दिनों बाद एक दिन मुन्ना बरामदे में खेल रहा था । पापाजी कहीं जाने को जल्दी-जल्दी निकले तो उनका पैर कमरे में रखे कप से टकरा गया । मुन्ना की निगाह पापा जी से मिली किंतु अप्रत्याशित रुप से इस बार फिर चपत उसे पड़ गई और साथ ही नसीहत, कि चीजों को ठीक जगह पर क्यों रखते।

माँग का सिन्दूर

‘माँ’! तुम क्यों, माथे पर बिंदी और माँग में सिंदूर लगाती हो ? प्रश्न अप्रत्याशित तो न था किंतु आज ही उठ जाएगा उसे बिल्कुल गुमान न था। यद्यपि काफी समय से वह जवान हो रहे बेटे की निगाहों की तीखी-चुभन महसूस कर रही थी लेकिन आज तो उसने दाग ही दिया वह प्रश्न जिससे अक्सर वह आशंकित रहा करती थी।

यह प्रश्न सिर्फ उसके बेटे का नहीं वरन् सारे रिश्तेदार एवं हर उस व्यक्ति की ओर से किसी न किसी बहाने उठता रहा है जिन्हें पता है कि उसके पति की मृत्यु हो चुकी है। इस नेक काम में मोहल्ले के कुछ लोगों का तो यह प्रथम कर्तव्य हो गया था कि प्रत्येक आने जाने को इस रोचक तथ्य से अवगत कराएं कि वह विधवा होकर भी सधवा की तरह रहती । यह कार्य केवल सूचना के स्तर तक ही नहीं रहता था, इसके पीछे उनका मूल उद्देश्य यह छुपा रहता था कि कहीं यह परिवार किसी नये व्यक्ति की सहानुभूति ने पा ले ।

बेटे, अब तुझे मैं क्या बताऊँ कि जिस दिन तेरे बाप को खाट से उतारा गया था तू केवल पाँच वर्ष का था । तेरी बहन उन्हें बस टुकर-टुकर निहारे जा रही थी और तू बाप को सोता समझ कर उन्हें जगाने के लिए ज़िद कर रहा था। लोग न तो तुझे वहाँ तक जाने दे रहे थे और न ही तू मेरे पास आ पा रहा था। उस दिन हमदर्दी दिखाने वाले तो बहुत इकट्ठे हुए थे लेकिन अधकतर लोगों की निगाहों में विधवा की जवानी ही खटकी थी।

उसे याद है कि लाश को कंधा देने वाले पहले व्यक्ति गोपाल बाबू थे, उसके बाद सब कुछ धुँधला गया था । होश आने पर उसने देखा था कि गोपाल बाबू दोनों बच्चों को बहला रहे हैं।

तब उसे ध्यान आया था कि अभी तक उसके माथे का सिंदूर और चूड़ियाँ ज्यों की त्यों सलामत हैं। शायद बेहोशी की वजह से किसी ने इस ओर ध्यान न दिया हो । पिछला द्दश्य याद आते ही उसे फिर रुलाई फूट पड़ी थी और ज्यों ही उसने हाथ चौखट पर पटकने को उठाया अचानक गोपाल बाबू ने उसे हवा में रोक तक कहा था-

“रहने दो यह सब । चूड़ियाँ टूटने, न टूटने से मरने वाले को कोई फर्क नहीं पड़ता और न सिंदूर पोंछने से उसकी आत्मा को शांति ही मिल जाती है।”

“कैसी बाते करते हैं आप ? यह तो ज़माने की रीति है, यह सब श्रृंगार सुहागिन के लिए ही है और जब सुहाग ही न रहा तो श्रृंगार कैसा ?” वह फिर सिसक उठी थी।

“मैं नहीं मानता कि ये चूड़ियाँ, बिंदी और सिंदूर सिर्फ सुहागिन का ही अधिकार है....”

“आपके मानने न मानने से क्या होता है ? यह तो सदियों पुराना रिवाज़ है। फिर जिनकी बदौलत इनका अस्तित्व था जब वे ही नहीं रहे तो इन चीजों से कैसा मोह ?” वह किसी तरह बोली थी।

“उनकी बदौलत तो और भी कई चीज हैं, यह घर ! ये बच्चे ! क्या तुम इन्हें भी त्याग दोगी ? गोपाल बाबू चुप नहीं हुए थे वे कहते गए, “मैं कहता हूँ छोड़ो इन ढकोसलों को ! न तुम सदा की भांति माँग में सिंदूर भरो, बिंदी लगाओ और चूड़ियाँ पहनो । ऐसा करके तुम किसी को आहत नहीं कर होओगी बल्कि इससे तुम्हारा आत्मबल बढ़ेगा इस एहसास के साथ जीने के लिए कि तुम्हारा पति अब भी तुम्हारे साथ है । तुम अकेली नहीं हो जमाने से जूझने के लिए, अपने बच्चों को संवारने के लिए ।”

वह वक्त न तो प्रतिवाद करने का था और न ही उसमें वह शक्ति ।

इसके बाद गोपाल बाबू अक्सर हमारे घर आने गले थे । बच्चों का हाल चाल पूछते, कोई समस्या होती हो राय देते और चले जाते । पति की पेंशन से काम नहीं चल पा रहा था अतः मोहल्ले वालों के कपड़े सीने लगी, पहले तो लोग झिझके फिर सस्ता और ठीक ठाक सिलने की वजह से धीरे-धीरे आने लगे । बेटी भी काम में हाथ बटाने लगी अतः गृहस्थी किसी तरह चल निकली ।

लेकिन उस दिन तो वह काफी परेशान हो गई थी जब स्कूल से आकर बस्ता पटकते हुए सूजी आँखों से तूने पूछा थे, “माँ गोपाल बाबू यहाँ क्यों आते हैं ? उन्हें मना कर दो, लड़के मुझे चिढ़ाते हैं।” तब तू ज्यादा बड़ा नहीं हुआ था, अतः थोड़ी देर बाद में बहल गया था। लेकिन जानती हूँ कि आज यह संभव नहीं है।

जब से गोपाल बाबू इस घर में आने लगे पड़ोसियों के ताने पीठ पीछे सुनाई देने लगे थे । मैं सदा ही इसे अनसुना किए रही क्योंकि ताने मेरे परिवार का कवच भी बन गए थे। लोग गोपाल बाबू के रसूख से रही इस घर की ओर आँख उठाने में हिचकते रहे वर्ना तुझे क्या मालूम कि इस शहर वाले हमारी बोटी-बोटी नोंच डालते । मैं तुम सबकी सलामती के लिए जाने किस गर्त में पहुँच जाती और तेरी बहन जो आज सुख से अपने पति के घर में है, कहीं घुँघरू बाँध रही होती ।

अब तुझे क्या समझाऊँ कि पति क्या होता है ? समाज के द्वारा थोपित एक अधिकृत बलात्कारी, जो बस बच्चे पैदा कर सदा बाप होने का दम भरता रहता है ? मेरी नज़र में वह पति कहलाने का कदापि हकदार नहीं है। अरे पति तो वह है जो स्त्री को अपना नाम, इज्जत, एक छत, दो रोटी और बच्चों को जीने की निश्चिंतता दे ।

आज इस समाज में तुम्हें अपने पैरों पर खड़े रहने लायक बनाने वाला, तुम्हारा बाप नहीं है । तुम्हें जानने वाला हर व्यक्ति यही जानता है कि तुम गोपाल बाबू के विशेष कृपा पात्र हो; भले ही तुमने उन्हें कभी पसंद नहीं किया ।

तुमने शायद ही कभी सोचा हो कि कैसे पल-पल धुल कर मैंने तुम लोगों को पढ़ाया, लिखाया, बेटी की शादी की । और तेरी नौकरी ! जिसका तुझे इतना गुमान है, जानता है किसकी बदौलत तेरे पास है ! अगर उस दिन तेरी नौकरी के लिए गोपाल बाबू सेक्योरिटी न भरते तो तू आज भी चप्पलें चटकाता फिरता । मैं सारे रिश्तेदारों के सामने झोली फैला चुकी थी लेकिन हाथ आई थी केवल कोरी सहानुभूति या बहाने । और आज जब तू चार पैसे कमाने लगा हैतो अपनी ही माँ को कटघरे में खड़ा कर रहा है !

तुझे तो शायद यह भी नहीं मालुम कि जिस दिन तेरी बहन का कन्यादान गोपाल बाबू ने लिया उसी दिन से उनकी पत्नी ने अपना कमरा अलग कर लिया था। बीबी की जली कटी से बच कर जरा सकून पाने जब कभी वह यहाँ आते तो तेरी निगाहें उन्हें चैन न लेने देतीं। उन्होंने अपनी सारी खुशियाँ होम कर दी इस घर को उजड़ने से बचाने के लिए किन्तु इस घर ने उन्हें कभी अपना न समझा। वे इधर के रहे न उधर के ।

लेकिन आज जब तूने मूँह खोलकर प्रश्न का नश्तर चला ही दिया है तो जवाब देने में मैं भी हिचकूँगी नहीं । मैं इस प्रश्न के पीछे छुपी तेरी भावनाओं तथा शंकाओं को अच्छी तरह महसूस कर रही हूँ - सुन; “जब पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष को अपने ढंग से जीने देने में समाज को कोई आपत्ति नहीं होती तो औरत के लिए तरह तरह के बंधन क्यों हैं ? उसे अपने ढंग से जीने देने में समाज की भृकुटी क्यों तन जाती है ? यह दोहरा मापदंड क्यों ? नारी को ही क्यों उसके किसी पुरुष के संबंधों को लेकर संदेह की निगाह से देखा जाता है ? क्या इसलिए कि यह पुरुष प्रधान समाज जिसमें सारे नियमों का निर्धारण वह स्वयं करता है, सारी स्वतंत्रता अपने नाम कर स्त्री के पैर दासता की जंजीर से जकड़ कर, अपना स्वामित्व दिखाना चाहता है ?” वह बोलती गई, “मेरे माथे का यह बिंदी, ये चूड़ियाँ और माँग का सिंदूर समाज के नियमों को चुनौती देने की एक अलख है जिसे मैं आजीवन जलाए रखूँगी । और जहाँ तक मेरे और गोपाल बाबू के संबंधों की बात है तो सुन, कुछ ऐसे संबंध भी होते हैं जिन्हें किसी रिश्ते का नाम देना जरूरी नहीं, क्योंकि हर रिश्ते को दकियानूसी समाज ने एक सीमित परिभाषा में बाध रखा है । यह बात तुम चाह कर भी न मानोगे क्योंकि तुम भी पक्षाघात से ग्रसित समाज की वह उंगली हो जो एक बार किसी औरत पर उठ गई तो फिर मुड़ नहीं पाती अन्यथा तुम अपनी माँ से शायद यह प्रश्न न उठाते ।”

रिवाज


बात सन् 1970 के आसपास की है। कार्यालय में मेरे सहकर्मी रमेश के विवाह की प्रथम वर्षगांठ के चंद रोज पहले उसके यहाँ बेटी पैदा हुई तो उसने दोनों अवसरों को मिलाकर एक शानदार पार्टी दी। चूँकि रमेश कर्मचारियों का नेता भी था, विभाग में अच्छा प्रभाव था। कार्यालय के सभी बढ़े अधिकारी कार्यक्रम में शामिल हुए तथा उसकी कार्य क्षमता एवं सद्व्यवहार की काफी सराहना की गई । उत्सव हुए मुश्किल से एक सप्ताह ही हुआ होगा कि एक दिन कार्यालय पहुँचा तो पता चला कि रात को रमेश की पत्नी का देहांत हो गया । हम लोग तुरन्त उसके घर रवाना हुए ।

लोग दाह-संस्कार के बाद लौटते समय मासूम छोटी-सी बच्ची के बारे में ज्यादा सोचते रहे । लेकिन एक बात और, जो शायद हम सभी को खटक रही थी वह यह कि दाह संस्कार के दौरान रमेश अनुपस्थित था । बात आई गई हो गई । तीन-चार दिन बाद अचानक जब रमेश का जिक्र आया और फिर वही बात उठी । तब उसके एक अंतरंग साथी ने बताया कि उनके यहाँ रिवाज है कि पति अगर दाह में शामिल होगा तो वह एक वर्ष तक दूसरा विवाह नहीं कर सकता ।

कहना न होगा कि रमेश का दूसरा विवाह एक वर्ष के भीतर हो गया ।

खून


बात पुरानी सही, याद अभी तक ताजा है और क्यों न हो, घटना ही ऐसी थी। मेरे कार्यलय में एक खूबसूरत नौजवान ‘मंगलेश्वर’ चौकीदार के पद पर नियुक्त था।

मंगलेश्वर नया होने के कारण कम बोलता था मगर अनुशासित था । कुछ दिनों के बाद मैंने पाया कि वह अक्सर लेट आने लगा था और एक दिन तो दोपहर दो बजे के बाद आया । उस दिन मैंने उसे जमकर फटकार लगा दी। वह बगैर कुछ सफाई दिए चुपचाप सामने से हट गया ।

इस पर मेरे एक सहयोगी ने बताया कि उसकी पत्नी बहुत बीमार है और अस्पताल में भर्ती है। सुना है कि उसे खून की भी जरूरत है। सुनकर मुझे बड़ी ग्लानि हुई । मैंने उसे बुलाकर अफसोस व्यक्त किया और तुरन्त अस्पताल जाकर खून देने की पेशकश की । वो बहुत सकुचा रहा था किंतु मेरे साथ दो चार और आ गए थे अतः वह ज्यादा न बोल पाया।

अस्पाल में जब हमने संबंधित डॉक्टर से खून देने की बात कही तो डॉ. बिफर उठा । सबब पूछने पर गुस्से से मंगलेश्वर की ओर इशारा करके के बोले-कि तीन-चार बार हमने इसे खून देने के लिए कहा किन्तु इसने साफ इंकार कर दिया ।

अब चौंकने की हमारी बारी थी। खैर, हममें से एक ने खून दिया किंतु देर हो चुकी थी अतः उसकी पत्नी बच नहीं पायी ।

बाद में पता चला कि वह इसीलिए खून नहीं देना चाहता था कि पत्नी उस नापसंद थी।

रिश्ता

क्या दोस्ती की चरम परिणति विवाह ही है ? अचानक यह प्रश्न एम.ए. फाइनल की क्लास में जब एक छात्रा ने शोखी से उछाला तो विभा ठिठक गई । एक पल के लिए उसे लगा कि यह प्रश्न समाजशास्त्र की शिक्षिका से नहीं वरन् डॉक्टर विभा भास्कर राव से किया गया एक व्यक्तिगत प्रश्न है।

उस समय तो उसने यह कहकर कि ‘यह कोई गणित की क्लास नहीं जिसमें एक प्रश्न को हल करने का एक ही सर्वमान्य तरीका एवं निश्चित उत्तर होता है। यहाँ प्रश्न-उत्तर देश-काल, समाज अथवा परिस्थितियों से प्रभावित होते रहते हैं जिन्हें केवल ‘हाँ’ या ‘ना’ के द्वारा चिन्हित नहीं किया जा सकता’, टाल दिया, लेकिन प्रश्न ने अचानक उसे25 वर्ष पीछे ढकेल दिया ।

कॉलेज के अंतिम चरण में जब उसने भास्कर के साथ यह तय पाया कि ‘अंतरजातीय’ होने के कारण उनके विवाह में दोनों परिवारों की सहमति असंभव है और कोर्ट मैरिज के अलावा कोई चारा नहीं, तो इसकी प्रथम घोषणा उसने अपनी सबसे अंतरंग रहेली, नीता से की थी। तब नीता ने कुछ ऐसा ही प्रश्न किया था, ‘तुम लोग अपने परिवार की अपेक्षाओं के विरूद्ध जो निर्णय ले रहे हो यही तुम्हारे संबंधों का अंतिम विकल्प है ? क्या दोस्ती के दायरे में रहकर तुम लोग नहीं जी सकते ? तुम लोग अपने माँ-बाप को तो संकीर्ण विचारों वाला कहते हो पर क्या वे तुम पर खुदगर्ज या स्वार्थी होने का आरोप नहीं लगा सकते ?’ इस पर उसने नीता को खूब खरी-खोटी सुनाई थी और यह कहकर कि ‘नसीहत देने के लिए एक तू ही तो बची थी’, उसने वर्षों उससे बोलचाल तक बंद कर दी थी ।

परिवारों के विरोध को दीकयानूसी करार देते हुए, जीवन को अपने ढंग से जीने का दृष्टिकोण विभा एवं भास्कर को अविवेकपूर्ण नहीं लगा था और न ही उन्हें कभी अपने निर्णय पर पछतावा ही हुआ । हाँ, यह बात अलग है कि विवाह के बाद वे दोनों अपने परिवारों से पूरी तरह कट गए थे।

पति, पैसा व प्रतिष्ठा के मामले में विभा खुद को न केवल भाग्यशाली मानती थी, वरन् उसे इस बात का गर्व भी था कि इन सब के लिए उसने कभी कोई समझौता नहीं किया । हाँ, जीवन में कुछ पल ऐसे अवश्य आए जब उसे लगा कि ‘सुख का कोई भी शिखर अभेद्य नहीं है।’

विवाह के बाद विभा को उस शहर में रहना अखरने लगा था। खास कर ऐसे मौकों पर तो वह बिल्कुल असहज हो जाती थी जब उन दोनों को साथ देखकर परिचितों की निगाहें आपस में कुछ अजीब सा संप्रेषण करती । अतः अवसर मिलते ही अपनी पोस्टिंग एक तराई वाले इलाके में करा ली जहाँ आमतौर से लोग जाने में कतराते थे।

उस कस्बेनुमा बस्ती में शहरी चकाचौंध व सुविधाएँ तो कम थीं किन्तु नीरव प्राकृतिक दृश्यों की प्रचुरता थी। वहाँ विभा को असीम शांति मिली। भास्कर अक्सर दौरे पर रहते थे अतः खाली समय पाकर उसने काफी दिनों से पेंडिंग पड़े शोधपत्र को फिर से लिखना आरंभ कर दिया ।

ऐसे ही एक दिन जब विभा कालेज से लौटी तो सामने टेबल पर एक निमंत्रण पत्र देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ । उत्सुकतावश बगैरे हाथ-मुँह धोए उसे तुरंत पढ़ने लगी। ‘अरे यह तो तान्या की शादी की कार्ड है।’ तान्या, उसकी छोटी बहन, वह उछल पड़ी । पर यह क्या, दो दिन बाद ही शादी है। भास्कर बाहर गया हुआ है, क्या किया जाय ? अगर वह कल सुबह तक आ जाय और वे शाम को निकल पड़े तब कहीं विदाई के समय तक पहुँच पाएंगे । सहसा वह उदास हो गई। महरी ने जाने कब चाय रख दी थी जो बिल्कुल ठंडी हो गई । कमरे में शाम उतर आई थी। महरी को बता कर वह यूँ ही बाहर निकल पड़ी । रास्ते में पी. सी.ओ. दिखा। सोचा चलो पहले भास्कर को बता दूँ ताकि वह सुबह तक आ ही जाए, और लगे हाथ तान्या को बधाई भी दे दूँ । भास्कर को तो बगैर विषय को विस्तार दिए तुरंत आने को कह दिया किन्तु घर फोन लगाते समय उसकी उंगलियाँ नम्बरों को डायल करते वक्त कुछ काँप-काँप जाती थीं । पाँच वर्ष के लंबे संवादहीन अंतराल के बाद आज पहली बार वह घर फोन लगा रही थी।

उधर फोन की घंटी और इधर दिल की धड़कन, विभा को समान रूप से सुनाई दे रही थी। अभी वह यह सोच ही रही थी कि बातों का सिलसिला किस बिन्दु से शुरू करेगी कि फोन पर आवाज सुनाई दी “हेलो, कौन ?”

निश्चित ही यह माँ का स्वर था। यह आवाज़ कितना भी दूर या कितने ही वर्षों के बाद क्यों न सुनाई दे, इसे पहचानने में वह कभी धोखा नहीं खा सकती। एक पल के लिए उसे लगा कि माँ उसके सामने खड़ी है और वह एक दम बच्ची बन गई है। बड़े उलाहना भरे स्वर में अपने गुस्से का इजहार करते हुए वह बोली- “यह क्या माँ, बेटी को बुलाने के लिए सिर्फ निमंत्रण पत्र और वो भी इतनी देर से कि आदमी पहुँच ही न सके। कहीं दामाद जी बुरा मान गए तो ....

अचानक विभा को लगा कि उसकी आवाज किसी गहरे सूखे कुएँ में डूब रही है। दूसरी ओर से कोई प्रतिक्रिया न पाकर उसे लगा कि कहीं माँ की आवाज पहचानने में उससे भूल तो नहीं हो गई। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था और फोन डिस्कनेक्ट भी नहीं हुआ था। उसने एक दो बार हैलो-हैलो किया लेकिन जब कोई जवाब नहीं आया तो फोन रख दिया। सोचा, शायद रॉग नम्बर रहा हो, अब वहाँ पहुँचनकर ही सबको चौकाएगी।

घर आकर वह एकदम व्यस्त हो गई, हालाँकि मन किसी भी कार्य में नहीं लग रहा था और रह-रह कर सबकी याद आ रही थी। आज उसे पहली बार घर में एस.टी.डी. की सुविधा न होना खला था। तैयारी करते-करते रात आधी से ज्यादा गुज़र गई फिर भी संतुष्टि नहीं। विवाह के बाद पहली बार मायके जा रही है और वह भी ऐसे शुभ अवसर पर । भाई बहनों के लिए कुछ तो ले ही जाना होगा। कल शापिंग के लिए समय भी कितना कम रहेगा और यहाँ मिलता भी क्या है ? सोचते-सोचते न जाने कब उसकी आँख लग गई।

सुबह-सुबह टेलीफोन की घंटी से उसकी नींद खुली। फोन उठाया तो कोई लड़की दीदी-दीदी कर ही थी। चैतन्य होते ही उसने आवाज़ पहचान ली। अरे तान्या, लगी बधाई देने । तभी तान्या की आवाज़ आई, “दीदी, कल तुमने माँ को फोन लगाया था, ना । तब से माँ बहुत अपसेट हैं। शायद तुम यहाँ आने की सोच रही हो, पर प्लीज दीदी, ऐसा मत करना। निमंत्रण भी इसी हिसाब से भेजा गया था कि तुम्हें देर से मिले। मेरे विवाह के चक्कर में पापा बिल्कुल टूट से गए थे। जहाँ कहीं भी बात शुरू होती थी तुम्हारे प्रेम विवाह को लेकर मामला बिगड़ जाता । माँ की ज़िद थी कि लड़का स्वजातीय एवं अच्छे परिवार से हो किन्तु हमारे शुभचितंक हमेशा तुम्हारे विवाह की बातें उछाल कर सबको बरगला देते । वो तो भला हो इन लोगों का । चूँकि हाल ही में यहाँ ट्रासंफर होकर आए थे, इनका लोगों से ज्यादा मेल मिलाप नहीं हो पाया और पापा ने दौड़-धूप करके महीने भर मे सब तय कर लिया । अब इसके पहले कि कोई विघ्न पड़े, माँ चाहती है कि विवाह सम्पन्न हो जाए । सो प्लीज दीदी, क्षमा करना।” और फोन डेड हो गया था।

भला हो समय का, जो कोई भी ज़ख्म हरा नहीं रहने देता । किन्तु अब उसका मन गाहे-वगाहे सोचने लगा था कि क्या उनका निर्णय वास्तव में स्वार्थपरक था। ऐसा उसे उस समय भी लगा था जब शिवम् होने को था।

डॉ. दयाल उस दिन घर आई थीं। चेक-अप के बाद बोली, “मिस्टर भास्कर बेहतर हो कि कुछ दिनों के लिए आप माँ या किसी बुजुर्ग महिला को बुला लें। इनकी देखरेख में आपको सुविधा रहेगी।” स्वाभाविक रूप से दी गई सलाह भी उसे सूल-सी चुभी थी और भास्कर के यह कहने पर कि ‘क्या माँ को फोन कर दूँ,’ वह लगभग चीख उठी थी। वह जानती थी कि ससुराल में भी उसे ‘घर-तोड़ू’ औरत के रूप में देखा जाता था। उसने उनका होनहार कमाऊ लड़का जो उनसे अलग कर दिया था। लेकिन इस बात के लिए वह भास्कर की मन ही मन बहुत प्रशंसा करती है क्योंकि वह, उसकी भावनाओं का ध्यान रखते हुए कभी घरवालों की बात नहीं निकालता था । विभा ने उसमें यह बहुत अच्छी बात पाई थी। खैर, उसकी ज़िद कि किसी को न बुलाया जाए के आगे तो वह चुप रहा पर उसकी ख़ीझ कभी-कभी झलक जाती थी । यह शिवानी के होने के बाद तो अक्सर नज़र आने लगी थी । ऐसे अवसरों पर न जाने क्यों उसे माँ की बातें याद आने लगती थीं । माँ ने एक दिन कहा था-

“बेटी, हमारे समाज में विवाह सिर्फ स्त्री-पुरुष का मिलन संस्कार नहीं है, यह दो परिवारों के मिलन को भी मोहर लगाता है। लड़का-लड़की एक-दूसरे के गले में जयमाला डालकर सारे समाज एवं नाते रिश्तेदारों को दरकिनार कर एक स्वाभाविक जिंदगी नहीं जी सकते । गृहस्थ जीवन का एक अहम् तत्व समाज में सबके साथ जीना है और इसीलिए समाज के ‘बनाए नियम-कायदे, संबंध-संबंधी नकारे नहीं जाते ।” विभा ने इस पर भी जब अपनी जिद दोहराई तो बाबू जी जो अभी तक चुप थे यह कहकर हट गए, कि बेटी संबंधों के धागे टूट तो एक झटके में जाएँगे लेकिन देखना वे फिर जुड़ नहीं पाएंगे।

बच्चे जब छोटे थे, अक्सर तीज-त्यौहार पर पड़सियों के यहाँ रिश्तेदारों की चहल-पहल देखकर तरह-तरह के प्रश्न करते । तंग आकर उसने दोनों को हास्टल भेज दिया था । अब तो दोनों बड़े हो गए थे। बड़े ही नहीं, विवाह योग्य भी । इसी के चलते उसने भास्कर से एक दिन शिवानी की शादी के लिए गंभीरता से विचार करने को कहा और वह मान भी गया था। अगले ही हफ्ते उसने शिवानी का वैवाहिक विज्ञापन छपा समाचार पत्र लाकर उसे पकड़ा कर कहा था कि लो अब पत्रचार फाइनल करने का जिम्मा तुम्हारा ।

उसने यूँ ही उत्सुकता वश पेपर पर नज़र डाली थी कि देखूं उम्र वगैरह ठीक-ठाक लिखी है कि नहीं लेकिन ‘स्वजातीय वर की आवश्यकता’ पढ़कर उसका वजूद हील गया । तो इन्होंने भी पुरुषोचित अधिकार का उपयोग यथासमय कर ही लिया । पहले तो उसने सोचा कि पूछूँ “कहाँ गई वह प्रगतिशील विचारधारा, जो अपने विवाह के समय वड़ा जोर मार रही थी । जीने का यह दोहरा मापदंड, बीवी और बेटी को लिए अलग-अलग, आखिर क्यों ? पर उसने कुछ नहीं कहा ।

इस घटना के चंद रोज बाद ही उसे एक सेमीनार अटेंड करने कलकत्ता जाना पड़ा। पहले ही दिन यूनिवर्सिटी से निकलते वक्त अचानक उसे नीतू दिख गई। वह वहीं लेकचरर थी । फिर क्या था, नीतू से मिलकर उसे लगा उसके कॉलेज के दिन लौट आए । नीतू के साथ उसका बेटा राकेश भी था, जो वहीं किसी प्राइवेट कंपनी में अच्छे पद पर था।

तीन-चार दिन कैसे, पता ही नहीं चला । सेमीनार के बाद उसका सारा समय नीतू के साथ ही बीतता । कभी-कभी राकेश भी साथ रहता और तीनों कहीं घूमने निकल जाते । गेस्ट हाउस तो बह सिर्फ सोने के लिए ही जाती थी । आते वक्त नीतू, उसे स्टेशन तक छोड़ने आई थी । बिछुड़ते समय यूँ भी मन बोझिल हो जाता है फिर बचपन की सहेली से अलग होने की तो बात ही और है । जब ट्रेन छूटने का समय आया तो तीन दिन से मन में घुमड़ रही बात आखिर मुँह तक आ ही गई । नीतू का हाथ पकड़ कर वह बोली, “मेरे विचार से, राकेश की जोड़ी शिवानी के साथ बहुत जचेगी, अगर तुम्हारी सहमति हो तो ?” गाड़ी छूट चुकी थी, और वह बार फिर ख्यालों में खो गई ।

एक सप्ताह बाद नीतू का लंबा सा खत मिला । वैसा ही, जैसा कॉलेज की छुट्टियों में लिखा करती थी । प्रेम पगा, अतरंग बातें व यादों को दोहराता हुआ । अंत में था, “विभा बुरा न मानना, मैं अब बी दोस्ती का, रिश्ते में बदलना आवश्यक नहीं समझती । ”

पर्चा

माँ का टेलीफोन पाकर उसे तुरंत जाना था । मनीष को ऑफिस में सूचना भेजी तो वे स्टेशन पहुँच गए । कारण पता न होने से हम दोनों चिंतित थे । रिटायर होने के बाद पापा अस्वस्थ रहने लगे थे जिसका एक कारण छोटी बहन की शादी न हो पाना भी था । इसी के चलते अपने ऑफिस के साथी से लेकर मनीष ने दो पते मुझे एक पर्चे में लिख कर चलते समय पकड़ा दिए और कहा कि यदि सब कुछ सामान्य हो तो इन लड़कों को देख लेना, कानपुर के ही हैं ।

स्टेशन पर छोटा भाई आ गया था । रिक्शे के बजाय जब वह टैक्सी स्टैण्ड की और बढ़ा तो मन और आशंकित हो चला । भाई से पूछने पर उसने कुछ ठीक से उत्तर नहीं दिया तो वह चुप लगा गई ।

शहर से दूर जब हमारी टैक्सी एक प्राइवेट नर्सिंग होम के पास रूकी तो उसे याद आया कि यह तो उसकी माँ की सहेली का नर्सिंग होम है । माँ बाहर इंतजार में ही थी, मिलते ही सुबकने लगी । अब उसका धीरज टूट गया । उसने गुस्से से पूछा- कोई मुझे बताएगा कि आखिर हुआ क्या है ? तब माँ बड़ी मुश्किल से आँखें पोंछते हुए बोली- “क्या करुँ, छोटी अबार्शन के लिए तैय्यार ही नहीं थी ।”

अगले ही क्षण उसने चुपचाप माँ की नज़र बचा कर पर्स में रखा मनीष का पर्चा खिड़की के बाहर गिरा दिया ।

एक महँगा प्रायश्चित



वह 31 दिसम्बर की रात थी । हालाँकि ट्रेन छूटने में देर थी फिर भी मैं प्लेटफार्म से एक पत्रिका लेकर अपनी बर्थ पर बैठ गया । सामने की बर्थ पर एक अधेड़ सज्जन लेटे हुए थे । उनके पैरों के पास एक साधारण चेहरे-मोहरे वाली लड़की बैठी हुई थी । अपनी तरफ देखता पाकर उसने मेरी पत्रिका की ओर इशारा करते हुए पूछा- ‘कौन-सी है,’ और मैंने उत्तर देने के बजाय वह पत्रिका उसकी ओर बढ़ा दी ।

कम्पार्टमेंट में अचानक लोगों की आवक-जावक बढ़ती देखकर मैं समझ गया कि ट्रेन छूटने को है तभी वे बुजुर्ग सज्जन बोने- “लगता है ट्रेन छूट रही है । कहाँ तक जाएँगे आप ?”

‘कटनी’ कह कर मैं चुप हो गया किन्तु लगा कि वे कुछ और बात करने को उत्सुक हैं, उसीलिए आगे बोला- “मैं यहीं पास के कस्बे के एक बैंक में फील्ड आफिसर हूँ । गत वर्ष ही शिक्षा पूरी की और प्रथम पोस्टिंग यहाँ हो गई । अभी दो दिन की छुट्टी लेकर अपने घर इलाहाबाद जा रहा हूँ कटनी से गाड़ी बदलूँगा ।” सुनकर वे सज्जन बोले, मैं डॉ. अन्थोनी, यहाँ बिलासपुर से थोड़ी दूर एक गाँव में प्राईवेट प्रेक्टिस करता हूँ । यह मेरी बेटी ‘मेरी’ है। इसने भी पिछले ही साल एम.एस.सी. किया है और अभी-अभी रिसर्च असिस्टेंट के पद पर नियुक्त हुई है। मैं इसे जबलपुर पहुँचाने व रहने-वहने का इंतजाम करने के लिए जा रहा हूँ। दो-चार दिन बाद वापस आ जाऊँगा।’

अभी तक मेरी बगल में बैठे हमउम्र सज्जन जो शायद चौथी बर्थ के अधिकारी थे, हमारी बातें खामोशी से सुन रहे थे, बोले, ‘मैं जबलपुर का रहने वाला हूँ, यहाँ बिजनेस के सिलसिले में आया था। यह मेरा भतीजा बंटी है इसे भी घुमाने के लिए ले आया था’ कहते हुए उन्होंने एक 8-9 वर्ष के बच्चे की ओर इशारा किया जो उम्र की बर्थ पर लेटा कोई कामिक्स पढ़ रहा था । ‘जबलपुर में मेरे लायक कोई काम हो तो बताइएगा।’ ‘जरूर’, वे बोले ।

परिचय की औपचारिकता समाप्त होते-होते ट्रेन के साथ-साथ हम लोगों की बातों ने भी गति पकड़ ली। मैं, मेरा पड़ोसी, जिसने अपना नाम बख्शी बताया था, व ‘मैरी’, हम-उम्र होने के नाते बातचीत में काफी मशगूल हो गए । बीच-बीच में ‘मैरी’ के पापा भी शामिल हो लेते थे। तभी ऊपर से ‘बंटी’ भी उतर आया और कहने लगा अंकल कोई जोक-वोक सुनाइए । बच्चा बड़ा प्यारा था और बेहद वाचाल । मेरे यह कहने पर कि पहले तुम सुनाओ वह जो शूरू हुआ तो रूकने का नाम ही नहीं लिया । उसकी प्यारी-प्यारी बातें सुनकर हम सब खूब हँसे और सभी ने कुछ न कुछ सुनाया । थोड़ी ही देर में ऐसा लगने लगा जैसे सब एक दूसरे को काफी दिनों से जानते हैं और कब रात के 11 बज गए पता ही न चला।

घड़ी देखकर ‘मैरी’ ने कहा- ‘पापा 11 बज गए हैं । खाना खाकर दवा ले लीजिए वर्ना फिर आपको नींद नहीं आएगी ।’ मैं भी उठ खड़ा हुआ और अपना बिस्तर लगाने लगा। बख्शी बंटी को सुलाने के लिए ऊपर की बर्थ में चढ़ गया। थोड़ी देर में मैरी के पापा ने हम लोगों को खाने के लिए आमंत्रित किया । हम लोगों के मना करने पर भी वे न माने और यह कह कर कि आज न्यू इयर्स नाइट है सब साथ मिलकर खाएँगे बंटी को भी नीचे उतार लिया गया । संकोचवश हमें बैठना पड़ा । खाना बहुत स्वदिष्ट था। क्रिसमस के कारण केक वगैरह कई चीजें थीं, जो हम सब ने मिलकर बड़े मजे से खाईं । ऐसा लगा कि उन्होंने दो टाईम का खाना रखा था जिसे हमने एक ही बार में सफाचट कर दिया और मेरे यही कहने पर अन्थोनी साहब हो-हो करके हँसने लगे। ‘आज खाने के लिए मना करके मैं बहुत बड़ी गलती करने जा रहा था।’ खाने के बाद मैंने कहा ।

‘क्यों ?’

‘इतने लज़ीज खाने से वंचित जो रह जाता । सुनकर बख्शी ने मेरी बात से सहमति जताई । ‘मैंरी’ थैंक्स कहकर मुस्कुरा दी । तभी कंपार्टमेंट में एक काफी वाला आया । बंटी को छोड़ हम सब ने काफी पी । खाने के बाद ठंड में गर्म-गर्म काफी ने और भी मजा ला दिया । अब तक 12 बजे चुके थे अतः सबने एक-दूसरे का नए वर्ष की बधाई दी और अपनी-अपनी बर्थ से जा लगे।

मेरी बर्थ के नीचे अन्थोनी साहब व बख्शी की वर्थ के नीचे ‘मैरी’ ने अपना विस्तर बिछा लिया था। मैरी और मैं एक दूसरे को सुविधा से देख सकते थे अतः लेटे-लेटे कॉलेज की बातें होने लगी। थोड़ी ही देर में अन्थोनी साहब के खर्राटे सुनाई पड़ने लगे। बख्शी अलबत्ता जाग रहा था किन्तु बातों में शामिल नहीं हो रहा था शायद इसीलिए कि हमारा विषय कॉलेज की पढ़ाई पर ज्यादा था और वह इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं रखता था।

चूँकि कम्पार्टमेंट के प्रायः सभी लोग सोने लगे थे और मुझे ऊपर की बर्थ से बात करने में जरा जोर से बोलना पड़ना था अतः मैं नीचे आकर अन्थोनी साहब की बर्थ में, एक तरफ बैठ गया। ‘मैरी’ भी उठी और शाल ओढ़कर अपनी बर्थ में बैठ गई । कॉलेज की पढ़ाई और नई नौकरी के खट्टे मीठे अनुभव सुनते-सुनाते सुबह होने को आई किन्तु हमें नींद न आई । एक स्टेशन पर गाड़ी रूकी । मैं प्लेटफार्म पर उतर कर यूँ ही टहलने लगा । जब गाड़ी चलने को हुई तो दो कुल्हड़ चाय ली और अन्दर आ गया । एक कुल्हड़ मैरी को पकड़ाकर हम लोग फिर बातें करने लगे ।

मैरी कान्वेंट में पढ़ी एवं क्रिश्चियन होने के नाते हिन्दी का उच्चारण एक विशेष लहजे से करती थी जो मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था। उसका हर विषय में दखल भी काफी था अतः बातें करने में मजा आ रहा था । फिर बातों-बातों में उसकी एक सहेली मेरी क्लास फैलो निकल आई, जिससे बातचीत में और अंतरगंता आ गई । सुबह के सात बजने को आए, थोड़ी ही देर मे गाड़ी कटनी पहुँच जाएगी यह सोचकर मैं मैरी से बोल- “आधे घंटे बाद यह ट्रेन छोड़कर हम सब अलग-अलग दिशाओं में जाने वाली गाड़ी में बैठेंगे ।” मैरी ने सुना और एक प्रश्नवाचक निगाह उठाई तो मेरे मुँह से निकला- “यह मेरे अभी तक के जीवन की सबसे सुखद यात्रा है।” ‘शायद मेरी भी।’ यह सुन, थोड़ा उत्साहित होकर मैंने धीरे से पूछा, ‘पत्र लिखोगी ?’ उसने नकारात्मक सर हिलाने से मेरा चेहरा शायद उतर गया था अतः वह तुरंत बोली- ‘उत्तर दूँगी।’ और हम दोनों हँसे पड़े।

घर पहुँच कर मैं वहाँ की उलझनों में फंस गया । माँ का, छोटी बहन की शादी के लिए लड़का ढूँढ़ने के लिए हर पल याद दिलाना, पिताजी का नौकरी में ऊँच-नीच की शिक्षा व यार दोस्तों को नई नौकरी की पार्टी इत्यादि के बीच कभी-कभी ‘मैरी’ याद आ जाती। कई बार सोचा कि समय निकालकर एक पत्र लिखूँ किन्तु संकोच बार-बार आड़े आता रहा।

छुट्टी समाप्त होने पर नौकरी पर जाने के लिए ज्यों ही ट्रेन में बैठा मैरी की याद जोर मारने लगी, और मैं ब्रीफकेस से पैड निकालकर ट्रेन में ही पत्र लिखने बैठ गया । जिन्दगी में कभी किसी को इस तरह पत्र नहीं लिखा था अतः समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे शुरू करूँ और क्या लिखूँ । कई पेज लिखने व फाड़ने के पश्चात अंततः कुछ यूँ लिखा-

क्या संबोधन उचित होगा तय न कर पाने के कारण इस तरह पत्र आरंभ कर रहा हूँ जैसे बगैर भूमिका के बीच से कोई कहानी सुनाना शुरू कर दे। लिखना क्या है सिवाय उसके कि रेल यात्रा बहुत याद आती है और आज फिर रेल में बैठा उन्हीं स्टेशनों से गुजर रहा हूँ किन्तु अकेला....आशा है आपकी आगे की यात्रा अच्छी कटी होगी पर मेरी न कट सकी । अब न जाने कब मिलें यह सोचकर अच्छा नहीं लगता अतः पत्र लिखने बैठ गया . सुना है पत्रों का सहारा, बहुत बड़ा सहारा होता है और फिर आपसे आश्वासन भी मिला है...आगे पत्र मिलने पर-

‘विश्वास’

पत्र स्टेशन के ही लेटर बाक्स में डाल दिया। इसके बाद बड़ा हल्कापन महसूस हुआ पर चौथे पाँचवें दिन से ही जवाब का इंतजार कष्ट देने लगा। आफिर में रोज ड़ाकबड़े उतावले मन से देखता और निराश हो जाता । लगभग माह भर बाद जब एक छोटा-सा पत्र डाक में दिखा तो मन बल्लियों उछलने लगा। इतना सब्र न था कि घर जा कर पढ़ता, आफिस में ही खोल कर पढ़ने लगा ।

‘मिस्टर विश्वास’,
हिन्दी में खत लिखा इसलिए उत्तर भी हिन्दी में दे रही हूँ लेकिन मुझे आपकी तरह पोइटिक भाषा नहीं आती। यात्रा यकीनन बहुत अच्छी रही । जबलपुर बख्शी ने हमें अपने घर इनव्हाइट भी किया। अभी तक तो हम नहीं गए । जाने क्यों पापा को वह अच्छा नहीं लगा जबकि तुम्हारी अक्सर तारीफ करते हैं। यदि बिलासपुर जाओ तो पापा से मिलने अवश्य जाना । वहाँ से 25 कि.मी. ही तो है, हमारा गाँव।

अच्छा बस !

‘मैरी’

पत्र न जाने कितनी बार खोला, पढ़ा और बंद किया । हर बार कुछ नयापन मिलता और उतावलापन तो इतना कि उसी समय जवाब लिखने बैठ गया। फिर सोचा यह ठीक नहीं है। वह क्या समझेगी कि मुझे इनके इलावा कुछ काम नहीं है ? और उसने लिखा भी तो नहीं कि पत्र लिखना। यह ध्यान आते ही एक बार फिर पत्र अच्छी तरह पढ़ा । वास्तव में उसने ऐसा कुछ नहीं लिखा था-अतः मन कुछ खिन्न हो गया । पर जी, कब तक काबू में रहता । फिर सोचा लिख अभी लेता हूँ, पोस्ट दो-चार दिन बाद करूँगा । और यह आइडिया क्लिक कर गया । उसी समय पत्र लिख डाला, लेकिन पोस्ट बाकायदा 3-4 दिन बाद ही किया। कहना न होगा कि इस बीच पत्र की इबारत कई बार बदली जा चुकी थी।

अचानक मुझे कुछ दिनों के लिए बैंक के काम से बाहर जाना पड़ा । लौटने पर सबसे पहले डाक देखने की उतावली थी। बैंक पहुँचते ही सारे पत्र देख डाले, लेकिन उसका कोई पत्र न था। धीर-धीरे कई माह बीत गए किंतु न तो ‘मैरी’ का ख्याल दिमाग से उतरा और न उसका कोई पत्र आया । जब कभी कहीं जाने के लिए ट्रेन में बैठता तो उसके साथ बीते पल याद आने लगते और दिल उदास हो जाता । ऐसा कब तक चलेगा सोचकर, मैनें खुद को समझाना शुरु किया कि यह क्या पागलपन है । उतना पढ़-लिख जाने के बावजूद भी इस बीसवीं सदी में रेल यात्रा के चंद घंटों के साथ को दिल से लगाकर मजनूं बना बैठा हूँ । ऐसे तो रोज न जाने कितने लोग मिलते और बिछुड़ते होंगे, यह तो सफ़र है । ‘सफर की दोस्ती-सफर तक’ वाला जुमला जो मेरा एक साथी अक्सर कहा करता था, दोहराया-और मन को जोरों से झिड़क दिया ।

धीरे-धीरे वक्त के साथ-साथ उसकी याद भी धूमिल होने लगी । नौकरी की बढ़ती व्यस्तताओं में कब साल व्यतीत हो गया पता ही न चला कि एक दिन अचानक डाक खोलते समय एक इनलैंड में जानी-पहचानी हस्तलिपि देखकर दिल जरा जोर से धड़कने लगा । लिखा था-

श्रीमान् जी,

आपका पत्र बहुत दिनों बाद रिडायरेक्ट होकर मुझे मिला क्योंकि मैं जबलपुर की नौकरी छोड़कर अगस्त में आगरा आ गई थी । यहाँ यूनिवर्सिटी में लेक्चररशिप मिल गई है । देर के लिए गुस्सा मत करना । जब भी सफर करती हूँ तुम्हारी याद आती है और आज तो बहुत ही आ रही है, क्योंकि आज हमारी मुलाकात की सालगिरह है ना ।
बस अभी इतना ही,

आगरा आओ तो मिलना, देखने लायक कई जगहें हैं, और हाँ, पापा से मिले या नहीं ?

31 दिसम्बर,
-‘मैरी’

जाने क्यों इस बार पत्र का उत्तर शीघ्र देने की इच्छा नहीं हुई ।

मेरा स्थानान्तरण दूसरे शहर में हो चुका था । नई जगह व कार्य की अधिकता में उलझ गया । ‘मैरी’ का ध्यान बीच-बीच में आता अवश्य किन्तु मैं पत्र लिखना टालता रहा, जिसका एक कारण यह भी था कि उसके पत्र में मुझे आत्मीयता तो मिली, किन्तु वह ऊष्मा नहीं, जिसमें मैं झुलस रहा था ।


X X X

अचानक एक दिन घर से बुलावा आने पर मैं छुट्टी लेकर घर चला गया । वहाँ पता चला कि मेरे विरुद्ध षडयंत्र रचा जा रहा है- विवाह की बात जोरों पर है, पर मैं अभी विवाह करना नहीं चाहता था । इसलिए नहीं कि मैरी की ओर झुकाव होने लगा था बल्कि इसलिए कि मैं स्वयं इतने शीघ्र इस बंधन के लिए मानसिक रुप से तैयार न था । घर में और सब को तो बहला लिया किन्तु पापा के सामने एक न चली । विवाह न करने का कोई ठोस कारण न बतला सका जबकि उनके तर्क इस मुद्दे पर अकाट्य थे । और अंत में उनका यह कहना कि - “तुम्हीं भर नहीं हो घर में, मेरे और भी बच्चे हैं, मुझे उनके बारे में भी सोचना है ।” मुझे निरुत्तर कर गया ।

मेरी चुप का अर्थ स्वीकृति मानकर विवाह की तैयारी आरंभ हो गई । मैं यंत्र-चलित सा घर के कार्यों में सहयोग देता रहा । लेकिन जब लड़की देखने का प्रस्ताव आया तो छुट्टी खत्म होने का बहाना कर यह कहता हुआ भाग खड़ा हुआ कि- आप लोग जानें ।

और लड़की पसंद कर ली गई । विवाह की तारीख भी तय हो गई । पापा का पत्र पाकर घर पहुँचा तो छोटा भाई कुछ निमंत्रण पत्र लेकर मेरे पास आया और बोला, “भइया, आपने तो बड़ी देर कर दी । अब निमंत्रण पत्र आपके परिचितों व दोस्तों का कैसा पहुँचेगे । रिशतेदारों को तो हमने भेज दिए केवल आपके मित्रों के, पते न होने की वजह से रख छोड़े हैं ।”

मेरी इच्छा कुछ करने की नहीं थी, किन्तु भाई से क्या कहता ? उसका मन रखने के लिए बोला, ‘मैं तो थका हुआ हूँ । अटैची में एक एड्रेस वाली डायरी पड़ी है, उसी में से देख-देखकर तू लिख दे- मैं नहाने जा रहा हूँ ।’

विवाह बगैर किसी विशेष उल्लेखनीय चर्चा के सम्पन्न हो गया । पत्नी से पहली मुलाकात आम वैवाहिक मुलाकातों की तरह थी- रात आई और चली गई । दो दिन बाद पत्नी मायके और मैं ड्यूटी पर चला गया ।

बैंक आया तो तीन माह की ट्रेनिंग का आदेश पत्र मिला । यह मुझे वरदान सा लगा क्योंकि मैं बहुत अपसेट हो गया था- विवाह के बाद, दोस्तों के मजाक अच्छे न लगते और उनसे कुछ बोल भी नहीं पाता था। बाम्बे ट्रेनिंग करके जब शहर वापस आया तो एक साथ दो चौंकाने वाले पत्र मिले पहला- प्रमोशन का, दूसरा मैरी का । उसने लिखा था-

....शादी की बधाई, पहले तो कार्ड देखकर यकीन ही न आया कि तुम्हारी शादी है, किन्तु सच-सच ही होता है । अच्छा सरप्राईज दिया । (यहीँ लिखावट कुछ फैली सी लगी या मुझे ही भ्रम हुआ, कह नहीं सकता ।) आगे था- अपनी पत्नी का ख्याल रखना । अभी तो मैं 3 तारीख को ‘उत्कल’ से घर जा रही हूँ, जुलाई मैं लौटूँगी । पत्नी को लेकर आगरा घुमाने के लिए लाना-‘मैरी’।

पत्र पढ़कर एकदम चौंक पड़ा । सोचने लगा कि इसे किसने कार्ड भेज दिया । दिमाग पर बहुत जोर डालने पर भी यह याद न आया कि भाई को पते वाली डायरी मैंने ही दी थी । पत्र पढ़कर ऐसा लगा कि जैसे किसी ने ऊँचे पहाड़ से अचानक ढकेल दिया हो । सोचा, कैसा लगा होगा उसे उस तरह बगैर किसी पूर्व सूचना के विवाह का कार्ड पाकर । बड़ी ग्लानि हुई । गलती का एहसास तब हुआ जब कुछ नहीं हो सकता था । आज तक मैं ‘मैरी’ के पत्र ही पढ़ता रहा उसके मन को न पढ़ पाया इसका बहुत अफसोस हुआ । पत्र में 3 तारीख को ‘उत्कल’ से जाने की सूचना केवल सूचना न थी शायद वह चाहती थी कि मैं उससे ट्रेन में मिलूँ, किन्तु मैं हिम्मत न कर सका, हालाँकि यह बहुत मुश्किल न था । मै ‘बीना’ स्टेशन, जो रास्ते में ही पड़ता था, आसानी से मुलाकात कर सकता था ।

मुझे अक्सर टूर में रहना पड़ता था। पत्नी प्रायः ससुराल या मायके में रहती, क्योंकि घर वाले पुराने विचारों के कारण नहीं चाहते थे कि परदेस में वह अकेली रहे । यह मेरे लिए एक प्रकार से अच्छा ही था क्योंकि मैं स्वयं को अभी तक नार्मल नहीं कर पाया था और पत्नी मेरे लिए सुख-सुविधा न होकर एर अवरोध सी लग रही थ, मेरे एकाकी जीवन में।

X X X


जीवन की गाड़ी चल ही रही थी- किसी तरह कि एक दिन दिल्ली जाने का मौका पड़ । झिझकते मैंने ‘मैरी’ को अपने जाने की तारीख सूचित कर दी । उसकी नाराज़गी के कारण यद्यपि मुझे भरोसा ते न था कि वह मिलने आएगी फिर भी आगरा स्टेशन आने के काफी पूर्व से मन में न जाने क्यों उथल-पुथल होने लगी और आउटर के पहले से ही मैं बार-बार खिड़की के बाहर झाँकने लगा ।

ट्रेन रुकते ही मैं प्लेटफार्म में खड़ा हो गया था। थोड़ी देर में देखा कि ‘मैरी’ अपनी सहेली के साथ जल्दी-जल्दी गेट से अंदर आ रही थी। उसने मुझे देखा न था। मेरे डिब्बे को पार करके ज्यों ही आगे बढ़ने लगी, मैने आवाज़ दी। वह ठिठकी, पलटी और लपक कर एकदम करीब आ गई। तभी शायद उसे अपनी सहेली का ध्यान आया और कुछ बोलते-बोलते रुक गई। सहेली से परिचय के बाद मैंने ही उससे पूछा, ‘कैसी हो ?’

‘देख तो रहे हो।’

‘बहुत दुबली लग रही हो, मेस में खाना ठीक से नहीं मिलता या डायटिंग कर रही हो ।’ कहकर मैं जबरन मुस्कुराया। ‘अच्छा, तुम जैसै बड़े मोटे हो गए हो ? प्रश्न दाग कर वह चुप हो गई । इसके पहले कि बात कुछ आगे बढ़ती, सहेली वे समय दोनों आड़े आने के कारण चंद औपचारिक बातों ही हो पाईं और मेरी गाड़ी चल पड़ी। एक बार फिर हम एक-दूसरे से जुदा हुए। लेकिन कितना अंतर था इस जुदाई और उस जुदाई में। गाड़ी के प्लेटफार्म छोड़ते-छोड़ते जब ‘मैरी’ से मेरी आँख मिली तो उसमें मुझे अनगिनत सवाल झाँकते नज़र आए पर मेरी आँखों में उनका कोई उत्तर न पाकर उसने अपनी नजरें झुका ली । यह भी हो सकता है कि ऐसा उसने अपनी आँखों की नमी छुपाने के लिए किया हो ।

लौटते समय मैंने जान बूझकर ‘मैरी’ को इसकी सूचना न दी और सच पूछिए तो मुझे साहस ही नहीं हो रहा था उन आँखों का दुबारा सामना करने का । लेकिन जब गाड़ी आगरा पहुँचने को हुई मन मैं एकाएक आया कि हो सकता है बायचांस ‘मैरी’ स्टेशन पर दिख जाए । हालाँकि यह मेरा कोरा पागलपन था, फिर भी मै प्लेटफार्म आने पर खिड़की से इधर-उधर झाँकने लगा । मन में तरह-तरह के विचार उठ रहे थे- ‘मैरी’ को लेकर, कितनी निश्छल लड़की है। मेरे ऐसे व्यवहार के बाद भी चेहरे में जरा सी शिकन न लाई । मिलते वक्त कोई शिकवा नहीं, कोई शिकायत नहीं । और एक मैं हूँ जिसने क्षमा माँगने की औपचारिकता भी नहीं निभाई-अपनी बेवकूफी की -कमजोरी की । सोचते-सोचते एकदम बेचैन हो उठा, और इसके पूर्व की गाड़ी आगरा छोड़े मैं अपना सूटकेश उठाकर प्लेटफार्म पर उतर गया ।

उतरने को तो उतर गया । लेकिन बेक्र-जर्नी कराकर बाहर निकलते समय बड़ी दुविधा सी हुई । एक मन हुआ कि वापस चला जाऊँ फिर दूसरे ही पल ‘मैरी’ की वही आँखें निगाहों के सामने आ गई और मैं तांगा करके ‘आगरा होटल’ जा पहुँचा । नहा-धोकर एक कप चाय पीकर सोचा कि एक नींद निकाल लूँ, लेकिन उसका मासूम चेहरा बार-बार आँखों के सामने आ जाता । हारकर उठ बैठा। घड़ी देखा तो दिन के तीन बजे थे। इच्छा हुई कि ‘मैरी’ को टेलीफोन किया जाए । अतः काउन्टर से डायरेक्टरी मंगा कर कॉलेज का नंबर डायल करने लगा ।

टेलीफोन शायद किसी और ने उठाया था। थोड़ी देर बाद मैरी की आवाज आई-

“यस, मैरी इज दिस साइड ।”

‘मैरी, शायद उसे यकीन न आया होगा।

मैं, तुम्हारा ....विश्वास-अनिल विश्वास.....मेरी आवाज कुछ लड़खड़ा गई।

‘मेरा विश्वास तो कब का खो चुका।’ वाक्य इस बात का सूचक था कि वह आवाज़ पहचान चुकी है।
‘मज़ाक अच्छा कर लेती हो।’

‘मज़ाक, हाँ कर भी लेती हूँ और सह भी लेती हूँ ।’ उसकी आवाज कुछ भारी लगी।

मैं समझ गया कि उस दिन सहेली की उपस्थिति में वह जितना नार्मल बनी हुई थी, आज मौका पाकर बिफर गई है। मैं बोला, ‘मैरी जानती हो, मैं सिर्फ तुमसे मिलने के लिए अभी यहाँ उतरा हूँ लेकिन अगर तुम्हें इतनी ही बेरूखी दिखानी है तो मजबूरन मुझे जाना पड़ेगा .....’ मैं आगे बोलने के लिए कुछ शब्द ढूँढने लगा था कि वह बोली-

‘नहीं-नहीं,ऐसे कैसे चले जाओगो! इस शहर से, बगैर मुझसे मिले।’ मुझे लगा कि वह कुछ नरम हो रही है। ‘तो-फिर...’

‘मैं वहीं आ रही हूँ, मेरी दोनों परियड खत्म हो गए हैं। मैं दस मिनट में निकल रही हूँ और चार बजे तक तुम्हारे पास होऊँगी। तुम तैयार रहना, कहीं बाहर चलेंगे।’ मुझे लगा कि वह एकदम नार्मल हो गई।

4 बजे मैं स्वयं होटल के गेट पर आ गया, जाने क्यों उसके साथ होटल के कमरे में बैठने की इच्छा नहीं हुई। थोड़ी ही देर में वह आटो से आ गई तो मैं भी उसी में बैठ गया ।

‘कहाँ चलोगे ’

‘तुम्हारी मर्जीं,’ कहकर मैं सीट पर फैल- गया । उसने ड्रायवर को किसी मकबरे के पास ही बाग में एक एकांत देखकर हम बैठ गए। बहुत देर तक हममें से कोई कुछ न बोला। वातावरण बोझिल होने लगा तो मैंने चुप्पी तोड़ने की गरज से कहा, ‘आगरा में तुमने ताज जैसी जगह छोड़कर यहाँ आने की क्यों सोची ?’

“मक़बरा तो मक़बरा है-लोग बादशाहों के मक़बरे पर जाते हें उसकी सान देखने तो मैं फ़कीर के मकबरे पर आ गई, उससे सुकून माँगने।”

‘अपना-अपना विश्वास है।’

‘विश्वास नहीं आस्था।’

‘लगता है विश्वास शब्द से तुम्हें काफी नफ़रत हो गई है।’

‘रूठ गए क्या ?’ अचानक वह झुकी और एकदम से अपने हाथों के बीच मेरे चेहरे को लेकर आँखों में झाँकते हुए बोली-

‘विश्वास, नाराज मत हो। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि मेरा विश्वास छला गया । तुमसे मिलने के बाद मैं कैसे-कैसे सपने बुनने लगी थी। उस पल का इंतजार था कि कब तुम्हारी तरफ से प्रस्ताव आए और मैं निहाल हो जाऊँ। किन्तु मेरा दुर्भाग्य, तुम्हारी ओर से आया भी तो तुम्हारे विवाह में बतौर बाराती शामिल होकर बधाई देने का निमंत्रण । क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि उसके बाद का एक-एक पल मैंने किस तरह जिया है।’क्षण भर को उसकी आवाज़ रुकी, शायद शब्दों का अवरोध था फिर बोली,.... “विश्वास, तुम मेरे जीवन में आने वाले प्रथम पुरुष हो। मैं नहीं जानती थी कि प्यार क्या होता है-कैसा होता है ? ‘डेनिस राविन्स’ के उपन्यासों में पढ़ा था, लेकिन तुमसे मिलने के बाद मुझे लगा था कि शायद तुम ही वह व्यक्ति हो जिस पर मैं अपना प्यार लुटा सकती हूँ । तुमसे मिलने के बाद मैं काफी बदल गई थी। पापा को इसका कुछ-कुछ आभास हो गया था फिर भी वे कुछ न बोले थे। यहाँ तक उन्हें मेरे चुनाव पर कोई आपत्ति न थी, और इसीलिए उन्होंने तुमसे मिलना चाहा था। इसका जिक्र मैंने अपने पत्र में बार-बार तुमसे किया था लेकिन अफसोस कि तुमने मेरी बात न समझी। और तुम्हारे निमंत्रण पत्र ने ऐसा विस्फोट किया कि मेरे सपनों के घोंसले का तिनका, सँवरने के पूर्व ही बिखर गया...मेरा विश्वास पराया हो गया...” बोलते-बोलते वह इतनी भावुक हो उठी की आवाज भर्रा गई। मैं कुछ कह पाने की स्थिति में न था फिर भी उसे तसल्ली देने के लिहाज से बोला-

‘इसमें कोई शक नहीं कि मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया और इसीलिए मैं बड़ी हिम्मत करके तुम्हारे सामने अपने गुनाह स्वीकार करने आ गया हूँ ।अब तुम्हें जो सजा देना हो-दो, मैं तैयार हूँ ।’
‘सजा से क्या होगा ? क्या तुम मुझे मिल जाओगे ? हाँ तुम अवश्य अपने आपको एक बोझ से मुक्त पाओगे, है ना ।’

‘नहीं, बात यह नहीं है......’

‘तो फिर क्या बात है, अचानक उसकी आवाज़ फिर तेज हो गई - तुम तो अपनी गृहस्थी बसाकर खुश हो ना । फिर क्यों आए हो ? यह देखने कि मैं कैसे जिन्दा हूँ...मरी क्यों नहीं अब तक ।’

‘क्या बक रही हो’, मैंने उसे झिड़कना चाहा और इसके पहले कि वह आगे कुछ कहे मैंने उसका सिर अपने कंधे पर टिका लिया फिर उसे धीरे-धीरे सहलाते हुए बोला- “ये माना कि मैं तुम्हारे बर्फ से ठंडे पत्रों में छुपी चाहत की उष्मा समय रहते महसूस नहीं कर पाया किंतु यह गलत है कि मैंने तुम्हें छला । सच तो यह है कि इसके पहिले कि हममें से कोई अपने प्यार का इजहार ढंग से कर पाता या यूं कहें कि परिपक्वता की स्थिति आने के पूर्व ही मैं, अप्रत्यशित रूप से दूसरे रास्ते में मुड़ गया और तुम वहीं खड़ी रहीं । मैं मानता हूँ कि इसके लिए तुम कदापि दोषी नहीं हो-मैं ही परिस्थितियों का सामना न कर सकने वाला कायर इंसान हूँ और इसीलिए तुम्हारे समक्ष बतौर गुनहगार खड़ा हूँ। बोलो क्या दंड सोचा है, इस मुज़रिम के लिए ?” इतना कहकर मैं नाटकीय ढंग से सर उसके सामने झुकाकर इस तरह खड़ा हो गया-जैसे ऐतिहासिक फिल्म में अपराधी बादशाह के सामने । यह सोचकर थोड़ी देर झुका रहा कि शायद उसे हँसी आ जाए तथा माहौल कुछ हल्का हो, लेकिन उसके अगले वाक्य ने मानों एक विस्फोट सा कर दिया- “क्या तुम अपनी पत्नी को छोड़ सकते हो ?” सुनकर मैं सकते में आ गया ।

इसके पहले कि कुछ सम्हल पाता वह आगे बोली, “बस, घबरा गए। रोमांस तो सब कर लेते हैं, लेकिन निभाना सबको नहीं आता । प्यार, त्याग माँगता है और त्याग की बात पर सभी किनारा कर लेते हैं। मैरी की यह बात मेरे बर्दाश्त के बाहर हो गई, और अचानक मेरे मुँह से निकला- “मैरी, यहाँ तुम शायद उतनी सही नहीं हो जितनी समझ रही हो। ज़ज्बातों ने तुम्हें विवेक शून्य कर दिया है । तुम मुझे त्याग की नहीं, एक जघन्य अपराध करने को प्रेरित कर रही हो। यदि किसी स्त्री को उसका पति इसलिए छोड़ दे कि वह विवाह से पूर्व किसी ओर से प्यार करता था, लेकिन माँ-बाप व समाज के सामने अपनी प्रेमिका का हाथ पकड़ने की हिम्मत न दिखा सका था, तो क्या इसे उस पुरुष का त्याग कहा जाएगा ? यह तो उसकी नीचता कहलाएगी । अपने स्वार्थ के लिए किसी निर्दोष को दंड देना कहाँ तक उचित है ? फिर हमारे प्यार के बीच वह स्वयं तो नहीं आई । उसका क्या कसूर है ? क्या यही कि अपने माँ-बाप के कहने पर उसने मुझे वरमाला पहना दी और चुपचाप डोली में बैठकर मेरे साथ चली आई । नहीं मैरी-नहीं, गुनाह मेरा है, तो प्रायश्चित भी मैं ही करूँगा। किन्तु कैसे, बस यही अभी तक नहीं सूझ रहा ।”

‘मेरी’ सुबकने लगी। फिर थोड़ी देर बाद अपने को संयत कर बोली- ‘विश्वास, मुझे क्षमा कर दो। मैं भावनाओं में बहकर तुमसे कितनी ओछी बात कर बैठी दरअसल यह मेरा प्यार नहीं मेरी ईर्ष्या थी, जो मुझ पर हावी हो गई थी। सच, इस सब में बेचारी ‘रेखा’ का क्या दोष? उसे किस बात की सजा दी जाए ?’ मुझे लगा कि अब वह कुछ पसीज रही है। वह आगे बोली, ‘मुझ रेखा से कोई शिकायत नहीं, प्रभु ईशू तुम दोनों का गृहस्थ् जीवन अपार खुशियों से भर दे, यही कामना है। लेकिन एक वादा करो’, यह कहकर उसने मेरा हाथ अपने हाथों के बीच जकड़ लिया और एक-एक शब्द पर जोर देकर बोली- ‘आज के बाद, ईश्वर के लिए, तुम मुझसे कभी न मिलना और न ही पत्र लिखना । मैं तुम्हें या तुम्हारे पत्र को पाकर एकदम विचलित हो जाती हूँ। तुम्हारा क्या, तुम तो....’ वह आगे कुछ कहना चाहती थी-कि मैं स्वयं आवेश में आकर बोल उठा, ‘हाँ, मेरा क्या है। मैं तो चैन की बंसी बजा रहा हूँ, ना ! अरे तुमने तो अपना दर्द एकाकी झेला है। कम से कम इसमें तो तुम्हें कोई अड़चन न थी। किन्तु मेरा कष्ट तुम्हारी समझ से बाहर है। मैं तो अकेले के एहसास तक से वंचित हो गया। जब भी अकेला होता तो तुम्हारा मासूम चेहरा एक प्रश्न बनकर सामने खड़ा हो जाता और मैं एक अपराध बोध से दब जाता। और जब रेखा सामने होती तो एक सामाजिक दायित्व ठीक से न निभा पाने की ग्लानि से मन भर जाता । तुम कभी ऐसी स्थिति का अंदाज लगा सकती हो, कि मैं रेखा के साथ लेटा हुआ तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ या तुम्हारा पत्र पढ़ते समय रेखा का चेहरा आँखों के सामने से नहीं हट रहा।’ मैं रौ में और भी न जाने क्या-क्या बोलता कि मैरी ने मेरी मुँह पर हाथ रख कर बोली,

‘बस करो विश्वास, मैं तुम्हारी उलझन समझ रही हूँ । अब रेखा के साथ तो कम से कम अन्याय न करो । मेरा क्या है मैं तो किसी तरह जी ही रही हूँ, किन्तु उसका पारिवारिक जीवन बर्बाद मत करो। उसका हाथ जब समाज के सामने थामा है तो जीवन भर निभाने में हिचक कैसी ? उसका साथ देना तुम्हारा धर्म ही नहीं दायित्व भी है, इसके विमुख मत हो । हाँ, मुझे अवश्य यह वचन दो कि अब मेरे जीवन में पुनः नहीं आओगे, बस यही प्रार्थना है।’ कहकर वह फफक पड़ी।

‘वायदा तो तुम्हें भी करना होगा।’

‘मुझ....अब मुझसे तुम क्या चाहते हो ?’ मैरी चौंकी।

‘पहले वचन दो, फिर कहूँगा।’

‘ठीक है।’

“तो सुनो, तुम अपना विवाह कर लो। और जिस दिन मैं सुनुँगा कि तुमने मेरी बात मान ली, उसी क्षण से सैं तुम्हारे जीवन से उसी क्षण यूँ निकल जाऊँगा जैसे कभी आया ही न था । किन्तु जब तक तुम अकेली हो, मुझे एक मित्र समझ कर स्वस्थ मैत्री के संबंध बनाए रखने दो । हाँ, इतना अवश्य वायदा देता हूँ कि तुम्हारी भावनाओं का सदा ख्याल रखूँगा ।” मैं एक ही सांस में उसे बिना कोई अवसर दिए बोल गया ।

रात ज्यादा होने लगी थी । बाग सुनसान हो गया था लेकिन बातें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं । तभी चौकीदार के यह कहने पर कि साहब 9 बजे गेट बंद हो जाता है, हम दोनों तुरंत उठ खड़े हुए ।



X X X


‘मेरी’ से मिले एक वर्ष हो गया था । इस बीज मैं निरंतर उसे पत्र लिखता व विवाह की सलाह देता रहा। प्रत्युत्तर में उसके पत्र सदा की भांति संक्षिप्त एवं औपचारिक ही रहे । हारकर एक दिन मैंने बिना उसकी सलाह लिए एक नामी पत्रिका के ‘वैवाहिक विज्ञापन’ में उसका बायोडाटा भेज दिया और पत्र व्यवहार के लिए उसी का पता देकर उसे सूचित कर दिया ।

रेखा मायके में थी । अचानक एक दिन वहाँ से एक तार मिला । मुझे शीघ्र बुलाया था । मैं मन में कई आशंकाएँ निए रात की गाड़ी से ही ससुराल रवाना हो गया । वे लोग चिंता न करें, इसलिए टेलीफोन से आने की सूचना भी दे दी फलस्वरुप मेरे श्वसुर स्टेशन पर ही मिल गए ।

बाहर निकलते ही मैंने तार का सबब पूछा तो वे हँस दिए । मुझे ऐसा लगा जैसे वे कुछ छुपा रहे हैं । पूछने पर कि घर में सब कुशल से तो हैं उन्होंने सकारात्मक सर हिलाकर कहा, ‘हाँ-हाँ, चिन्ता न करो । बहुत दिनों से तुम्हारा समाचार न मिलने से शायद बिटिया ने तार दिया होगा ।’

खैर, घर पहुँच कर सबसे मिलना जुलना हुआ पर ऐसा लग रहा था कि हर व्यक्ति उससे नज़रें मिलाने में हिचकिचा रहा है । रेखा कहीं दिखाई न दी किन्तु संकोचवश किसी से पूछ न सका । रात में खाना खाकर कमरे में लेट गयया । थोड़ी देर बाद रेथा का चेहरा दिखाई दिया । उसे देखकर पलंग में मैंने थोड़ा खिसककर जगह बना दी किंतु वह खड़ी रही।

‘क्या बात है, बहुत नाराज़ हो क्या ?’ मैंने पूछा ।

‘जी हाँ, आपने मेरे साथ धोखा जो किया है ।’ बगैर किसी भूमिका के वह आँखें तरेर कर बोली ।

‘धोखा ।’ मैं चौंका ।

‘धोखा नहीं तो क्या ! जब आप किसी अन्य लड़की से प्यार करते थे तो मुझसे शादी करने की क्या जरुरत थी ? विवाह के बाद भी आप उससे मिलते रहे । आप मुझे अपने पास भी इसीलिए नहीं रखते की कहीं राज न खुल जाए । कहिए, क्या यह सब सच नहीं है ?’ वह काफी गुस्से में थी ।

‘यह पूरी तरह सच नहीं है मैं.......’

आप झूठ बोल रहे हैं । मैंने उस लड़की के खत देखे हैं, जो आप आलमारी में मुझसे छुपाकर रखते थे और मेरे पास बतौर प्रमाण आब उपलब्ध हैं ।

‘लेकिन....’

‘लेकिन क्या ? हर स्त्री अपने पति पर अपना एकाधिकार चाहती है, जो मुझे नहीं मिला । मैं इतनी कमजोर नहीं हूँ कि इस घुटन भरी जिंदगी को यूँ ही जीती रहूँ । हर पल यह अहसास एक काँटो की तरह चुभता रहे कि समाज के सामने पत्नी स्वीकार करने वाले इस पुरुष की मैं बस एक ब्याहता भर हूँ । में तो केवल सामाजिक मोहर लग जाने के कारण श्रीमती अनिल विश्वास बन गई हूँ, असली तो ....’

‘कुछ मेरी भी सुनोगी या ....’

‘अब सुनने को बचा ही क्या है ?’ मुझे बगैर कुछ कहने का अवसर दिए वह बोलती गई,

‘आज तो आप मेरी सुन लीजिए और बस-आज के बाद कभी न सुनना ।’

मैं कुछ बोलूँ कि उसने स्वयं बात आगे बढाई, - ‘मैने तय कर लिया है कि अब हम इस तरह दोहरी जिंदगी नहीं जिऐंगे । मैं सारे कागज तैयार करा लूँगी और आपको आजाद कर दूँगी अपने ढंग से जीने के लिए । चूंकि हम दोनों की सहमति रहेगी अत: कोई कानूनी अड़चन भी नहीं आएगी हमारे सेपरेशन में ।’

‘नहीं रेखा, यह क्या पागलपन है। लोग सुनेंगे तो......’

“और तब लोग क्या कहेंगे जब जानेंगे कि तुम्हारे दो-दो बीवियाँ हैं ! तुम्हें शायद यह ज्यादा बुरा न लगे क्योंकि तुमने तो इस स्थिति को जान-बूझकर या यूँ कहूँ कि आगे बढ़कर अपनाया है, लेकिन मेरे लिए यह डूब मरने जैसी बात है। मुझे अपने अधिकारों पर किसी का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं है। मैंने अपने माँ-बाप को सारी स्थिति बताकर राजी कर लिया है। मोहल्ले के ही स्कूल में नौकरी भी मिल रही है। कोई परेशानी नहीं होगी। और सुनो, अगर कभी कोई सुलझे विचारों वाला पुरुष मिल गया तो विवाह भी कर लूँगी। जिंदगी भर किसी के नाम को रोती नहीं रहूँगी....” कहते-कहते वह एकदम सुबकने लगी। मैंने जब उसे चुप कराने की कोशिश की तो वह फौरन बाहर चली गई, मुझे बगैर किसी सफाई का मौका दिए।

दूसरे दिन भी वह सामने न आई । मैंने प्रयास भी किया किन्तु असफल रहा । घर के अन्य सदस्यों का व्यवहार तो पहले से ही असामान्य लग रहा था अतः कुछ अपमानित सा महसूस करता हुआ शाम की गाड़ी से वापसी का प्रोग्राम बना लिया।

उसरे पापा स्टेशन तक छोड़ने आए थे। रास्ते भर तो कुछ नहीं बोले लेकिन जब ट्रेन में बैठ गया तो लगा कि उनका सब्र टूट रहा है। उनकी आँखें नम थीं जिसे अपने हाथों से पोंछते हुए, टुकड़ों-टुकड़ों में केवल इतना बोले- ‘बेटा मैंने उसे बहुत समझाया किन्तु वह बहुत जिद्दी है। सोचा था कि शायद तुम कुछ समझा सको और बात इतनी न पढ़े इसीलिए तार भी मैंने ही किया था किन्तु अफसोस....।’ वह चुप हो गए थे। मैं उनसे क्या कहता। वह मेरी बात सुनने तक को तैयार न थी फिर मानना तो बहुत दूर की बात है।’

ड्यूटी पर आकर किसी काम में मन नहीं लग रहा था । कभी ‘रेखा’ तो कभी ‘मैरी’ सामने आ जाती और ऐसा लगता कि दोनों चीख चीखकर कह रही है कि तुमने हमें धोखा दिया है। हमारा विश्वास छला है ....तुम्हें प्रायश्चित करना होगा....। ईश्वर अंधा नहीं है तुम्हें इसका फल अवश्य देगा....और मैं अपने दोनों कान बंद कर लेता। ऐसा लगता कि मस्तिष्क की शिरायें फट पड़ेंगी।

कुछ दिनों बाद, एक दिन ऑफिस में व्यस्त था कि पोस्टमैन एक रजिस्टर्ड लेटर लेकर आया । पता देखकर मैं चौंका और शीघ्रता से लिफाफा फाड़ा तो कुछ टाइप्ड पेपर्स के साथ एक छोटी सी स्लिप मिली, जिसमें लिखा था- ‘विवाह विच्छेद के कागज मैंने दस्तखत कर दिए हैं, आप भी करके भिजवा दें, ताकि दोनों निश्चिंत एवं स्वतंत्र जीवन जी सकें....रेखा।

बस और कुछ नहीं लिखा था। अतः मुझे भी क्रोध आ गया । गुस्से में मैंने बगैर एक सेकेंड लगाए पेपर्स साईन करके उसी समय उन्हें पोस्ट करा दिया। इसके बाद आफिस में जरा भी मन न लगा तो घर चला आया।

घर आकर लेटा ही था कि ऑफिस का चपरासी आया और एक तार पकड़ाकर चला गया । तार में लिखा था-‘मीट एट देहली एयरपोर्ट ऑन फिफ्थ अरली मार्निग-मैरी’

मेरी कुछ समझ में नहीं आया। सामने कैलेण्डर में चार तारीख चमक रही थी। कुछ सोचने समझने का वक्त ही न था, अगर अभी एक घंटे बाद की ट्रेन पकड़ूँगा तभी दिल्ली दो-तीन बजे रात तक पहुँच पाऊँगा, यह सोचकर फौरन तैयार हो गया।

रास्ते में नींद का तो प्रश्न था ही नहीं । न जाने क्या-क्या विचार आते-जाते रहे और दिल्ली पहुँचते-पहुँचते मेरी हालत अजीब सी हो गई । घड़ी न चार बजा दिए थे अतः सीधे टैक्सी करके एयरपोर्ट पहुँचा। एयर पोर्ट की सीढ़ियाँ चढ़ ही रहा था ‘मैरी’ सामने से आती दिखाई दी। लगा, मेरा ही इंतजार कर रही थी। पास आकर बोली, ‘अच्छा हुआ कि तुम आ गए । मैं डर ही रही थी कि कहीं न आए तो मन में एक बोझ लिए जाना पड़ेगा।’

‘जाना पड़ेगा, क्या मतवब।’ मैं चौंका।

‘हाँ मैं जा रही हूँ, मैंने तुम्हारा वायदा पूरा किया ।’ वह आगे बोली- “कल चर्च में ‘मैरी’ मिस्टर वर्गिस की हो गई । वो कनाडा में रहते हैं और आज ही मैं उनके साथ जा रही हूँ तुम्हें अपराध से सदा के लिए आज़ाद करके इस इल्तज़ा के साथ कि तुम भी अपना वचन निभाओगे।”

‘अच्छा अलविदा ! वह देखो मि. वर्गिस क्लियरेंस करा रहे हैं । मैं जान बूझकर तुम्हारा परिचय उनसे नहीं कराऊँगी क्योंकि पुरुष स्त्रियों से ज्यादा शक्की होते हैं, है ना।’ इतना कहकर वह शीघ्रता से चल दी। मैंने देखा कि काँच के उस पार से एक खूबसूरत-सा युवक इशारे से उसे बुला रहा था ।

एक महँगा प्रायश्चित



वह 31 दिसम्बर की रात थी । हालाँकि ट्रेन छूटने में देर थी फिर भी मैं प्लेटफार्म से एक पत्रिका लेकर अपनी बर्थ पर बैठ गया । सामने की बर्थ पर एक अधेड़ सज्जन लेटे हुए थे । उनके पैरों के पास एक साधारण चेहरे-मोहरे वाली लड़की बैठी हुई थी । अपनी तरफ देखता पाकर उसने मेरी पत्रिका की ओर इशारा करते हुए पूछा- ‘कौन-सी है,’ और मैंने उत्तर देने के बजाय वह पत्रिका उसकी ओर बढ़ा दी ।

कम्पार्टमेंट में अचानक लोगों की आवक-जावक बढ़ती देखकर मैं समझ गया कि ट्रेन छूटने को है तभी वे बुजुर्ग सज्जन बोने- “लगता है ट्रेन छूट रही है । कहाँ तक जाएँगे आप ?”

‘कटनी’ कह कर मैं चुप हो गया किन्तु लगा कि वे कुछ और बात करने को उत्सुक हैं, उसीलिए आगे बोला- “मैं यहीं पास के कस्बे के एक बैंक में फील्ड आफिसर हूँ । गत वर्ष ही शिक्षा पूरी की और प्रथम पोस्टिंग यहाँ हो गई । अभी दो दिन की छुट्टी लेकर अपने घर इलाहाबाद जा रहा हूँ कटनी से गाड़ी बदलूँगा ।” सुनकर वे सज्जन बोले, मैं डॉ. अन्थोनी, यहाँ बिलासपुर से थोड़ी दूर एक गाँव में प्राईवेट प्रेक्टिस करता हूँ । यह मेरी बेटी ‘मेरी’ है। इसने भी पिछले ही साल एम.एस.सी. किया है और अभी-अभी रिसर्च असिस्टेंट के पद पर नियुक्त हुई है। मैं इसे जबलपुर पहुँचाने व रहने-वहने का इंतजाम करने के लिए जा रहा हूँ। दो-चार दिन बाद वापस आ जाऊँगा।’

अभी तक मेरी बगल में बैठे हमउम्र सज्जन जो शायद चौथी बर्थ के अधिकारी थे, हमारी बातें खामोशी से सुन रहे थे, बोले, ‘मैं जबलपुर का रहने वाला हूँ, यहाँ बिजनेस के सिलसिले में आया था। यह मेरा भतीजा बंटी है इसे भी घुमाने के लिए ले आया था’ कहते हुए उन्होंने एक 8-9 वर्ष के बच्चे की ओर इशारा किया जो उम्र की बर्थ पर लेटा कोई कामिक्स पढ़ रहा था । ‘जबलपुर में मेरे लायक कोई काम हो तो बताइएगा।’ ‘जरूर’, वे बोले ।

परिचय की औपचारिकता समाप्त होते-होते ट्रेन के साथ-साथ हम लोगों की बातों ने भी गति पकड़ ली। मैं, मेरा पड़ोसी, जिसने अपना नाम बख्शी बताया था, व ‘मैरी’, हम-उम्र होने के नाते बातचीत में काफी मशगूल हो गए । बीच-बीच में ‘मैरी’ के पापा भी शामिल हो लेते थे। तभी ऊपर से ‘बंटी’ भी उतर आया और कहने लगा अंकल कोई जोक-वोक सुनाइए । बच्चा बड़ा प्यारा था और बेहद वाचाल । मेरे यह कहने पर कि पहले तुम सुनाओ वह जो शूरू हुआ तो रूकने का नाम ही नहीं लिया । उसकी प्यारी-प्यारी बातें सुनकर हम सब खूब हँसे और सभी ने कुछ न कुछ सुनाया । थोड़ी ही देर में ऐसा लगने लगा जैसे सब एक दूसरे को काफी दिनों से जानते हैं और कब रात के 11 बज गए पता ही न चला।

घड़ी देखकर ‘मैरी’ ने कहा- ‘पापा 11 बज गए हैं । खाना खाकर दवा ले लीजिए वर्ना फिर आपको नींद नहीं आएगी ।’ मैं भी उठ खड़ा हुआ और अपना बिस्तर लगाने लगा। बख्शी बंटी को सुलाने के लिए ऊपर की बर्थ में चढ़ गया। थोड़ी देर में मैरी के पापा ने हम लोगों को खाने के लिए आमंत्रित किया । हम लोगों के मना करने पर भी वे न माने और यह कह कर कि आज न्यू इयर्स नाइट है सब साथ मिलकर खाएँगे बंटी को भी नीचे उतार लिया गया । संकोचवश हमें बैठना पड़ा । खाना बहुत स्वदिष्ट था। क्रिसमस के कारण केक वगैरह कई चीजें थीं, जो हम सब ने मिलकर बड़े मजे से खाईं । ऐसा लगा कि उन्होंने दो टाईम का खाना रखा था जिसे हमने एक ही बार में सफाचट कर दिया और मेरे यही कहने पर अन्थोनी साहब हो-हो करके हँसने लगे। ‘आज खाने के लिए मना करके मैं बहुत बड़ी गलती करने जा रहा था।’ खाने के बाद मैंने कहा ।

‘क्यों ?’

‘इतने लज़ीज खाने से वंचित जो रह जाता । सुनकर बख्शी ने मेरी बात से सहमति जताई । ‘मैंरी’ थैंक्स कहकर मुस्कुरा दी । तभी कंपार्टमेंट में एक काफी वाला आया । बंटी को छोड़ हम सब ने काफी पी । खाने के बाद ठंड में गर्म-गर्म काफी ने और भी मजा ला दिया । अब तक 12 बजे चुके थे अतः सबने एक-दूसरे का नए वर्ष की बधाई दी और अपनी-अपनी बर्थ से जा लगे।

मेरी बर्थ के नीचे अन्थोनी साहब व बख्शी की वर्थ के नीचे ‘मैरी’ ने अपना विस्तर बिछा लिया था। मैरी और मैं एक दूसरे को सुविधा से देख सकते थे अतः लेटे-लेटे कॉलेज की बातें होने लगी। थोड़ी ही देर में अन्थोनी साहब के खर्राटे सुनाई पड़ने लगे। बख्शी अलबत्ता जाग रहा था किन्तु बातों में शामिल नहीं हो रहा था शायद इसीलिए कि हमारा विषय कॉलेज की पढ़ाई पर ज्यादा था और वह इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं रखता था।

चूँकि कम्पार्टमेंट के प्रायः सभी लोग सोने लगे थे और मुझे ऊपर की बर्थ से बात करने में जरा जोर से बोलना पड़ना था अतः मैं नीचे आकर अन्थोनी साहब की बर्थ में, एक तरफ बैठ गया। ‘मैरी’ भी उठी और शाल ओढ़कर अपनी बर्थ में बैठ गई । कॉलेज की पढ़ाई और नई नौकरी के खट्टे मीठे अनुभव सुनते-सुनाते सुबह होने को आई किन्तु हमें नींद न आई । एक स्टेशन पर गाड़ी रूकी । मैं प्लेटफार्म पर उतर कर यूँ ही टहलने लगा । जब गाड़ी चलने को हुई तो दो कुल्हड़ चाय ली और अन्दर आ गया । एक कुल्हड़ मैरी को पकड़ाकर हम लोग फिर बातें करने लगे ।

मैरी कान्वेंट में पढ़ी एवं क्रिश्चियन होने के नाते हिन्दी का उच्चारण एक विशेष लहजे से करती थी जो मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था। उसका हर विषय में दखल भी काफी था अतः बातें करने में मजा आ रहा था । फिर बातों-बातों में उसकी एक सहेली मेरी क्लास फैलो निकल आई, जिससे बातचीत में और अंतरगंता आ गई । सुबह के सात बजने को आए, थोड़ी ही देर मे गाड़ी कटनी पहुँच जाएगी यह सोचकर मैं मैरी से बोल- “आधे घंटे बाद यह ट्रेन छोड़कर हम सब अलग-अलग दिशाओं में जाने वाली गाड़ी में बैठेंगे ।” मैरी ने सुना और एक प्रश्नवाचक निगाह उठाई तो मेरे मुँह से निकला- “यह मेरे अभी तक के जीवन की सबसे सुखद यात्रा है।” ‘शायद मेरी भी।’ यह सुन, थोड़ा उत्साहित होकर मैंने धीरे से पूछा, ‘पत्र लिखोगी ?’ उसने नकारात्मक सर हिलाने से मेरा चेहरा शायद उतर गया था अतः वह तुरंत बोली- ‘उत्तर दूँगी।’ और हम दोनों हँसे पड़े।

घर पहुँच कर मैं वहाँ की उलझनों में फंस गया । माँ का, छोटी बहन की शादी के लिए लड़का ढूँढ़ने के लिए हर पल याद दिलाना, पिताजी का नौकरी में ऊँच-नीच की शिक्षा व यार दोस्तों को नई नौकरी की पार्टी इत्यादि के बीच कभी-कभी ‘मैरी’ याद आ जाती। कई बार सोचा कि समय निकालकर एक पत्र लिखूँ किन्तु संकोच बार-बार आड़े आता रहा।

छुट्टी समाप्त होने पर नौकरी पर जाने के लिए ज्यों ही ट्रेन में बैठा मैरी की याद जोर मारने लगी, और मैं ब्रीफकेस से पैड निकालकर ट्रेन में ही पत्र लिखने बैठ गया । जिन्दगी में कभी किसी को इस तरह पत्र नहीं लिखा था अतः समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे शुरू करूँ और क्या लिखूँ । कई पेज लिखने व फाड़ने के पश्चात अंततः कुछ यूँ लिखा-

क्या संबोधन उचित होगा तय न कर पाने के कारण इस तरह पत्र आरंभ कर रहा हूँ जैसे बगैर भूमिका के बीच से कोई कहानी सुनाना शुरू कर दे। लिखना क्या है सिवाय उसके कि रेल यात्रा बहुत याद आती है और आज फिर रेल में बैठा उन्हीं स्टेशनों से गुजर रहा हूँ किन्तु अकेला....आशा है आपकी आगे की यात्रा अच्छी कटी होगी पर मेरी न कट सकी । अब न जाने कब मिलें यह सोचकर अच्छा नहीं लगता अतः पत्र लिखने बैठ गया . सुना है पत्रों का सहारा, बहुत बड़ा सहारा होता है और फिर आपसे आश्वासन भी मिला है...आगे पत्र मिलने पर-

‘विश्वास’

पत्र स्टेशन के ही लेटर बाक्स में डाल दिया। इसके बाद बड़ा हल्कापन महसूस हुआ पर चौथे पाँचवें दिन से ही जवाब का इंतजार कष्ट देने लगा। आफिर में रोज ड़ाकबड़े उतावले मन से देखता और निराश हो जाता । लगभग माह भर बाद जब एक छोटा-सा पत्र डाक में दिखा तो मन बल्लियों उछलने लगा। इतना सब्र न था कि घर जा कर पढ़ता, आफिस में ही खोल कर पढ़ने लगा ।

‘मिस्टर विश्वास’,
हिन्दी में खत लिखा इसलिए उत्तर भी हिन्दी में दे रही हूँ लेकिन मुझे आपकी तरह पोइटिक भाषा नहीं आती। यात्रा यकीनन बहुत अच्छी रही । जबलपुर बख्शी ने हमें अपने घर इनव्हाइट भी किया। अभी तक तो हम नहीं गए । जाने क्यों पापा को वह अच्छा नहीं लगा जबकि तुम्हारी अक्सर तारीफ करते हैं। यदि बिलासपुर जाओ तो पापा से मिलने अवश्य जाना । वहाँ से 25 कि.मी. ही तो है, हमारा गाँव।

अच्छा बस !

‘मैरी’

पत्र न जाने कितनी बार खोला, पढ़ा और बंद किया । हर बार कुछ नयापन मिलता और उतावलापन तो इतना कि उसी समय जवाब लिखने बैठ गया। फिर सोचा यह ठीक नहीं है। वह क्या समझेगी कि मुझे इनके इलावा कुछ काम नहीं है ? और उसने लिखा भी तो नहीं कि पत्र लिखना। यह ध्यान आते ही एक बार फिर पत्र अच्छी तरह पढ़ा । वास्तव में उसने ऐसा कुछ नहीं लिखा था-अतः मन कुछ खिन्न हो गया । पर जी, कब तक काबू में रहता । फिर सोचा लिख अभी लेता हूँ, पोस्ट दो-चार दिन बाद करूँगा । और यह आइडिया क्लिक कर गया । उसी समय पत्र लिख डाला, लेकिन पोस्ट बाकायदा 3-4 दिन बाद ही किया। कहना न होगा कि इस बीच पत्र की इबारत कई बार बदली जा चुकी थी।

अचानक मुझे कुछ दिनों के लिए बैंक के काम से बाहर जाना पड़ा । लौटने पर सबसे पहले डाक देखने की उतावली थी। बैंक पहुँचते ही सारे पत्र देख डाले, लेकिन उसका कोई पत्र न था। धीर-धीरे कई माह बीत गए किंतु न तो ‘मैरी’ का ख्याल दिमाग से उतरा और न उसका कोई पत्र आया । जब कभी कहीं जाने के लिए ट्रेन में बैठता तो उसके साथ बीते पल याद आने लगते और दिल उदास हो जाता । ऐसा कब तक चलेगा सोचकर, मैनें खुद को समझाना शुरु किया कि यह क्या पागलपन है । उतना पढ़-लिख जाने के बावजूद भी इस बीसवीं सदी में रेल यात्रा के चंद घंटों के साथ को दिल से लगाकर मजनूं बना बैठा हूँ । ऐसे तो रोज न जाने कितने लोग मिलते और बिछुड़ते होंगे, यह तो सफ़र है । ‘सफर की दोस्ती-सफर तक’ वाला जुमला जो मेरा एक साथी अक्सर कहा करता था, दोहराया-और मन को जोरों से झिड़क दिया ।

धीरे-धीरे वक्त के साथ-साथ उसकी याद भी धूमिल होने लगी । नौकरी की बढ़ती व्यस्तताओं में कब साल व्यतीत हो गया पता ही न चला कि एक दिन अचानक डाक खोलते समय एक इनलैंड में जानी-पहचानी हस्तलिपि देखकर दिल जरा जोर से धड़कने लगा । लिखा था-

श्रीमान् जी,

आपका पत्र बहुत दिनों बाद रिडायरेक्ट होकर मुझे मिला क्योंकि मैं जबलपुर की नौकरी छोड़कर अगस्त में आगरा आ गई थी । यहाँ यूनिवर्सिटी में लेक्चररशिप मिल गई है । देर के लिए गुस्सा मत करना । जब भी सफर करती हूँ तुम्हारी याद आती है और आज तो बहुत ही आ रही है, क्योंकि आज हमारी मुलाकात की सालगिरह है ना ।
बस अभी इतना ही,

आगरा आओ तो मिलना, देखने लायक कई जगहें हैं, और हाँ, पापा से मिले या नहीं ?

31 दिसम्बर,
-‘मैरी’

जाने क्यों इस बार पत्र का उत्तर शीघ्र देने की इच्छा नहीं हुई ।

मेरा स्थानान्तरण दूसरे शहर में हो चुका था । नई जगह व कार्य की अधिकता में उलझ गया । ‘मैरी’ का ध्यान बीच-बीच में आता अवश्य किन्तु मैं पत्र लिखना टालता रहा, जिसका एक कारण यह भी था कि उसके पत्र में मुझे आत्मीयता तो मिली, किन्तु वह ऊष्मा नहीं, जिसमें मैं झुलस रहा था ।


X X X

अचानक एक दिन घर से बुलावा आने पर मैं छुट्टी लेकर घर चला गया । वहाँ पता चला कि मेरे विरुद्ध षडयंत्र रचा जा रहा है- विवाह की बात जोरों पर है, पर मैं अभी विवाह करना नहीं चाहता था । इसलिए नहीं कि मैरी की ओर झुकाव होने लगा था बल्कि इसलिए कि मैं स्वयं इतने शीघ्र इस बंधन के लिए मानसिक रुप से तैयार न था । घर में और सब को तो बहला लिया किन्तु पापा के सामने एक न चली । विवाह न करने का कोई ठोस कारण न बतला सका जबकि उनके तर्क इस मुद्दे पर अकाट्य थे । और अंत में उनका यह कहना कि - “तुम्हीं भर नहीं हो घर में, मेरे और भी बच्चे हैं, मुझे उनके बारे में भी सोचना है ।” मुझे निरुत्तर कर गया ।

मेरी चुप का अर्थ स्वीकृति मानकर विवाह की तैयारी आरंभ हो गई । मैं यंत्र-चलित सा घर के कार्यों में सहयोग देता रहा । लेकिन जब लड़की देखने का प्रस्ताव आया तो छुट्टी खत्म होने का बहाना कर यह कहता हुआ भाग खड़ा हुआ कि- आप लोग जानें ।

और लड़की पसंद कर ली गई । विवाह की तारीख भी तय हो गई । पापा का पत्र पाकर घर पहुँचा तो छोटा भाई कुछ निमंत्रण पत्र लेकर मेरे पास आया और बोला, “भइया, आपने तो बड़ी देर कर दी । अब निमंत्रण पत्र आपके परिचितों व दोस्तों का कैसा पहुँचेगे । रिशतेदारों को तो हमने भेज दिए केवल आपके मित्रों के, पते न होने की वजह से रख छोड़े हैं ।”

मेरी इच्छा कुछ करने की नहीं थी, किन्तु भाई से क्या कहता ? उसका मन रखने के लिए बोला, ‘मैं तो थका हुआ हूँ । अटैची में एक एड्रेस वाली डायरी पड़ी है, उसी में से देख-देखकर तू लिख दे- मैं नहाने जा रहा हूँ ।’

विवाह बगैर किसी विशेष उल्लेखनीय चर्चा के सम्पन्न हो गया । पत्नी से पहली मुलाकात आम वैवाहिक मुलाकातों की तरह थी- रात आई और चली गई । दो दिन बाद पत्नी मायके और मैं ड्यूटी पर चला गया ।

बैंक आया तो तीन माह की ट्रेनिंग का आदेश पत्र मिला । यह मुझे वरदान सा लगा क्योंकि मैं बहुत अपसेट हो गया था- विवाह के बाद, दोस्तों के मजाक अच्छे न लगते और उनसे कुछ बोल भी नहीं पाता था। बाम्बे ट्रेनिंग करके जब शहर वापस आया तो एक साथ दो चौंकाने वाले पत्र मिले पहला- प्रमोशन का, दूसरा मैरी का । उसने लिखा था-

....शादी की बधाई, पहले तो कार्ड देखकर यकीन ही न आया कि तुम्हारी शादी है, किन्तु सच-सच ही होता है । अच्छा सरप्राईज दिया । (यहीँ लिखावट कुछ फैली सी लगी या मुझे ही भ्रम हुआ, कह नहीं सकता ।) आगे था- अपनी पत्नी का ख्याल रखना । अभी तो मैं 3 तारीख को ‘उत्कल’ से घर जा रही हूँ, जुलाई मैं लौटूँगी । पत्नी को लेकर आगरा घुमाने के लिए लाना-‘मैरी’।

पत्र पढ़कर एकदम चौंक पड़ा । सोचने लगा कि इसे किसने कार्ड भेज दिया । दिमाग पर बहुत जोर डालने पर भी यह याद न आया कि भाई को पते वाली डायरी मैंने ही दी थी । पत्र पढ़कर ऐसा लगा कि जैसे किसी ने ऊँचे पहाड़ से अचानक ढकेल दिया हो । सोचा, कैसा लगा होगा उसे उस तरह बगैर किसी पूर्व सूचना के विवाह का कार्ड पाकर । बड़ी ग्लानि हुई । गलती का एहसास तब हुआ जब कुछ नहीं हो सकता था । आज तक मैं ‘मैरी’ के पत्र ही पढ़ता रहा उसके मन को न पढ़ पाया इसका बहुत अफसोस हुआ । पत्र में 3 तारीख को ‘उत्कल’ से जाने की सूचना केवल सूचना न थी शायद वह चाहती थी कि मैं उससे ट्रेन में मिलूँ, किन्तु मैं हिम्मत न कर सका, हालाँकि यह बहुत मुश्किल न था । मै ‘बीना’ स्टेशन, जो रास्ते में ही पड़ता था, आसानी से मुलाकात कर सकता था ।

मुझे अक्सर टूर में रहना पड़ता था। पत्नी प्रायः ससुराल या मायके में रहती, क्योंकि घर वाले पुराने विचारों के कारण नहीं चाहते थे कि परदेस में वह अकेली रहे । यह मेरे लिए एक प्रकार से अच्छा ही था क्योंकि मैं स्वयं को अभी तक नार्मल नहीं कर पाया था और पत्नी मेरे लिए सुख-सुविधा न होकर एर अवरोध सी लग रही थ, मेरे एकाकी जीवन में।

X X X


जीवन की गाड़ी चल ही रही थी- किसी तरह कि एक दिन दिल्ली जाने का मौका पड़ । झिझकते मैंने ‘मैरी’ को अपने जाने की तारीख सूचित कर दी । उसकी नाराज़गी के कारण यद्यपि मुझे भरोसा ते न था कि वह मिलने आएगी फिर भी आगरा स्टेशन आने के काफी पूर्व से मन में न जाने क्यों उथल-पुथल होने लगी और आउटर के पहले से ही मैं बार-बार खिड़की के बाहर झाँकने लगा ।

ट्रेन रुकते ही मैं प्लेटफार्म में खड़ा हो गया था। थोड़ी देर में देखा कि ‘मैरी’ अपनी सहेली के साथ जल्दी-जल्दी गेट से अंदर आ रही थी। उसने मुझे देखा न था। मेरे डिब्बे को पार करके ज्यों ही आगे बढ़ने लगी, मैने आवाज़ दी। वह ठिठकी, पलटी और लपक कर एकदम करीब आ गई। तभी शायद उसे अपनी सहेली का ध्यान आया और कुछ बोलते-बोलते रुक गई। सहेली से परिचय के बाद मैंने ही उससे पूछा, ‘कैसी हो ?’

‘देख तो रहे हो।’

‘बहुत दुबली लग रही हो, मेस में खाना ठीक से नहीं मिलता या डायटिंग कर रही हो ।’ कहकर मैं जबरन मुस्कुराया। ‘अच्छा, तुम जैसै बड़े मोटे हो गए हो ? प्रश्न दाग कर वह चुप हो गई । इसके पहले कि बात कुछ आगे बढ़ती, सहेली वे समय दोनों आड़े आने के कारण चंद औपचारिक बातों ही हो पाईं और मेरी गाड़ी चल पड़ी। एक बार फिर हम एक-दूसरे से जुदा हुए। लेकिन कितना अंतर था इस जुदाई और उस जुदाई में। गाड़ी के प्लेटफार्म छोड़ते-छोड़ते जब ‘मैरी’ से मेरी आँख मिली तो उसमें मुझे अनगिनत सवाल झाँकते नज़र आए पर मेरी आँखों में उनका कोई उत्तर न पाकर उसने अपनी नजरें झुका ली । यह भी हो सकता है कि ऐसा उसने अपनी आँखों की नमी छुपाने के लिए किया हो ।

लौटते समय मैंने जान बूझकर ‘मैरी’ को इसकी सूचना न दी और सच पूछिए तो मुझे साहस ही नहीं हो रहा था उन आँखों का दुबारा सामना करने का । लेकिन जब गाड़ी आगरा पहुँचने को हुई मन मैं एकाएक आया कि हो सकता है बायचांस ‘मैरी’ स्टेशन पर दिख जाए । हालाँकि यह मेरा कोरा पागलपन था, फिर भी मै प्लेटफार्म आने पर खिड़की से इधर-उधर झाँकने लगा । मन में तरह-तरह के विचार उठ रहे थे- ‘मैरी’ को लेकर, कितनी निश्छल लड़की है। मेरे ऐसे व्यवहार के बाद भी चेहरे में जरा सी शिकन न लाई । मिलते वक्त कोई शिकवा नहीं, कोई शिकायत नहीं । और एक मैं हूँ जिसने क्षमा माँगने की औपचारिकता भी नहीं निभाई-अपनी बेवकूफी की -कमजोरी की । सोचते-सोचते एकदम बेचैन हो उठा, और इसके पूर्व की गाड़ी आगरा छोड़े मैं अपना सूटकेश उठाकर प्लेटफार्म पर उतर गया ।

उतरने को तो उतर गया । लेकिन बेक्र-जर्नी कराकर बाहर निकलते समय बड़ी दुविधा सी हुई । एक मन हुआ कि वापस चला जाऊँ फिर दूसरे ही पल ‘मैरी’ की वही आँखें निगाहों के सामने आ गई और मैं तांगा करके ‘आगरा होटल’ जा पहुँचा । नहा-धोकर एक कप चाय पीकर सोचा कि एक नींद निकाल लूँ, लेकिन उसका मासूम चेहरा बार-बार आँखों के सामने आ जाता । हारकर उठ बैठा। घड़ी देखा तो दिन के तीन बजे थे। इच्छा हुई कि ‘मैरी’ को टेलीफोन किया जाए । अतः काउन्टर से डायरेक्टरी मंगा कर कॉलेज का नंबर डायल करने लगा ।

टेलीफोन शायद किसी और ने उठाया था। थोड़ी देर बाद मैरी की आवाज आई-

“यस, मैरी इज दिस साइड ।”

‘मैरी, शायद उसे यकीन न आया होगा।

मैं, तुम्हारा ....विश्वास-अनिल विश्वास.....मेरी आवाज कुछ लड़खड़ा गई।

‘मेरा विश्वास तो कब का खो चुका।’ वाक्य इस बात का सूचक था कि वह आवाज़ पहचान चुकी है।
‘मज़ाक अच्छा कर लेती हो।’

‘मज़ाक, हाँ कर भी लेती हूँ और सह भी लेती हूँ ।’ उसकी आवाज कुछ भारी लगी।

मैं समझ गया कि उस दिन सहेली की उपस्थिति में वह जितना नार्मल बनी हुई थी, आज मौका पाकर बिफर गई है। मैं बोला, ‘मैरी जानती हो, मैं सिर्फ तुमसे मिलने के लिए अभी यहाँ उतरा हूँ लेकिन अगर तुम्हें इतनी ही बेरूखी दिखानी है तो मजबूरन मुझे जाना पड़ेगा .....’ मैं आगे बोलने के लिए कुछ शब्द ढूँढने लगा था कि वह बोली-

‘नहीं-नहीं,ऐसे कैसे चले जाओगो! इस शहर से, बगैर मुझसे मिले।’ मुझे लगा कि वह कुछ नरम हो रही है। ‘तो-फिर...’

‘मैं वहीं आ रही हूँ, मेरी दोनों परियड खत्म हो गए हैं। मैं दस मिनट में निकल रही हूँ और चार बजे तक तुम्हारे पास होऊँगी। तुम तैयार रहना, कहीं बाहर चलेंगे।’ मुझे लगा कि वह एकदम नार्मल हो गई।

4 बजे मैं स्वयं होटल के गेट पर आ गया, जाने क्यों उसके साथ होटल के कमरे में बैठने की इच्छा नहीं हुई। थोड़ी ही देर में वह आटो से आ गई तो मैं भी उसी में बैठ गया ।

‘कहाँ चलोगे ’

‘तुम्हारी मर्जीं,’ कहकर मैं सीट पर फैल- गया । उसने ड्रायवर को किसी मकबरे के पास ही बाग में एक एकांत देखकर हम बैठ गए। बहुत देर तक हममें से कोई कुछ न बोला। वातावरण बोझिल होने लगा तो मैंने चुप्पी तोड़ने की गरज से कहा, ‘आगरा में तुमने ताज जैसी जगह छोड़कर यहाँ आने की क्यों सोची ?’

“मक़बरा तो मक़बरा है-लोग बादशाहों के मक़बरे पर जाते हें उसकी सान देखने तो मैं फ़कीर के मकबरे पर आ गई, उससे सुकून माँगने।”

‘अपना-अपना विश्वास है।’

‘विश्वास नहीं आस्था।’

‘लगता है विश्वास शब्द से तुम्हें काफी नफ़रत हो गई है।’

‘रूठ गए क्या ?’ अचानक वह झुकी और एकदम से अपने हाथों के बीच मेरे चेहरे को लेकर आँखों में झाँकते हुए बोली-

‘विश्वास, नाराज मत हो। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि मेरा विश्वास छला गया । तुमसे मिलने के बाद मैं कैसे-कैसे सपने बुनने लगी थी। उस पल का इंतजार था कि कब तुम्हारी तरफ से प्रस्ताव आए और मैं निहाल हो जाऊँ। किन्तु मेरा दुर्भाग्य, तुम्हारी ओर से आया भी तो तुम्हारे विवाह में बतौर बाराती शामिल होकर बधाई देने का निमंत्रण । क्या तुम कल्पना कर सकते हो कि उसके बाद का एक-एक पल मैंने किस तरह जिया है।’क्षण भर को उसकी आवाज़ रुकी, शायद शब्दों का अवरोध था फिर बोली,.... “विश्वास, तुम मेरे जीवन में आने वाले प्रथम पुरुष हो। मैं नहीं जानती थी कि प्यार क्या होता है-कैसा होता है ? ‘डेनिस राविन्स’ के उपन्यासों में पढ़ा था, लेकिन तुमसे मिलने के बाद मुझे लगा था कि शायद तुम ही वह व्यक्ति हो जिस पर मैं अपना प्यार लुटा सकती हूँ । तुमसे मिलने के बाद मैं काफी बदल गई थी। पापा को इसका कुछ-कुछ आभास हो गया था फिर भी वे कुछ न बोले थे। यहाँ तक उन्हें मेरे चुनाव पर कोई आपत्ति न थी, और इसीलिए उन्होंने तुमसे मिलना चाहा था। इसका जिक्र मैंने अपने पत्र में बार-बार तुमसे किया था लेकिन अफसोस कि तुमने मेरी बात न समझी। और तुम्हारे निमंत्रण पत्र ने ऐसा विस्फोट किया कि मेरे सपनों के घोंसले का तिनका, सँवरने के पूर्व ही बिखर गया...मेरा विश्वास पराया हो गया...” बोलते-बोलते वह इतनी भावुक हो उठी की आवाज भर्रा गई। मैं कुछ कह पाने की स्थिति में न था फिर भी उसे तसल्ली देने के लिहाज से बोला-

‘इसमें कोई शक नहीं कि मुझसे बहुत बड़ा अपराध हो गया और इसीलिए मैं बड़ी हिम्मत करके तुम्हारे सामने अपने गुनाह स्वीकार करने आ गया हूँ ।अब तुम्हें जो सजा देना हो-दो, मैं तैयार हूँ ।’
‘सजा से क्या होगा ? क्या तुम मुझे मिल जाओगे ? हाँ तुम अवश्य अपने आपको एक बोझ से मुक्त पाओगे, है ना ।’

‘नहीं, बात यह नहीं है......’

‘तो फिर क्या बात है, अचानक उसकी आवाज़ फिर तेज हो गई - तुम तो अपनी गृहस्थी बसाकर खुश हो ना । फिर क्यों आए हो ? यह देखने कि मैं कैसे जिन्दा हूँ...मरी क्यों नहीं अब तक ।’

‘क्या बक रही हो’, मैंने उसे झिड़कना चाहा और इसके पहले कि वह आगे कुछ कहे मैंने उसका सिर अपने कंधे पर टिका लिया फिर उसे धीरे-धीरे सहलाते हुए बोला- “ये माना कि मैं तुम्हारे बर्फ से ठंडे पत्रों में छुपी चाहत की उष्मा समय रहते महसूस नहीं कर पाया किंतु यह गलत है कि मैंने तुम्हें छला । सच तो यह है कि इसके पहिले कि हममें से कोई अपने प्यार का इजहार ढंग से कर पाता या यूं कहें कि परिपक्वता की स्थिति आने के पूर्व ही मैं, अप्रत्यशित रूप से दूसरे रास्ते में मुड़ गया और तुम वहीं खड़ी रहीं । मैं मानता हूँ कि इसके लिए तुम कदापि दोषी नहीं हो-मैं ही परिस्थितियों का सामना न कर सकने वाला कायर इंसान हूँ और इसीलिए तुम्हारे समक्ष बतौर गुनहगार खड़ा हूँ। बोलो क्या दंड सोचा है, इस मुज़रिम के लिए ?” इतना कहकर मैं नाटकीय ढंग से सर उसके सामने झुकाकर इस तरह खड़ा हो गया-जैसे ऐतिहासिक फिल्म में अपराधी बादशाह के सामने । यह सोचकर थोड़ी देर झुका रहा कि शायद उसे हँसी आ जाए तथा माहौल कुछ हल्का हो, लेकिन उसके अगले वाक्य ने मानों एक विस्फोट सा कर दिया- “क्या तुम अपनी पत्नी को छोड़ सकते हो ?” सुनकर मैं सकते में आ गया ।

इसके पहले कि कुछ सम्हल पाता वह आगे बोली, “बस, घबरा गए। रोमांस तो सब कर लेते हैं, लेकिन निभाना सबको नहीं आता । प्यार, त्याग माँगता है और त्याग की बात पर सभी किनारा कर लेते हैं। मैरी की यह बात मेरे बर्दाश्त के बाहर हो गई, और अचानक मेरे मुँह से निकला- “मैरी, यहाँ तुम शायद उतनी सही नहीं हो जितनी समझ रही हो। ज़ज्बातों ने तुम्हें विवेक शून्य कर दिया है । तुम मुझे त्याग की नहीं, एक जघन्य अपराध करने को प्रेरित कर रही हो। यदि किसी स्त्री को उसका पति इसलिए छोड़ दे कि वह विवाह से पूर्व किसी ओर से प्यार करता था, लेकिन माँ-बाप व समाज के सामने अपनी प्रेमिका का हाथ पकड़ने की हिम्मत न दिखा सका था, तो क्या इसे उस पुरुष का त्याग कहा जाएगा ? यह तो उसकी नीचता कहलाएगी । अपने स्वार्थ के लिए किसी निर्दोष को दंड देना कहाँ तक उचित है ? फिर हमारे प्यार के बीच वह स्वयं तो नहीं आई । उसका क्या कसूर है ? क्या यही कि अपने माँ-बाप के कहने पर उसने मुझे वरमाला पहना दी और चुपचाप डोली में बैठकर मेरे साथ चली आई । नहीं मैरी-नहीं, गुनाह मेरा है, तो प्रायश्चित भी मैं ही करूँगा। किन्तु कैसे, बस यही अभी तक नहीं सूझ रहा ।”

‘मेरी’ सुबकने लगी। फिर थोड़ी देर बाद अपने को संयत कर बोली- ‘विश्वास, मुझे क्षमा कर दो। मैं भावनाओं में बहकर तुमसे कितनी ओछी बात कर बैठी दरअसल यह मेरा प्यार नहीं मेरी ईर्ष्या थी, जो मुझ पर हावी हो गई थी। सच, इस सब में बेचारी ‘रेखा’ का क्या दोष? उसे किस बात की सजा दी जाए ?’ मुझे लगा कि अब वह कुछ पसीज रही है। वह आगे बोली, ‘मुझ रेखा से कोई शिकायत नहीं, प्रभु ईशू तुम दोनों का गृहस्थ् जीवन अपार खुशियों से भर दे, यही कामना है। लेकिन एक वादा करो’, यह कहकर उसने मेरा हाथ अपने हाथों के बीच जकड़ लिया और एक-एक शब्द पर जोर देकर बोली- ‘आज के बाद, ईश्वर के लिए, तुम मुझसे कभी न मिलना और न ही पत्र लिखना । मैं तुम्हें या तुम्हारे पत्र को पाकर एकदम विचलित हो जाती हूँ। तुम्हारा क्या, तुम तो....’ वह आगे कुछ कहना चाहती थी-कि मैं स्वयं आवेश में आकर बोल उठा, ‘हाँ, मेरा क्या है। मैं तो चैन की बंसी बजा रहा हूँ, ना ! अरे तुमने तो अपना दर्द एकाकी झेला है। कम से कम इसमें तो तुम्हें कोई अड़चन न थी। किन्तु मेरा कष्ट तुम्हारी समझ से बाहर है। मैं तो अकेले के एहसास तक से वंचित हो गया। जब भी अकेला होता तो तुम्हारा मासूम चेहरा एक प्रश्न बनकर सामने खड़ा हो जाता और मैं एक अपराध बोध से दब जाता। और जब रेखा सामने होती तो एक सामाजिक दायित्व ठीक से न निभा पाने की ग्लानि से मन भर जाता । तुम कभी ऐसी स्थिति का अंदाज लगा सकती हो, कि मैं रेखा के साथ लेटा हुआ तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ या तुम्हारा पत्र पढ़ते समय रेखा का चेहरा आँखों के सामने से नहीं हट रहा।’ मैं रौ में और भी न जाने क्या-क्या बोलता कि मैरी ने मेरी मुँह पर हाथ रख कर बोली,

‘बस करो विश्वास, मैं तुम्हारी उलझन समझ रही हूँ । अब रेखा के साथ तो कम से कम अन्याय न करो । मेरा क्या है मैं तो किसी तरह जी ही रही हूँ, किन्तु उसका पारिवारिक जीवन बर्बाद मत करो। उसका हाथ जब समाज के सामने थामा है तो जीवन भर निभाने में हिचक कैसी ? उसका साथ देना तुम्हारा धर्म ही नहीं दायित्व भी है, इसके विमुख मत हो । हाँ, मुझे अवश्य यह वचन दो कि अब मेरे जीवन में पुनः नहीं आओगे, बस यही प्रार्थना है।’ कहकर वह फफक पड़ी।

‘वायदा तो तुम्हें भी करना होगा।’

‘मुझ....अब मुझसे तुम क्या चाहते हो ?’ मैरी चौंकी।

‘पहले वचन दो, फिर कहूँगा।’

‘ठीक है।’

“तो सुनो, तुम अपना विवाह कर लो। और जिस दिन मैं सुनुँगा कि तुमने मेरी बात मान ली, उसी क्षण से सैं तुम्हारे जीवन से उसी क्षण यूँ निकल जाऊँगा जैसे कभी आया ही न था । किन्तु जब तक तुम अकेली हो, मुझे एक मित्र समझ कर स्वस्थ मैत्री के संबंध बनाए रखने दो । हाँ, इतना अवश्य वायदा देता हूँ कि तुम्हारी भावनाओं का सदा ख्याल रखूँगा ।” मैं एक ही सांस में उसे बिना कोई अवसर दिए बोल गया ।

रात ज्यादा होने लगी थी । बाग सुनसान हो गया था लेकिन बातें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थीं । तभी चौकीदार के यह कहने पर कि साहब 9 बजे गेट बंद हो जाता है, हम दोनों तुरंत उठ खड़े हुए ।



X X X


‘मेरी’ से मिले एक वर्ष हो गया था । इस बीज मैं निरंतर उसे पत्र लिखता व विवाह की सलाह देता रहा। प्रत्युत्तर में उसके पत्र सदा की भांति संक्षिप्त एवं औपचारिक ही रहे । हारकर एक दिन मैंने बिना उसकी सलाह लिए एक नामी पत्रिका के ‘वैवाहिक विज्ञापन’ में उसका बायोडाटा भेज दिया और पत्र व्यवहार के लिए उसी का पता देकर उसे सूचित कर दिया ।

रेखा मायके में थी । अचानक एक दिन वहाँ से एक तार मिला । मुझे शीघ्र बुलाया था । मैं मन में कई आशंकाएँ निए रात की गाड़ी से ही ससुराल रवाना हो गया । वे लोग चिंता न करें, इसलिए टेलीफोन से आने की सूचना भी दे दी फलस्वरुप मेरे श्वसुर स्टेशन पर ही मिल गए ।

बाहर निकलते ही मैंने तार का सबब पूछा तो वे हँस दिए । मुझे ऐसा लगा जैसे वे कुछ छुपा रहे हैं । पूछने पर कि घर में सब कुशल से तो हैं उन्होंने सकारात्मक सर हिलाकर कहा, ‘हाँ-हाँ, चिन्ता न करो । बहुत दिनों से तुम्हारा समाचार न मिलने से शायद बिटिया ने तार दिया होगा ।’

खैर, घर पहुँच कर सबसे मिलना जुलना हुआ पर ऐसा लग रहा था कि हर व्यक्ति उससे नज़रें मिलाने में हिचकिचा रहा है । रेखा कहीं दिखाई न दी किन्तु संकोचवश किसी से पूछ न सका । रात में खाना खाकर कमरे में लेट गयया । थोड़ी देर बाद रेथा का चेहरा दिखाई दिया । उसे देखकर पलंग में मैंने थोड़ा खिसककर जगह बना दी किंतु वह खड़ी रही।

‘क्या बात है, बहुत नाराज़ हो क्या ?’ मैंने पूछा ।

‘जी हाँ, आपने मेरे साथ धोखा जो किया है ।’ बगैर किसी भूमिका के वह आँखें तरेर कर बोली ।

‘धोखा ।’ मैं चौंका ।

‘धोखा नहीं तो क्या ! जब आप किसी अन्य लड़की से प्यार करते थे तो मुझसे शादी करने की क्या जरुरत थी ? विवाह के बाद भी आप उससे मिलते रहे । आप मुझे अपने पास भी इसीलिए नहीं रखते की कहीं राज न खुल जाए । कहिए, क्या यह सब सच नहीं है ?’ वह काफी गुस्से में थी ।

‘यह पूरी तरह सच नहीं है मैं.......’

आप झूठ बोल रहे हैं । मैंने उस लड़की के खत देखे हैं, जो आप आलमारी में मुझसे छुपाकर रखते थे और मेरे पास बतौर प्रमाण आब उपलब्ध हैं ।

‘लेकिन....’

‘लेकिन क्या ? हर स्त्री अपने पति पर अपना एकाधिकार चाहती है, जो मुझे नहीं मिला । मैं इतनी कमजोर नहीं हूँ कि इस घुटन भरी जिंदगी को यूँ ही जीती रहूँ । हर पल यह अहसास एक काँटो की तरह चुभता रहे कि समाज के सामने पत्नी स्वीकार करने वाले इस पुरुष की मैं बस एक ब्याहता भर हूँ । में तो केवल सामाजिक मोहर लग जाने के कारण श्रीमती अनिल विश्वास बन गई हूँ, असली तो ....’

‘कुछ मेरी भी सुनोगी या ....’

‘अब सुनने को बचा ही क्या है ?’ मुझे बगैर कुछ कहने का अवसर दिए वह बोलती गई,

‘आज तो आप मेरी सुन लीजिए और बस-आज के बाद कभी न सुनना ।’

मैं कुछ बोलूँ कि उसने स्वयं बात आगे बढाई, - ‘मैने तय कर लिया है कि अब हम इस तरह दोहरी जिंदगी नहीं जिऐंगे । मैं सारे कागज तैयार करा लूँगी और आपको आजाद कर दूँगी अपने ढंग से जीने के लिए । चूंकि हम दोनों की सहमति रहेगी अत: कोई कानूनी अड़चन भी नहीं आएगी हमारे सेपरेशन में ।’

‘नहीं रेखा, यह क्या पागलपन है। लोग सुनेंगे तो......’

“और तब लोग क्या कहेंगे जब जानेंगे कि तुम्हारे दो-दो बीवियाँ हैं ! तुम्हें शायद यह ज्यादा बुरा न लगे क्योंकि तुमने तो इस स्थिति को जान-बूझकर या यूँ कहूँ कि आगे बढ़कर अपनाया है, लेकिन मेरे लिए यह डूब मरने जैसी बात है। मुझे अपने अधिकारों पर किसी का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं है। मैंने अपने माँ-बाप को सारी स्थिति बताकर राजी कर लिया है। मोहल्ले के ही स्कूल में नौकरी भी मिल रही है। कोई परेशानी नहीं होगी। और सुनो, अगर कभी कोई सुलझे विचारों वाला पुरुष मिल गया तो विवाह भी कर लूँगी। जिंदगी भर किसी के नाम को रोती नहीं रहूँगी....” कहते-कहते वह एकदम सुबकने लगी। मैंने जब उसे चुप कराने की कोशिश की तो वह फौरन बाहर चली गई, मुझे बगैर किसी सफाई का मौका दिए।

दूसरे दिन भी वह सामने न आई । मैंने प्रयास भी किया किन्तु असफल रहा । घर के अन्य सदस्यों का व्यवहार तो पहले से ही असामान्य लग रहा था अतः कुछ अपमानित सा महसूस करता हुआ शाम की गाड़ी से वापसी का प्रोग्राम बना लिया।

उसरे पापा स्टेशन तक छोड़ने आए थे। रास्ते भर तो कुछ नहीं बोले लेकिन जब ट्रेन में बैठ गया तो लगा कि उनका सब्र टूट रहा है। उनकी आँखें नम थीं जिसे अपने हाथों से पोंछते हुए, टुकड़ों-टुकड़ों में केवल इतना बोले- ‘बेटा मैंने उसे बहुत समझाया किन्तु वह बहुत जिद्दी है। सोचा था कि शायद तुम कुछ समझा सको और बात इतनी न पढ़े इसीलिए तार भी मैंने ही किया था किन्तु अफसोस....।’ वह चुप हो गए थे। मैं उनसे क्या कहता। वह मेरी बात सुनने तक को तैयार न थी फिर मानना तो बहुत दूर की बात है।’

ड्यूटी पर आकर किसी काम में मन नहीं लग रहा था । कभी ‘रेखा’ तो कभी ‘मैरी’ सामने आ जाती और ऐसा लगता कि दोनों चीख चीखकर कह रही है कि तुमने हमें धोखा दिया है। हमारा विश्वास छला है ....तुम्हें प्रायश्चित करना होगा....। ईश्वर अंधा नहीं है तुम्हें इसका फल अवश्य देगा....और मैं अपने दोनों कान बंद कर लेता। ऐसा लगता कि मस्तिष्क की शिरायें फट पड़ेंगी।

कुछ दिनों बाद, एक दिन ऑफिस में व्यस्त था कि पोस्टमैन एक रजिस्टर्ड लेटर लेकर आया । पता देखकर मैं चौंका और शीघ्रता से लिफाफा फाड़ा तो कुछ टाइप्ड पेपर्स के साथ एक छोटी सी स्लिप मिली, जिसमें लिखा था- ‘विवाह विच्छेद के कागज मैंने दस्तखत कर दिए हैं, आप भी करके भिजवा दें, ताकि दोनों निश्चिंत एवं स्वतंत्र जीवन जी सकें....रेखा।

बस और कुछ नहीं लिखा था। अतः मुझे भी क्रोध आ गया । गुस्से में मैंने बगैर एक सेकेंड लगाए पेपर्स साईन करके उसी समय उन्हें पोस्ट करा दिया। इसके बाद आफिस में जरा भी मन न लगा तो घर चला आया।

घर आकर लेटा ही था कि ऑफिस का चपरासी आया और एक तार पकड़ाकर चला गया । तार में लिखा था-‘मीट एट देहली एयरपोर्ट ऑन फिफ्थ अरली मार्निग-मैरी’

मेरी कुछ समझ में नहीं आया। सामने कैलेण्डर में चार तारीख चमक रही थी। कुछ सोचने समझने का वक्त ही न था, अगर अभी एक घंटे बाद की ट्रेन पकड़ूँगा तभी दिल्ली दो-तीन बजे रात तक पहुँच पाऊँगा, यह सोचकर फौरन तैयार हो गया।

रास्ते में नींद का तो प्रश्न था ही नहीं । न जाने क्या-क्या विचार आते-जाते रहे और दिल्ली पहुँचते-पहुँचते मेरी हालत अजीब सी हो गई । घड़ी न चार बजा दिए थे अतः सीधे टैक्सी करके एयरपोर्ट पहुँचा। एयर पोर्ट की सीढ़ियाँ चढ़ ही रहा था ‘मैरी’ सामने से आती दिखाई दी। लगा, मेरा ही इंतजार कर रही थी। पास आकर बोली, ‘अच्छा हुआ कि तुम आ गए । मैं डर ही रही थी कि कहीं न आए तो मन में एक बोझ लिए जाना पड़ेगा।’

‘जाना पड़ेगा, क्या मतवब।’ मैं चौंका।

‘हाँ मैं जा रही हूँ, मैंने तुम्हारा वायदा पूरा किया ।’ वह आगे बोली- “कल चर्च में ‘मैरी’ मिस्टर वर्गिस की हो गई । वो कनाडा में रहते हैं और आज ही मैं उनके साथ जा रही हूँ तुम्हें अपराध से सदा के लिए आज़ाद करके इस इल्तज़ा के साथ कि तुम भी अपना वचन निभाओगे।”

‘अच्छा अलविदा ! वह देखो मि. वर्गिस क्लियरेंस करा रहे हैं । मैं जान बूझकर तुम्हारा परिचय उनसे नहीं कराऊँगी क्योंकि पुरुष स्त्रियों से ज्यादा शक्की होते हैं, है ना।’ इतना कहकर वह शीघ्रता से चल दी। मैंने देखा कि काँच के उस पार से एक खूबसूरत-सा युवक इशारे से उसे बुला रहा था ।

विक्रमादित्य, आई.ए.एस.


आधी रात का वक्त था। वीरान सड़क पर एक रिक्शा अकेला घिसटता हुआ जिला अस्पताल की ओर चला जा रहा था। रिक्शे में एक अधेड़ औरत बच्चे को सीने से लगाये बैठी थी। उसके चेहरे की अधीरता से लग रहा था कि बच्चा काफी बीमार है, जिसे वह बीच-बीच में टटोल लेती थी औरत के पहनावे से उसकी दयनीय स्थिति साफ झलक रही थी। रिक्शा मेन गेट के सामने रूक गया । रूकते ही वह लपक कर गेट के अंदर जाने को हुई, लेकिन अस्पताल के चौकीदार ने उसे रोक लिया ।

औरत - (गिड़गिड़ाते हुए) भइया मेरा बच्चा बीमार है, मुझे अंदर जाने दो ।

चौकीदार - अस्पताल बन्द हो चुका है, कल आना ।

औरत - (सिसकते हुए) मेरा एक ही बच्चा है और कल से दूध नहीं पिया। तेरे बच्चा जियें, ज़रा डाक्टर को दिखा लेने दे।

चौकीदार - अरे, सारे डॉक्टर चले गए। इमरजेंसी में एक है जो सो रहा होगा । उसे छेड़ना ठीक नहीं है। माई, तू तो सुबह आना ।

औरत - बेटा, तेरे हाथ जोड़ती हूँ, मुझे अंदर जाने दे। इसकी हालत बहुत खराब है। (बच्चा हिचकी लेता है।)

चौकीदार - (झुँझला कर नहीं मानती, तो जा।

औरत लगभग दौड़ती हुई अंदर घुसती हैऔर सामने बने ड्यूटी-रूम, जहाँ से मध्यम प्रकाश आ रहा था, के पास रूक जाती है। थोड़ा हिम्मत जुटाती है, फिर बड़ी ही नरमी से आवाज़ देते हुए दरवाजा धीरे से खटखटाती है । थोड़ी देर में अंदर से अलसाई सी आवाज आती है।

आवाज -कौन है, आधी रात को ?

औरत -साहब, मेरा बच्चा बहुत बीमार है थोड़ा देख लेते......(बात पूरी होने न पाई थी कि- वही आवाज़- ‘कल आना, अभी अस्पताल बंद हो चुका है’, आती है।)

औरत -हुजूर, रहम करें । शायद यह कल का इतजार नहीं कर पायेगा। (सुनकर एक डॉक्टरनुमा व्यक्त बाहर निकलता है।)

वही व्यक्ति-(गुस्से से) तो मैं क्या करूँ। कोई ठेका ले रखा है आधी रात को हर किसी को देखने का।
औरत - जरा सा हाथ लगा दीजिए साहब । शायद आपके हाथों का ही यश लिखा हो।

डॉक्टर -(उत्तेजित होकर), कह दिया ना, सुबह आना । 8 बजे ‘आउट- डोर’ खुलता है। (दरवाजा बंद हो जाता है।)

थोड़ी देर तक बंद दरवाजे की ओर निहारने के बाद औरत हताश सी भारी कदमों से बाहरी दरवाजे की ओर बढ़ने लगती है। कमरे से डॉ. साहब व एक नारी के खिलखिलाने की आवाज सुनाई देती है।
(धीरे-धीरे रोशनी बढ़ती है और कमरा साफ दिखने लगता है।) नारी स्वर-कौन था?

डॉक्टर -था नहीं, थी । पता नहीं कहाँ-कहाँ से चले आते हैं अपने बाप का घर समझ कर । हूँह । लड़का बीमार है। अभी पूछो पैसे हैं गाँठ में, तो मुँह बन जाएगा। आँसू टपकाने लगेंगे । सरकारी अस्पताल है ना ! तनख्वाह क्या मिलती है इनके 24 घंटे के गुलाम हो गए। प्राइवेट क्लीनिक में जाएँ तो पता चले।

नारी -छोड़ो भी, क्या छोटी-छोटी बातों में ध्यान देते हो । ऐसे कितने ही दिन भर आते और चले जाते हैं। डॉक्टर होकर भावुक होते हो,छिः । मैं तुम्हारे लिए काफी बनाती हूँ । (इतने में बाहर किसी कार के रूकने की आवाज सुनाई पड़ती है।)

डॉक्टर -लो, अब कोई कुबेर पुत्र आ टपका। अभी कहेगा-चाहे जितना रुपए ले लीजिए, मेरे बच्चे या बीबी को बचा लीजिए। जैसे में डॉक्टर न हुआ....और यह चपरासी का बच्चा भी फटाक से गेट खोल देता है। तुम लाईट गुल कर दो मैं थोड़ा आराम कर लूँ।

(लाईट बंट हो जाती है । फर्श पर भारी कदमों की आवाज सुनाई देती है। एक सुदर्शन व्यक्ति धवल कुर्ते पैजामें में सुधड़ महिला के साथ आता दिखाई देता है। इस महिला की गोद में एक बच्चा है जिसे वह रह-रह कर संभाल रही है। नवयुवक चलता हुआ ड्यूटी रूम के पास रूकता है।)

नवयुवक - (दरवाजे पर थपकी देकर) डॉक्टर साहब। (कुछ रुककर जरा जोर से) डॉक्टर साहब ।

( कोई आवाज नहीं आती)

नवयुवक - (चखकर) क्या अस्पताल है ? ड्यूटी पर कोई भी नहीं... किसकी ड्यूटी है यहाँ ? टेलीफोन कहाँ है ?

(आवाज सुनकर वही डॉक्टर भड़ाक से दरवाजा खोलता है और उस नवयुवक की ओर घूर कर देखता है।)

डॉक्टर - क्या बात है ? इतना क्यों चीख रहे हो ?

नवयुवक - मैं इतनी देर से आवाज लगा रहा हूँ कोई जवाब क्यों नहीं देता। आप यहाँ ड्यूटी करने आए हैं या सोने के लिए ?

डॉक्टर - इस तरह चीखने की जरूरत नहीं है यह सरकारी अस्पताल है, कोई तुम्हारा घर नहीं। रूआब तो ऐसे दिखा रहे हो जैसे कलेक्टर हो । (इतना कह कर वह अंदर की ओर मुड़ने लगता है तभी उसे आवाज़ सुनाई पड़ती है)

नवयुवक - जी हाँ। मैं इस शहर का कलेक्टर विक्रमादित्य हूँ । शायद आप मुझे नहीं पहचानते ।

डॉक्टर - (हड़बड़ाकर ) जी ...जी...

नवयुवक जी। लाइये जरा अपना ड्यूटी रजिस्टर । मैं अपने आने का सबब तो लिख दूँ ।

डॉक्टर - सर ! सर ! मैं ड्यूटी....

नवयुवक - शट-अप । यही आपकी ड्यूटी है। मरीजों के साथ ट्रीटमेंट है ! यही सौगंध खाई थी आपने डिग्री लेते समय !!

डॉक्टर - (निगाहें नीचे झुकाते हुए) मुझे क्षमा करें सर ।

नवयुवक - लाईये रजिस्टर मुझे दीजिए और आप इस बच्चे को देखिये । जल्दी कीजिये ।

डॉक्टर बच्चे को देखता है, हड़बड़ाहट में इंजेक्शन निकालता है तो एक शीशी गिरकर टूट जाती है। अंदर वाली महिला, जो नर्स थी, तब तक ड्रेस में आ जाती है। डॉक्टर एक इंजेक्शन लगाता है। बच्चा रोता है जिसे डॉक्टर बहलाने का प्रयास करता है। अब तक नवयुवक रजिस्टर में अपना नोट लगा कर बाहर की ओर चल पड़ता है। गेट पर वही पहले वाली औरत सर झुकाये बैठी है। नवयुवक की पत्नी वह बच्चा उस औरत को देते हुए कहती है-

‘लो माँ, अब यह बच्चा बिल्कुल ठीक है। कल फिर यहाँ आकर दिखा लेना ।’ ये रही इसकी पर्ची ।
औरत जाने क्या बुदबुदाती है। आवाज़ साफ नहीं आती किंतु आँखों से लगातार बहते आँसू सब अनकहा कह रहे थे। नवयुवक कार की ओर बढ़ते हुए पत्नी से कहता है –

“लगता है प्रातःकालीन भ्रमण से रात्रि विचरण ज्यादा आवश्यक है।” पत्नी मुस्कुराकर कहती है- ‘क्यों क्या सचमुच विक्रमादित्य बनने का इरादा है !’ तभी डॉक्टर बदहवास सा रजिस्टर लिए दौड़ता आता दिखाई पड़ता है किन्तु कार, कोहरे में गुम हो जाती है।

डॉक्टर बच्चे को महिला की गोद में दूध पीता देखकर भौंचक रह जाता है।

निष्कर्ष

(लघु-पटकथा)

इस पटकथा इस पटकथा की संक्षेपिका दूरदर्शन एवं फिल्मों के चर्चित कलाकार श्री राजीव वर्मा ने पहुत पसंद की तथा भोपाल दूरदर्शन से प्रदर्शित कराने की इच्छा व्यक्त की । वित्तीय संसाधनों का अभाव दर्शाते हुए उस वर्ष इस रचना का उपयोग न कर सकने का दुःख दूरदर्शन प्रभारी श्री डी. के. गंजू ने किया था। तत्पश्चात् प्रदेश बंटने से फाईल ठंडे बस्ते में चली गई।


-लेखक
के.पी. सक्सेना ‘दूसरे’




निष्कर्ष
(सीन नं. 1)


(कैमरा एक कॉलेज का बाहरी दृश्य दिखाते हुए अन्दर प्रवेश करता है और कॉलेज के रंगमच पर जाकर स्थिर हो जाता है। स्टेज पर बैनर लगा है “वार्षिक स्नेह सम्मेलन”। नेपथ्य से एक आवाज उभरती है।)

आवाज-विगत तीन दिनों से चल रहे हमारे महाविद्यालय के वार्षिक स्नेह सम्मेलन का आज अंतिम दिन है। आज हम उन कलाकारों व प्रतियोगिताओं की कुछ झलकियाँ प्रस्तुत कर रहे हैं जिन्होंने प्रथम पुरस्कार जीता है। सबसे पहले आपके सामने हैं कु. रश्मि ।


स्टेज पर प्रकाश फैल जाता है

(रश्मि का नृत्य)


आवाज-और अब आते हैं कॉलेज के होनहार गज़ल गायक मिर्ज़ा असलम बेग । (एक ग़ज़ल के कुछ अंश सुनाए जाते हैं)


आवाज़ –अब बारी है कुमारी रोली, वाद-विवाद प्रतियोगिता में (तालियाँ बजती हैं)

रोली का प्रवेश-


आदि क़ाल से नारी पुरुष की सहचरी रही है। उसने समय-समय पर अपनी जान की बाजी लगाकर अपने परिवार, समाज वे देश की रक्षा की है। त्रेता युग में रानी कैकेयी ने युद्ध क्षेत्र में राजा दशरथ की मदद की। सीता ने राम के साथ बनवास काटा । सतयुग में तारामती ने हरिश्चन्द्र व दमयंती ने राजा नल का विपत्तियों में साथ दिया ।


रजिया सुल्तान, अहिल्या बाई और झांसी की रानी जैसी कई नारियों ने अपने जीवन का उत्सर्ग देश के लिए किया । अगर इन नारियों ने घर से बाहर कदम न निकाला होता तो शायद देश का इतिहास कुछ और ही होता ।


आधुनिक युग में नारी का योगदान किस क्षेत्र में कम है ? वह पुरुष से किसमें पीछे है ? मस्तिष्क, शिक्षा, खेलकूद या बहादुरी ! हमारे देश की सर्वोच्च कुर्सी में बैठकर एक नारी ने ही शासन चलाया है जिसकी योग्यता का लोहा सारा विश्व मानता है। पुलिस, सेना एवं अंतरिक्ष में भारतीय नारी ने अपना सफल दावा बनाया है।


क्या उसने यह साबित नहीं कर दिया कि किसी कार्य का संचालन पुरुष या स्त्री लिंग से नहीं, उसकी योग्यता से होता है। जिसमें योग्यता है वही सफल होगा चाहे वह पुरुष हो या स्त्री। (तालियाँ)
अब प्रश्न यह है कि फिर क्यों समाज नारी के आगे बढ़ने को घातक मानता है। केवल इसलिए कि हम अभी तक दकियानूसी हैं । ऊपर से चाहे जितना आधुनिक होने का दम भरें और समानता की बातें करें, अंदर से यह कभी नहीं चाहते कि औरत पुरुष की बराबरी करे, आगे बढ़ना तो दूर की बात है। पुरुष भयभीत है कि उसके गृहस्वामी बने रहने का अधिकार और औरत को पैर की जूती बनाकर रखने के दम्भ में कुठराघात हो जाएगा । इसीलिए यह पुरुष प्रधान या देश के लिए नहीं वरन् उन पुरुषों के लिए है जो नारी को दासी बनाकर, उन पर मनमाना अत्याचार कर अपना अहं बरकरार रखना चाहते हैं ताकि नारी कभी भी अपने ऊपर किए गए अत्याचारों के विरूद्ध आवाज बुलंद न कर सके। (तालियाँ)
अब चन्दन खत्री इस विषय के विपक्ष में अपने विचार रखेगें

चन्दन- आइए,सबसे पहले इस बात पर गौर करें कि आखिर यह प्रश्न उठा ही क्यों, कि “क्या नारी के बढ़ते कदम समाज के लिए घातक हैं।” मित्रो, क्या इससे इस बात का आभास नहीं होता कि समाज ने कहीं न कहीं गलत रास्ते पर नारी के बढ़ते हुए कदमों को देखा है ! तभी तो यह आज विवाद का विषय बना है। आज यह प्रश्न सिर्फ इस सदन में ही नहीं, सारे विश्व में उठ रहा है –आखिर क्यों ?


दोस्तो, अगर कैकेयी राजा दशरथ के रथ के पहिये की धुरी बनी, सीता ने राम के लिए महलों का वैभव छोड़ा, झाँसी की रानी पीठ पर पुत्र को बाँध कर फिरंगियों से लड़ी तो उनका उद्देश्य महान था अपने स्वामी की मुसीबत के समय मदद, समाज के लिए एक आदर्श और अपने देश की रक्षा ।


मगर क्या आज भी नारी उन्हीं आदर्शों को लेकर ही घर के बाहर कदम रखना चाहती है ! नहीं। कोशिश करते हैं। अब ये तो किसी से छुपा नहीं है कि लडकियों के लिए कुछ रियायत भी रहती है और ये लड़कियाँ, जो अपनी शिक्षा पूरी कर विवाह होने तक कामर्सियल ब्रेक की तरह नौकरी करती हैं, उस जरूरत-मंद बेरोजगार युवक के लिए कितनी महंगी पड़ती हैं जिसे यदि वह नौकरी मिल जाती तो शायद उसका पूरा परिवार संवर जाता । नतीजा आप अक्सर अखबारों में देखते होगें-कितने युवक नौकरी न पा सकने और परिवार को न पाल सकने या परिवार पर बोझ बने रहने के कारण आत्महत्या कर लेते हैं।


आइए अब शादी शुदा नौकरी-पेशा महिलाओं की बात करें। मैं उन महिलाओं से ही पूछता हूँ कि वे अपनी आय का कितना प्रतिशत अपने परिवार के वास्तविक उन्नति में लगाती हैं ?


अगर वह नौकरी न करती तो अपना समय अपने पति बच्चे व घर सँवारने में लगा सकती थी जो उसका असली धर्म है और उसकी जगह किसी जरूरत मंद को नौकरी मिलती । इस तरह यदि एक महिला घर के बाहर कदम न पढ़ाती तो वह दो परिवारों को सँवारने में सहायक हो सकती थी । (तालियाँ।)


मैं महिलाओं से क्षमा चाहते हुए एक और प्रश्न करना चाहता हूँ - क्या महिलायें इसलिए भी घर बाहर नहीं आ रहीं कि व पुरुषों को इस वात का आभास करा देना चाहती है कि जब वो बाहर का कार्य कर सकती हैं तो पुरुष क्यों नहीं उनकी तरह घर का काम कर सकते ? आप कितने ही ऐसे परिवारों को जानते होंगे जहाँ गृह-कलह का मुद्दा अक्सर यही रहता है। कितने घर रोज बिखर रहे हैं!क्या पहले जब नारी घर में रहती थी इतने परिवार टूटते थे ? और क्या वे परिवार आज से ज्यादा सुखी नहीं थे ? क्या नारी घर में रह कर गृहस्थी की आय नहीं बढ़ा सकती ?


मेर राय में नारी को जैसा कहा और माना गया है कि वह गृह लक्ष्मी है घर की शोभा है, तो उसे वही बन कर रहना चाहिए । जो काम पुरुष के हैं उसे करना चाहिए और नारी को नारोचेत, वर्ना पुरुष व नारी में ईश्वर या प्रकृति ने फर्क किया होता । अतः मेरी राय में नारी को इस अप्राकृतिक असंतुलन से बचना चाहिए ।



सीन-2


(कैमरा घमते हुए उसी कॉलेज के हास्टल के एक कमरे में प्रवेश करता है। चन्दन लैंप लगाए पढ़ रहा है। उसका साथी जैकी अपने बिस्तर पर लेटा किसी फिल्मी पत्रिका के पन्ने पलट रहा है तभी तीसरे साथी मिर्जा का गुनगुनाते हुए प्रवेश-?


“गर तेरा इंतजार ना होता, तेरी गलियों में क्यों गए होते । सिर्फ ऐतबार पर रहे जीते वर्ना हम कब के मर गए होते.....)


मिर्जा -अरे, तू अभी तक पढ़ रहा है।


जैकी -जी, हाँ ! कल जनाब का लास्ट पेपर है ना। सोचते होगें मेरिट में आए तो कालेज में नौकरी पा लेंगे।


मिर्ज़ा -क्यों, क्या इन्हें याद नहीं कि व्ही.सी. का लड़का भी इनके साथ है। उसके होते हुए ये टाप करेंगे,हु; हः !


चन्दन -टाप मैं करूँगा या वी.सी. का लड़का । पर यह तय है कि तुम दोनों में से कोई भी नहीं कर रहे हो।
मिर्ज़ा -नाराज हो गया, मुन्ना । बेटे तू हमारी फिकर छोड़। मैं तो इसलिए नहीं पढ़ता कि मुझे इतनी जल्दी कालेज छोड़कर करना भी क्या है ? गाँव जाकर अब्बा हुजूर की जागीर ही तो सम्हालना है । तो चले जाएँगे जब जी भर जाएगा कालेज से । वैसे भी गाँव की लाईफ में शहर का मजा कहाँ । इसीलिए तो ‘एव्हरी इयर क्लियर इन थ्री इयर्स’ का फार्मूला बना रखा है अपने ने ।


जैकी -और अपना क्या ? सिर्फ डिग्री ही तो लेना है। किस साले को रैंक लाकर काम्पटीशन में बैठना है। फिल्म कम्पनी में मैनेजर बनने के लिए डिग्री ही तो दिखानी है, सो अपनी पूरी तैयारी है।


मिर्ज़ा -वो कैसे मियाँ ?


जैकी -मियाँ भोपाली, परीक्षा पास करने के लिए केवल तीन बातें जरूरी हैं-अकल, नकल और दखल ।


मिर्ज़ा -जरा खुलासा कर यार ।


जैकी एक शर्त पर ! कल रात की पार्टी आप के नाम । अरे कल आखिरी पेपर है ना। हाँ कर दे जानी, जश्न मनाएँगे।


मिर्ज़ा तो सुनो, । नं.1 है अकल । आज कल इतनी मोटी-मोटी टेक्स्ट बुक पढ़ने का ज़माना नहीं रहा। यह युग है शार्टकट का। और देखिये ये रही परीक्षा की कुँजी । साल्वड पेपर्स । इसमें पूरी बुक के सेलेक्टेड 20 प्रश्नोत्तर में दिए गए हैं जिन्हें आप दो-चार बार पढ़िए और परीक्षा कापी में अगल दीजिए।


मिर्ज़ा -हूँ।


जैकी -अब लीजिए नुस्खा नं.-2, नकल । जब आप को परीक्षा हाल में कुछ, भूलने लगे तो इसका सहारा लीजिए । झट निकालिए और पट शुरु हो जाइए ।


मिर्ज़ा -और पकड़े गए तो तीन साल के लिए चले जाइए ।


जैकी -तुम नही समझोगे । नुस्खा नं.3 कब काम आएगा ? ‘दखल’ इस्तेमाल कीजिये, कालेजों में दखल, युनियन में दखल, यूनिवर्सिटी में दखल रखिए और केस दवा दीजिए, टन टड़ंग।


मिर्ज़ा -अबे सबके चाचा थोड़ी न चेयरमैन हैं, तेरे चाचा की तरह ।


चन्दन -तो फिर पढ़िए, मेरी तरह ।


जैकी -वर्ना सो जाइए मेरी तरह । जैकी लाइट बंद कर देता है। सब लेटते ही मैं कि अचानक छोड़ी ही देर में वह फिर लाइट जला देता है और बिस्तर पर बैठ जाता है।)


मिर्ज़ा -अब क्या हो गया मियाँ।


जैकी -मैं सोच रहा हूँ, शिक्षा मंत्री को एक पत्र लिखने की ।


चन्दर - क्या ! (उठ कर बैठ जाता है।)


जैकी हाँ !(सीरियस होकर) जिस तरह सरकार ने रेल में थर्ड क्लास खत्म कर दिया उसी प्रकार शिक्षा विभाग भी थर्ड डिवीजन खत्म कर दे तो मैं आटोमेटिक सेकेंट डिवीजन पास घोषित हो जाऊँगा। क्योंकि पासिंग मार्क तो ले ही आऊँगा ।


(दोनों उस पर पिल पड़ते हैं और वह रजाई में घुस कर जान बचाता है।)



सीन-3


(हाल में परीक्षा चल रही है। जैकी नकल कर रहा है। थोड़ी देर बात एक लेक्चरर पकड़ लेता है।)


जैकी -सर, सिर्फ एक प्रश्न हल कर लेने दीजिए अपने पासिंग मार्क आ जाएँगे, फिर ले जीजिएगा । (लड़के हँसते हैं)


लेक्चरर -चुप रहिये । एक तो नकल करते हैं, ऊपर से बेशर्मी से बहस भी।


जैकी -श्रीमान मैं बहस कहाँ, सही बात कह रहा हूँ । दो प्रश्न तो कर चुका हूँ, एक और कर लेने ..........
लेक्चरर -आप दूसरों को भी डिस्टर्ब कर रहे हैं।


जैकी -मैं ! क्यों भई, मेरे नकल करने से आप लोग डिस्टर्ब हो रहे हैं ?


लड़के -नहीं, बिल्कुल नहीं । (एक सुर में बोलते हैं)


जैकी -मेरी नकल से आप लोगों की कोई आपत्ति,.....


लड़के -बिल्कुल नहीं ।


जैकी -अब देखिए, जब इन्हें आपत्ति नहीं है, तो फिर....


लेक्टरर -यह अनुचित है मैं यह नहीं होने दूँगा ।


जैकी -मान जाइए, श्रीमान । किताबें में भी एलाऊ हैं और विदेशों की नकल हमारा जन्म अधिकार है। (लड़के हँसते हैं।)


एक लड़का-अच्छा आप चुप रहें। मैं अपके साथ सिर्फ यह रियायत कर रहा हूँ कि केस न बनाऊँ । जाइए बैठकर चुपचाप लिखिए । (चेयरमेन के नाम से वह थोड़ा घबरा जाता है।)


जैकी -जब किताब आपके पास हैं, तो मैं क्या ख़ाक लिखूँगा। (क्लास से बाहर निकलता हैतो मिर्जा से मुलाकात होती है ।)


मिर्ज़ा -अब क्या, नुस्खा नं. 3 ‘दखल,’ टंग-टडंग । पर तू यहाँ क्या कर रहा है?


मिर्ज़ा -मैं तो बस यारों का हाल-चाल लेने चला आया ।



सीन नं. -4



(लड़के-लड़कियाँ परीक्षा देकर कॉलेज से निकलते हैं । रोली भी अपनी टू सीटर से सड़क पर आती है तो उसे चन्दन जाता दिखाई पड़ता है। वह रूक कर उससे पूछती है-)

रोली -हेलो ! कैसा रहा पेपर ?


चन्दन -फाइन, और आपका !


रोली -सो-सो। लिफ्ट !


चन्दन -नो थैंक्स ।


रोली -आइये भी ! थोड़ा घूम कर आते हैं।बहाना नहीं, आखिरी पेपर हो चुका है। (चन्दन पीछे बैठ जाता है। दोनों को जाते हुए मिर्जा व जैकी देखते हैं।)


जैकी -क्यों मियाँ भोपाली, कुछ देखा तुमने।


मिर्ज़ा -अमॉ यार, यह तो कभी बच्चू ने बताया ही नहीं।


जैकी -अब तुम्हारा मतलब है वह इश्क भी आप से बताकर करेगा।


मिर्ज़ा -अबे बताकर नहीं करेगा तो करके तो बताएगा।


(चन्दन व रोली नदी के किनारे बैठे हैं। चन्दन कुछ सोच रहा है रोली उसे धक्का देकर बोलती है-)

रोली -ऐ, क्या सोच रहे हो !


चन्दन -कुछ नहीं ।


रोली -कुछ तो।


चन्दन -सोच रहा हूँ वही, जो इस मोड़ पर आकर हर मेरे जैसा युवक सोचता है। पढ़ाई खत्म, लड़ाई शुरू। भूख से लड़ाई, बेरोजगारी से लड़ाई। जिन्दगी जीने के लिए, नौकरी पाने के लिए। बूढ़े बाप और कुंवारी बहन के लिए ।


रोली -अरे तो इसमें नया क्या है। प्रतियोगिताओं में बैठो और अच्छी नौकरी पा लो।


चन्दन -काम्पटीशन ! हः हः । रोली, कालेज से निकलने वाला हर छात्र अक्सर पहले काम्पटीशन में ही बैठना शुरू करता है। सोचता है बस एकदम बड़ा अफ्सर बन जाऊं । अरे, ये कालेज की दुनिया रंगीन कल्पनाओं की दुनिया है। यथार्थ से कोसों दूर । इंसान आकाश में परिंदों की तरह उड़ना चाहता है, आसमान को अपनी बाहों में समेटना चाहता है। किन्तु जब उसे आकाश नहीं मिलता तब वह थका हारा गिरता है ठोस पथरीली ज़मीन पर और फिर ....(मुस्कुराता है।) एप्लीकेशन लगाता है क्लर्की की नौकरी के लिए, जिसे वह पहले बड़ी हेय दृष्टि से देखता था। इसीलिए रोली, मैं ठोस धरती से एकदम ऐसी छलांग लगाना ही नहीं चाहता कि गिरूँ तो निष्प्राण हो जाऊँ।


रोली -छिः! कितने निराशावादी हो तुम ।


चन्दन -तुम मुझे निराशावादी कहो या इलाहाबादी, हकीक़त यही है। अच्छा अब चलें । (मुड़ बदलता है)


रोली -(खड़ी होकर) तुमसे एक रिक्वेस्ट है । रिक्वेस्ट इसलिए कि हमने अभी एक दूसरे के व्यक्तिगत मामलों में दखल देने का हक नहीं अपनाया है ।


चन्दन -ऐसा क्यों कहती हो ? अच्छा बोलो ।


रोली -कल तुम जा रहे हो । पढ़ाई पूरी कर अपनी जिन्दगी की लड़ाई लड़ने । लेकिन एक गुज़ारिश है – अगर तुमने अपने भीतर कभी रोली को महसूस किया या पाया हो तो, उस रोली की कसम, लड़ाई शुरु करने के पहिले हथियार मत डाल देना । तुममें ऐसा क्या नहीं कि तुम सफल न हो, किन्तु प्रयास जरुरी है फिर दोनों चल देते हैं । पीछे से धुन सुनाई पड़ती है –
‘करम किए जा......’

सीन नं.-5



(हास्टल का वही कमरा । मिर्जा व जैकी कुछ मंत्रणा कर रहे हैं तभी दरवाजा खुलने की आवाज के साथ दोनों लपक कर चंदन को धर दवोचते हैं । जैकी उसके सूँघता है फिर नकारात्मक सिर हिलाता है । मिर्जा टार्च जलाकर उसकी कमीज आगे पीछे देखता है । चन्दन दोनों को धक्का देकर –)

चन्दन -ये सब क्या है ?


जैकी -मैं सूँघ रहा था तुम्हें, और ढ़ूँढ़ रहा था एक महक ‘इंटीमेट की, ईव्हनिंग-इन-पेरिस की या..’


मिर्जा -और मैं ढ़ूँढ़ रहा था लम्बा सा बाल, किसी महजवीं का जो तुम्हारे काँधे से लग कर......


चन्दन -क्या बकवास है ।


मिर्जा -बकवास नहीं आशिक की औलाद ! मैं देख रहा हूँ तुम्हारे चेहरे पर इश्क का पहला पाठ याद हो जाने वाली रौनक ।


जैकी -कुछ तो बता ! कैसी गुज़री, ज़ालिम।


मिर्जा -ये ऐसै थोड़ी ना बताएगा। चल रामू को आवाज दें।


(रामू के आने पर) जा फटाफट ले आ । (एक सौ का नोट देता है)


रामू -जाऊँ ?


जैकी जाएगा नहीं तो क्या मिर्ज़ा के साथ बैठकर ग़ज़ल गाएगा । चल फूट।


मिर्जा -अबे रूक। ले (दस रुपये और देता है) वहीं मत बैठ जाना । और सुन ढाबे में बोल देना हम लोगों के लिए खाना रोक लेगा । नहीं तो पीकर जाएँगे तो आलू डालकर अंडा करी बनाएगा, साला । (रामू जाता है।)


चन्दन -ये सब क्या है भई-मिर्जा।


मिर्जा -अरे यार वो कल जैकी को वादा किया था ना । अरे वही ‘नकल’,’अकल’ और क्या...... हाँ, ‘दखल’

चन्दन -(हँसता है) अच्छा-अच्छा । तुम्हारा क्या हुआ जैकी, सुना है.....


मिर्जा -होगा क्या, नुस्खा नं. 2 फेल हो गया ।


जैकी -और तीसरा शुरू हो गया – यानी दखल।


शाम चाचा के पास गया था बंगले में।


चन्दन -क्या बोले ? (तीनों टेबल के तीन ओर बैठ जाते हैं)


जैकी -अरे बोलेगें क्या-वही बुजुर्गों वाला लंबा लेक्चर । तुम्हे ऐसा नहीं करना चाहिए वैसा नहीं करना चाहिए । कुछ मेरी इज्जत का ख्याल रखनाथा।


मिर्जा -ठीक ही तो कह रहे थे।


जैकी -क्या ख़ाक ठीक कह रहे थे। मैं पूछता हूँ अगर परीक्षा में एक प्रश्न नकल कर ली तो......


मिर्जा -कौन-सा देश का विकास रूक जाएगा।


जैकी -हाँ !क्या अंतर पड़ गया नकल न करने वालों को । चन्दन तू बता, तुम जितने काबिल हो उतना तो लिखोगे ही उसनें तो मैं दखल नहीं दे रहा। अब मैं अगर नकल करके अपने पासिंग मार्क्स जुटाता हूँ तो तुम्हें क्या तकलीफ है !


मिर्जा -हाँ क्या तकलीफ ?


जैकी -मैं पूछता हूँ कि क्या साल भर की पढ़ाई का मूल्यांकन परीक्षा के महज पाँच प्रश्नों के हल से हो जाता है। यही मापदंड है ना हमारी शिक्षा का । तब ये काम्पटीशन, इंटरव्यू क्यों होते हैं। क्यों नहीं परसेंटेज के अनुसार लोगों को नौकरी दे दी जाती। क्यो हमें डिग्रियाँ लेकर दर-दर भटकना पड़ता है। एक ग्रेजुएट कलेक्टर बनता है दूसरा बाबू और तीसरा.......


मिर्जा -(ताली बजा कर), वाह वाह ! क्या बात है।


चन्दन -इसीलिए तो परीक्षा प्रणाली में परिवर्तन लाया जा रहा है।


मिर्जा -अमां, कद्दू लाया जा रहा है। आजादी की आधी सदी निकल गई और हम अभी तक यह तय नहीं कर पाए कि हमारी शिक्षा प्रणाली कैसी हो।


जैकी -चल छोड़ यार ! अगला पैग बना। हाँ तो हम अपने मूल विषय पर आ जाएँ । चन्दन, बता ना यार, कैसी गुजरी।


मिर्जा -हाय, क्या रंगीन शाम रही होगी। हम, तुम और वो....


जैकी -वो कौन वे !


मिर्जा -वो यानी कि दरिया का किनारा(मुस्कराता है)


चन्दन -तुम दोनों को चढ़ गई है।


मिर्जा -चल-चल ज्यादा मस्का मत लगवा।


चन्दन -नहीं मानोगे।(दोनों सर हिलाते हैं) अच्छा तो सुनो, उसने गाड़ी रोकी-मैं बैठ गया। हम नदी के किनारे पहुँचे-मैं उतर गया। उसने कहा आओ रेत में बैठें-हम बैठ गए।


दोनों -फिर !


चन्दन -मैंने कहा उठो-वह उठ गई। उसने गाड़ी स्टार्ट की हम चल दिए। रास्ते में रेस्ट हाउस आया। मैंने कहा रूको-वह रूक गई ।


मिर्जा - फिर


चन्दन - मैं गाड़ी से उतरा फिर वह.....


जैकी -गाड़ी से उतरी। (जैकी ने कुर्सी एकदम चन्दन के पास खींच ली)


चन्दन -नहीं, वह गाड़ी से नहीं उतरी। मैंने कहा फिर मिलेंगे-वह मुस्कुराई और आगे बढ़ गई।


जैकी -धत तेरे की । क्लाइमेक्स में आकर कट कर दिया।


मिर्जा -मिया से भी कोई इश्क है। इस गति से चलोगे तो शादी की हाँ कराते तक सदी बदल जाएगी।


जैकी -बोर कर दिया। चल मिर्जा तू कुछ सुना फड़कती-सी चीज । और ले फिनिश कर ।


मिर्जा -अरे हम क्या सुनाये यारों-सुनों जीरज ने क्या कहा है-


“बादलों से सलाम लेता हूँ,
वक्त के हाथ थाम लेता हूँ,
मौत मर जाती है पल भर के लिए-
जब मैं हाथों में जाम लेता हूँ।”

चन्दन -बाह,क्या बात कही है।


चन्दन -अच्छा मिर्जा, तू घर कब जाएगा?


मिर्जा -घर ! मैं तो नहीं जा रहा, मैं जाऊँगा अलीगढ़, मामू के यहाँ। और जुलाई में वापस जाऊँगा इसी दड़बे में।


चन्दन -तू घर क्यों नहीं जाता।


जैकी -हाँ मियां, यह तो तूने कभी बताया ही नहीं।


मिर्जा -छोड़ो यारो।


जैकी -छोड़ें कैसे ? बता नहीं तो......


मिर्जा -नहीं तो क्या करेगा, बोल।


जैकी -नहीं तो....नहीं तो, अपने बिस्तर पर चला जाऊंगा। (तीनों हँसते हैं, फिर सहसा खामोश हो जाते हैं।)


चन्दन -जैकी,हमें किसी के ज़ाती मामलों में दखल देने का कोई हक नहीं पहुँचता।


जैकी -नहीं....बिलकुल नहीं पहुँचता ।


मिर्जा -अमां, भाड़ में गए ज़ाती मामलें, नहीं मानते तो सुनों । मगर फिर मत कहना कि नशा खराब कर दिया।


जैकी -बिल्कुल नहीं, (लुढ़कने लगता है)


मिर्जा -मेरे गाँव रसूलपुर में अब्बा की अच्छी खासी जागीर है। उनका एक बफादार कारिंदा है - रहीम, जिसे हम लोग रहीम चाचा कहते हैं। रहीम चाचा की मेरी हमउम्र (फ्लेश बैक में सीन दिखाए जाते हैं) एक लड़की थी - नाम था सलमा। सलमा व मैं बचपने से साथ खेले व बड़े हुए । सलमा अक्सर घर आकर अम्मीजान का हाथ बटाया करती थी । न जाने कब और कैसे हम दोनों एक दूसरे को चुपचाप चाहने लगे। हमने साथ-साथ जीने मरने की कसमें खायीं और पढ़ाई खत्म होते ही शादी कर लेना तय कर लिया । छुट्टियाँ हम लोग साथ बिताते और कालेज खुलने पर मैं उसकी याद लिए यहाँ आ जाता अगली छुट्टियों में मिलने के वादे के साथ। वह मेरा बी.ए. का अन्तिम वर्ष था। हमने तय किया था कि इस बार छुट्टी में जब घर आऊँगा तो अम्मी से निकाह की बात करूँगा।


परीक्षा खत्म हुई, मैं घर जाने की तैयारी कर रहा था कि अब्बा हुजूर का खत मिला। लिखा था कि मैं घर आने की बजाय सीधा अलीगढ़ पहुँच जाऊँ, मामू की लड़की की शादी में शामिल होने, क्योंकि अम्मी की बीमारी की वजह से वे दोनों नहीं पहुँच सकते। सलमा के कारण हालांकि मैं कहीं नहीं जाना चाहता था फिर भी जाना पड़ा । एक सप्ताह अलीगढ़ रहने के बाद जब मैं गाँव पहुँचा तो पता चला कि मेरा घोंसला बनने के पहले ही उजड़ गया।


चन्दन -आखिर हुआ क्या ?


मिर्जा -हमारे एक नौकर ने, जो हमारी मुहब्बत से वाकिफ था बताया कि न जाने कैसे अब्बा हुजूर को इस इश्क की खबर हो गयी थी और चूँकि हमारा व सलमा का मेल जोल उनकी शानो शौकत के माफिक न था, उन्होंने रहीम चाचा को इस बात के लिए तैयार कर लिया कि वे सलमा का निकाह उसके मामू जात भाई से, जो नैराबी में काम करता है, कर दें। निकाह का सारा खर्च वे देने को तैयार हो गए । रहीम चाचा ने इसे अब्बा की मेहरवानी समझा और उस लड़के से सलमा का निकाह करा दिया।


जैकी -पर सलमा कैसे इसके लिए तैयार हो गई ?


मिर्जा -चूँकि हम लोगों ने एक दूसरे से वादा किया था कि मेरी पढ़ाई समाप्त होने तक हम यह बात किसी से न बतायेंगे, उसने अपनी जुवान न खोली और कुर्बानी के लिए तैयारी हो गई। इसीलिए अब्बा ने मुझे उन दिनों अलीगढ़ भेज दिया ताकि मुझे कुछ मालूम न हो पाये ।


जैकी -अमां क्या अलिफ लैला की कहानी लेकर बैठ गया । स्टोरी में कुछ थ्रिल ला। (चन्दन ने उसे डांटा, मिर्जा मुश्किल से मुस्कुराया)


चन्दन -आगे बताओ मिर्जा, फिर......


मिर्जा -होने को क्या बचा था । सलमा निकाह के बाद नैरोबी चली गई, किंतु दुःख तो इस बात का है कि वहाँ भी सुखी न रह सकी।


चन्दन -क्यों !


मिर्जा -सलमा के पति ने पहले से ही एक औरत नैरोबी में रखी हुई थी। सलमा से यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और एक दिन उसने वहीं जहर खा लिया।


जैकी -उफ।


मिर्जा -बस तभी से मुझे अपने अब्बा जान से नफरत हो गई। इसलिए छुट्टियों में भी घर जाना पसंद नहीं करता और चाहता हूँ कि यह पढ़ाई कभी खत्म न हो ताकि कभी गाँव न जाना पड़े क्योंकि मुझे पता है कि गाँव सलमा के साथ बितायें लम्हें मुझे चैन न लेने देंगे।



तीनों बहुत गमगीन हो जाते हैं और अपने-अपने बिस्तर पर लुढ़क जाते हैं। मिर्जा को नींद नहीं आती। वह करवट बदलता रहता है धीरे-धीरे एक गाने की आवाज उभरती है-

जूही महकी, उपवन चहका,
अमराई में शाम हो गई।।
पल भर मिलने ही पाई थी,
चर्चा कितनी आम हो गई। चर्चा कितनी....
रोप दिया जो पौधा तुमने,
मेरे इस सूने आँगन में।
जग वालों से छुपा न पाई,
गली-गली बदनाम हो गई।। चर्चा कितनी....
यादों का बस लिए सहारा,
रही सींचती प्यार तुम्हारा।
पथराई अखियाँ, तब जाना,
संबंधों की शाम हो गई।. चर्चा कितनी....


सीन नं. -6


(बैरिस्टर राजेश्वर दयाल का बंगला। दयाल साहब बैठक में बैठे अखबार पढ़ रहे हैं तभी टेलीफोन की घंटी बजती है।)

मिं.दयाल-हेलो ! राजेश्वर दयाल।
.......(उधर की आवाज सुनाई नहीं देती)
आपको किससे बात करना है।
अच्छा ! होल्ड कीजिये (आवाज़ देते हैं)
रोली। तुम्हारा फोन ।


रोली -किसका है पापा !(फिर खुद ही फोन उठाकर।) हेलो कौन !


.......रोली जी ! मैं चन्दन।


रोली -(चहक कर) ओह चन्दन ! (दयाल सा. अख़बार से एक निगाह उठाकर रोली की ओर देखते हैं तो रोली जीभ दबा कर मुँह दूसरी ओर कर लेती हैं।)!!


चन्दन -तुम्हें मालूम है ना कि आज रात मै घर जा रहा हूँ । मै चाहता हूँ कि जाने के पहिले तुमसे एक और मुलाकात हो जाये । क्या ख्याल है ?


रोली -ख्याल तो बड़े नेक है। बोलिए कहाँ ?


चन्दन -दोपहर 12 के लगभग, ‘अपेरा’ में मिलो।


रोली -और कुछ।


चन्दन -नहीं तो.........


रोली -बोलो ना।


चन्दन -बात ये है कि मेरे दोनों रूम मेट्स भी तुम से मिलना चाहते हैं। उड यू माइंड ?


रोली -सरटेनली नाट-आई एम रीचिंग इन टाइम। (रोली फोन रखकर जाने लगती है। तो दयाल साहब पूछते हैं किसका फोन था बेटी।)


रोली -डैडी, हैं एक चन्दन खत्री। कालेज का होनहार मगर दकियाकनूसी लड़का।


दयाल -‘होनहार मगर दकियानूसी !’ मैं कुछ समझा नहीं।


रोली -हाँ डैडी आज के जमाने में भी वह जाने किस युग की बात करता है। कहता है कि स्त्री को घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए। वह तो गृह लक्ष्मी है, घर की शोभा है, उसे अपना समय पति, बच्चों व घर को संवारने में लगाना चाहिए । नारी नौकरी प्रायः अपने पति का पुरुषोचित अहं तोड़ने के लिए करती हैं। बराबरी का दर्जा इसलिए चाहती है कि पति उस पर हुक्म न चला सके।


दयाल -विचार तो उसके बड़े अच्छे हैं। किसी दिन घर बुलाओ तो हम भी मिलें।


रोली -डैडी-आज रात वह घर जा रहा है इसीलिए तो दोपहर में उससे मिलने जाना है, ओह !(जीभ दबाती है, डैडी मुस्कुराते हैं।) मैं जाऊं डैडी ?


दयाल -तू उससे हाँ तो पहले ही कर चुकी है अब मुझसे इजाजत मांग रही है –शैतान ।
रोली हँस कर भागती है।)



सीन नं. 7



(कैमरा अपेरा में चारों ओर घूमता हुआ उस टेबल पर रुकता है जहाँ तीनों दोस्त बैठे हैं। मिर्जा जम्हाईयां ले रहा है। जैकी साथ लगी खिड़की से बार-बार बाहर की ओर देखता है तभी उसे रोली आती दिखाई पड़ती है।)

जैकी -जानी, कयामत आ रही है।


मिर्जा -बेटे, हम कयामत नहीं, जिन्दगानी का इन्तजार कर रहे हैं।


(रोली उनकी टेबल के पास पहुँचती है।)


चन्दन -रोली, इनसे मिलो। ये हैं मिर्जा साहब, मेरे रूम पार्टनर।


जैकी -वनली बन थर्ड –जीहाँ, बाकी टू थर्ड हम दोनों हैं । (रोली मुस्कुराती है।)


चन्दन -ला फैकेल्टी में ........


जैकी -रिसर्च कर रहे हैं। जी हाँ....एव्हरी इयर, इन थ्री इयर्स। क्यों मिर्जा में गलत बोला क्या ? (सब हँसते है इतने में वेटर आर्डर ले जाता है।)


चन्दन -(जैकी की ओर इशारा करके) और आप है मिस्टर जैकी.......


मिर्जा -और भावी फिल्म डायरेक्टर।


रोली -क्या सचमुच !अच्छा बताइये पहली फिल्म किस पर बनायेंगें।


जैकी -मैडम इरादे तो बड़े बुलंद हैं देखिये होता क्या है ! कल तक मैं जरूर प्लाट तलाश रहा था लेकिन कल रात ही एक ऐसी जानदार स्टोरी मुफ्त में मिल गई कि कभी फिल्म बना सका तो सबसे पहले उसी पर बनाऊंगा। (मिर्जा की ओर देखता है)



मिर्जा जरा नर्वस होता है तभी वेटर सामान लगा देता है, खाकर मिर्जा व जैकी जल्दी उठ जाते हैं।)

जैकी -अच्छा हम और मिर्जा जरा प्रेस तक जा रहे हैं, देखें इनकी किताब का क्या हुआ। (चन्दन को आँख मारता है) अच्छा मैटम, जिन्दा रहे तो जल्दी मिलेंगे । परस्पर दुआ सलाम के बाद दोनों चले जाते हैं।


रोली -आपके दोनों मित्र काफी दिलचस्प है। मिर्जा जी कुछ लिखते हैं क्या ?


चन्दन -उसकी एक किताब छप रही है- ‘बिखरी नज्में’ । लेकिन वे वहाँ गए नहीं है। हमें अकेले छोड़ने का बहाना किया है। (रोली थोड़ा शरमाती है।)


रोली -चन्दन, मेरे डैडी तुमसे मिलना चाहते थे।


चन्दन -डैडी ! उन्हें मेरे बारे में कैसे मालूम ?


रोली -सुबह तुम्हारा टेलीफोन आया था ना !


चन्दन -ओह ! (राहत की साँस लेता है।)


रोली -मैंने उन्हें सब बता दिया।


चन्दन -सब, सब क्या (चौंकता है।)


रोली -यही कि तुम मेरे कॉलेज में हो । एम. काम. के होनहार छात्र । नारी के प्रति तुम्हारे क्या विचार हैं वगैरह वगैरह ....


चन्दन -(आश्वस्त होकर) अच्छा ! लगता है मेरे विचार तुम्हें पसंद नहीं आये।


रोली -अच्छा चन्दन, एक बात बताओगे ?


चन्दन -पूछ कर देखो।


रोली -देखो, न तो मैं घुमा-फिराकर कर बात करना जानती, और ना ही तुमसे गोल-मोल जवाब चाहती । हो सकता है मेरी बात सुनकर तुम सोचो कि मैं कैसी लड़की हूँ फिर भी मै जानना चाहती हूँ कि अगर तुम्हारे सामने कभी मुझसे विवाह करने का प्रस्ताव आये तो तुम क्याक जवाब दोगे ।


चन्दन -रोली, मैं तुम्हारी बेवाकी से चकित होने के साथ खुश भी हूँ क्योंकि अगर यह प्रश्न मुझे तुमसे करना होता तो मैं शायद काफी वक्त या वर्षों लगा देता।


लेकिन इसका उत्तर इतना सरल नहीं है. बाहर टहलते हुए बातें करेंगे ।

(पेमेंट कर के बाहर निकलते हैं।)


चन्दन -रोली, यह बात सच है कि यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी यदि मैं तुम्हें अपनी पत्नी के रूप में पाऊंगा । लेकिन इसमें पहली अड़चन तो है हमारे परिवारों की असमानता, तुम बैरिस्टर साहब की एकलौती पुत्री और मैं एक रिटायर्ड हेड क्लर्क का लड़का । और दूसरी महत्वपूर्ण अड़चन है मेरी बेरोजगारी। रोली तुम शायद नहीं जानती कि किन मुसीबतों में रहकर मैंने पढ़ा मेरे पिता मुझपर आँख लगाये बैठे हैं कि कब मैं कमाने लायक होऊं और कब घर की माली हालत सुधरे। बहन का विवाह कर सकूँ। और घर को रहन से छुड़ा सकूँ।

ऐसी स्थिति में मुझे अपने विवाह की बात सोचने से भी अपराध बोध होता है। अभी मेरा पहला ध्येय है-नौकरी प्राप्त कर परिवार को आर्थिक सुरक्षा देना। बहन का विवाह व घर को छुड़ाना ।(कुछ रुककर ) मेरे एक बात मानोगी रोली ? क्यों न हम अपने संबंध एक स्वस्थ मैत्री तक सीमित रखें ! क्या स्त्री-पुरुष अच्छे दोस्त नहीं बन सकते !


रोली -चन्दन में तुम्हारी भावनाओं को समझती हूँ और कभी नहीं चाहूंगी के तुम अपने कर्तव्यों के विमुख होकर अपने माँ बाप के अरमानों पर पानी फेर दो। (रूककर ) अच्छा चलो हम एक समझौता कर लें।


चन्दन -समझौता (चौंकता है)


रोली -हाँ, समझौता। जब तक तुम्हें नौकरी नहीं मिलती और तुम अपनी जिम्मेदारियों से निश्चिंत नहीं हो जाते हम लोग बस अच्छे मित्र रहेंगे, केवल मित्र । और जिस दिन तुम्हें ऐसा महसूस हो कि अब रोली मित्र नहीं पत्नी के रूप में ज्यादा उपयुक्त है, हम लोग विवाह कर लेंगे।


चन्दन -(भावावेश में रोली का कंधा पकड़कर) यह उचित नहीं है। यह एक लंबा और अंधा सफर है जिसमें कितना समय लगेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता-हो सकता है सारी उमर गुजर जाये और मंजिल न मिले । तब...तब क्या मैं स्वयं को माफ कर पाऊंगा।


रोली -अरे, तुम इतने भावुक क्यों हो रहें हो । मैंने यह कब कहा कि मैं तुम्हारे इंतजार में सारी उम्र कुंवारी बैठी रहूँगी। जिस दिन भी तुमसे बेहतर लड़का खोज लिया गया मैं शादी कर लूंगी पर अपनी दोस्ती नहीं टूटेगी । अब तो खुश हो ना। (मुस्कुराती है मगर बहाने से अपनी नम आंखें पोंछ लेती है।)


चन्दन -बस-बस रोली, तुमने ऐसा कहकर मुझे उबार लिया।


रोली -लेकिन मेरी भी एक शर्त है। तुम भी रोली के नाम की माला मत जपते रहना । उपयुक्त प्रस्ताव आने पर अपना विवाह कर ही लेना। शादी में बुलाओगे तो आऊँगी भी। दोस्त जो ठहरी। बोलो-समझौते की सारी शर्तें मंजूर हैं. (हाथ आगे बढ़ती है।)

दोनों की आँखें डबडबा जाती हैं। चन्दन धीरे से अपना हाथ असके हाथ के ऊपर रखकर थप-थपा देता है तभी दूर कहीं रेडियों बजता है सुनाई देता है-
‘जिन्दगी का सफर ......


सीन नं. 8



कैमरा एक गाँव को फोकस करता है।

(चन्दन का गाँव । उसके पिता मुंशी देवीदीन खत्री बाहर बैठे हुक्का पी रहे हैं । तभी एक कार आकर दरवाजे पर रूकती है और उसमें से उतरते हैं-राजेश्वर दयाल। मुंशी जी हड़बड़ा कर खड़े हो जाते हैं।)

दयाल- -आप ही चन्दन के पिता खन्नी जी हैं।


खत्री जी -जी हाँ, मगर मैंने आपको पहचाना नहीं।


दयाल -(हँस कर) पहचानेंगे कैसे । हम पहली बार जो मिल रहे हैं। मैं राजेश्वर दयाल ,शहर में वकालत करता हूँ । आपका लड़का चन्दन और मेरी बेटी रोली एक ही कालेज में पढ़ते हैं।


खत्री -आइये, आइये । तशरीफ लाइये । कहिये क्या हुक्म है। (बैठते हैं।)


दयान -दरसल मैं अपनी बेटी के विवाह का प्रस्ताव लेकर आया हूँ ।


खत्री -देखिये, दयाल साहब में बहुत साफ कहना चाहता हूँ । जात-पात तो खैर मैं भी ज्यादा नहीं मानता अतः उसकी तो कोई अड़चन नहीं है, लेकिन आपकी इतनी बड़ी कार देखकर लगता है कि आप काफी बड़े आदमी है और मैं ठहरा रिटायर्ड हेडक्लर्क। हमारे आपके परिवार का तालमेल जमेगा नहीं । संबंध हमेशा बराबरी वालों के साथ शोभा देते हैं और निभते हैं।


दयाल -आप मुझे शरमिंदा कर रहे हैं मेरा जो कुछ है सब मेरी बेटी का है ।


खत्री -देखिये हमारी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। चन्दन की नौकरी अभी लगी नहीं। बेटी का विवाह है, लेकिन आपकी इतनी बड़ी कार देखकर लगता है कि आप काफी बड़े आदमी है और मैं ठहरा रिटायर्ड हेडक्लर्क । हमारे आपके परिवार का तालमेल जमेगा नहीं। संबंध हमेशा बराबरी वालों के साथ शोभा देते हैं और निभते हैं।


दयाल -आप मुझे शरमिंदा कर कहे हैं। मेरा जो कुछ है सब मेरी बेटी का है।


खत्री -देखिये हमारी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। चन्दन की नौकरी अभी लगी नहीं। बेटी का विवाह करना है अच्छा लड़का आजकल बगैर दहेज के मिलता नहीं। फिर आपसे क्या छुपाऊं ये मकान भी गिरवी है।
दयाल -मेरी एक ही बेटी है। मेरी सारी जायदाद उसी की तो है। आप बस.....


खत्री -आप शायद मेरी मजबूरी नहीं समझ रहे ।


दयाल -मैं समझ रहा हूँ । आप हाँ भर कर दीजिए । आपकी बेटी का विवाह भी मैं करूंगा और मकान भी छुड़वा दूँगा ।


खत्री -मेरा मतलब यह नहीं था मैं तो .......


दयाल -देखिये मैं जो कुछ करूँगा आपके लिए नहीं, अपनी बेटी के लिए करूँगा । आप इंकार मत करिये ।


खत्री -(मन ही मन खुश होते हुए) आपने तो मुझे उलझन में डाल दिया । खैर ! जब लड़का-लड़की एक दूसरे को पसंद करते हैं तो हम क्यों बीच में आयें । उनकी खुशी, हमारी खुशी ।


सीन नं. – 9


(कार तेजी से कम्पाउन्ड में घुसती है । दयाल साहब का कार से लिकलकर रोली की माँ को आवाज देते हुए अंदर प्रवेश ।)

रोली की माँ-काया बात है, क्यों इतना चिल्ला रहे हो ।


दयाल -अरे इतनी दूर से आ रहा हूँ ......


माँ -तो काया आपके लिए आरती सजाकर दरवाजे पर खड़ी रहती । कौन-सा तीर मार आये । अरे, किसी हत्यारे को फाँसी से छुड़ा लाये होगें ।


दयाल -उफ तुम्हें तो ... । रोली की शादी तय कर आया हूँ। (आवाज सुनकर रोली अपने कमरे से निकल कर आड़ में खडीं हो जाती है ।)


माँ -सच ! कैसा है लड़का ।


दयाल -लड़का ! वो तो मैंने नहीं देखा ।


माँ लो सुनो !लड़का देखा नहीं और शादी तय कर आये । मैं सोचती हूँ तुम कैसे वकालत करते होगे।
दयाल -अरे मैंने नहीं देखा तो क्या, रोली ने देखा है। उसकी पसंद अपनी पसंद। बेटी भी तो वकील की है कोई ऐसा वैसा लड़का थोड़ी न पसंद किया होगा।


माँ -हे भगवान ! अच्छा, करता क्या है ?


दयाल -कुछ नहीं ।


माँ -क्या....(माथे पर हाथ ठोंकती है)


दयाल -अरे भई अभी तो पढ़ाई खत्म की है । कहीं न कहीं लग ही जावेगा । और कौन हम कल ही विवाह करने जा रहे हैं, वो तो उसकी नौकरी मिलने के बाद ही करेंगे।


माँ -चलो जो किया ठीक। अच्छा ये बताओ कुछ लेन-देन......


दयाल -अरे हाँ ! चन्दन के पिता कहने लगे मुझे पहले लड़की की शादी करना है घर बनवाना है और चन्दन की नौकरी अभी लगी नहीं है ऐसे में ......


माँ - क्या बात टाल दी ?


दयाल -टल ही गई थी फिर मैंने सोचा-एक ही बेटी है उसकी पसंद का लड़का है तो देख लेंगे। वो भी खुश और बेटी भी। आखिर यह सब किसके लिए हैं?

तभी रोली आड़ में से बाहर आ जाती है उसे देएखकर दयाल बोलते हैं-आओ बेटी तुम्हें एक सरप्राइज दें।

रोली -(क्रोध में) मैं आपकी बातें सुन चुकी हूँ-मैं शादी नहीं करूँगी।


माँ -क्या !शादी नहीं करोगी ?


रोली डैडी, मैं आपसे कोई चीज नहीं छुपाती। क्या मैंने आपको अपने व चन्दन के समझौते की बात नहीं बताई थी।


डैडी -क्यों नहीं ! इसीलिए मैंने तुम्हारे समझौते का ख्याल रखते हुए यह विवाह तय किया है। तुम्हारे चन्दन की तीन ही समस्यायें थी-बहन का विवाह, घर और नौकरी । तो पहली दो समस्यायें तो मैंने हल कर दीं । जो रुपया मैंने तुम्हारी शादी के लिए जोड़ रखा है उससे चन्दन की बहन की शादी भी हो जायेगी और घर भी उऋण हो जाएगा । रहा सवाल चन्दन की नौकरी का, तो विवाह तो तुम्हारा तभी करेंगे जब वह नौकरी पा जाएगा । अब बोलो कहाँ मैंने तुम्हारी शर्तों को तोड़ा।


रोली -तोड़ा है, डैडी । शर्तों को नहीं मेरे उसूलों को।


डैडी -उसूलों को !


रोली हाँ डैडी, मैं ऐसे परिवार में शादी नहीं करूंगी जहाँ दहेज लिया व दिया जाता है ।


डैडी -लेकिन यह तो मैं अपनी स्वेच्छा....अपनी सामर्थ्य से दे रहा हूँ । उन्होंने नहीं माँगा।


रोली -माँगने के भी अपने-अपने ढंग होते हैं। डैडी आप तो समर्थ हैं, आपने तो दहेज दे दिया लेकिन उन सब लड़कियों का क्या होगा जिनके माँ बाप दहेज नहीं दे सकते। जब तक आप जैसे, लड़के के खरीददार समाज में रहेंगे ऐसी लड़कियों का हश्र जानते हैं क्या होगा ? आजन्म कुंवारापन... आत्महत्या या फिर दहेज के भेड़ियों के हाथों मौत । इसीलिए मैंने प्रण किया है कि वहीं शादी करूंगी जहाँ दहेज न लिया जाय । और जब तक हम और आप जैसे समर्थ लोग दहेज का विरोध नहीं करेगें, खरीददारों का सामाजिक बहिष्कार नहीं करेगें, समाज से दहेज के दानव का नाश/पलायन नहीं होगा।


डैडी -लेकिन बेटी ये तो मैं अच्छे कार्य के लिए ...आखिर उनकी बेटी की शादी के लिए ही तो .......


रोली -नहीं डैडी नहीं । यही कड़ी तो हमें समाप्त करनी है। अपने लड़के को बेंचना फिर उस पैसे से दूसरे का लड़का खरीदना ताकि अपनी लड़की की शादी हो जाय । लेकिन उन लड़कियों का क्या होगा जिनके कोई जवान भाई न होगा या भाई बिकाऊ न होगा ? इस समस्या का ये हल नहीं है जो आपने सोचा है - हल है- जागरूकता। जब तक हर लड़का व लड़की स्वयं दहेज का विरोध नहीं करेगा लड़के बिकते रहेगें समाज में बेमेल विवाह होते रहेगें । हमें स्वयं ऐसे लोगों का धिक्कारना है, उन्हें सजा दिलाना है, सामाजिक बहिष्कार करना है जो अपनी लड़कियाँ बेचते या लड़के खरीदते हैं। (रुक कर-एकएक शब्द चबाकर)डैडी मैं यह शादी नहीं करूँगी। आप उन्हें साफ लिख दीजिए कि मेरी ऐसे परिवार की बहू बनने से इंकार करती है जहाँ बेटी नहीं दहेज तौला जा रहा है।


डैडी -लेकिन चन्दन से........


रोली -मैं चन्दन को जितना जानी हूँ उसके अनुसार वह अपने पिता का समर्थक नहीं होगा और यदि हुआ तो अपने उसूल के लिए एक क्या हजार चन्दन छोड़ सकती हूँ। (कहकर अपने कमरे में भाग जाती है।)



सीन नं. -10


(चन्दन मस्ती में गुनगुनाता हुआ गाँव की पगडंडियां से गुजरता हुआ घर पहुँचता है। दरवाजे पर ही पिता जी मिल जाते हैं। चन्दन पैर छूता है फिर कहता है )

चन्दन -पिता जो आपके आशीर्वाद से मुझे नौकरी मिल गई।


पिताजी -जीते रहो, कहाँ ?


चन्दन -शहर में एक ‘राहुल कंस्ट्रक्शन’ कंपनी है उसमें असिस्टेंट की पोस्ट है। पगार अभी कम है किंतु आगे चांस है।


पिता -अरे ठीक है बेटे। आज कल बिना सिफारिश नौकरी मिलती कहाँ है। हाँ, शहर से कोई दयाल साहब आये ते । तुम्हारे रिश्ते की...


चन्दन -रिश्ता ! पिता जी आप से पहले ही कह चुका हूँ कि जब तक शालिनी की शादी नहीं हो जाती और घर नहीं छूट जाता मैं शादी नहीं करूंगा।


पिता -अरे तू पूरी बात तो सुन । सब ठीक हो गया।


चन्दन -ठीक हो गया, वो कैसे ? (चौंकता है)


पिता -दयाल साहब एक बड़ी सी कार से आये थे। बोले मैं आपके बेटे का रिश्ता अपनी बेटी से तय करने आया हूँ।


चन्दन -पापा आप.....


पिता -लेकिन मैंने उन्हें साफ मना कर दिया तो वे कहने लगे देखिये मैं बड़ी आशा से आया हूँ । मैंने आज तक जो कमाया वह सिर्फ अपनी बेटी के लिए। आप हाँ तो करिए । शालिनी की शादी हम करेंगे और यह मकान भी हम छुड़ायेगें । मैंने 4-5 लाख का खर्च बताया तो झट तैयार हो गए । ठीक है ना बेटे 2 लाख तो शालिनी के लिए रामपुर वाले मांग क रहे हैं और बाकी यह घर....


चन्दन -दहेज, दहेज, दहेज। आप लोगों को यह क्या हो गया है। लड़के-लड़कियों को खरीदने बेचने का धंधा बना लिया है। एक लड़के को बचेंगे, दूसरे को खरीदेगें । हम लोग जानवर है या आपकी जायदाद। जिसे जब भी जी चाहे जहाँ बेच दिया।(चन्दन अब तक आवेश में आ गया था अचानक चिल्ला उठा...।) पिताजी मैं बिकूंगा नहीं चाहे आजीवन कुंवारा रहूँ। और शालिनी की शादी भी ऐसी जगह नहीं करूंगा जहाँ दहेज के लोभी रहते हैं।


पिता -तो शालिनी भी तुम्हारी तरह आजन्म कुंवारी रह जाये।(अब वे क्रोध में थे)


चन्दन -पिता जी, क्या आप चाहते हैं कि शालिनी को वहाँ भेज दें जहाँ विवाह मात्र दहेज न देने पाने के कारण रूका हुआ है। मान लीजिए विवाह के बाद फिर उन्होंने मुँह फाड़ा तो फिर आप दयाल साहब के पास रुपये मांगने जाएंगे । या स्टोव फटने जैसे किसी हादसे का इंकजार करेगें।


पिता -लेकिन


चन्दन -आपने यह कैसे सोच लिया कि बिना दहेज के शादी हो ही नहीं सकती। क्या आज का हर नवयुवक इतना गिर गया है कि बिना दहेज का धन पाये अपनी गृहस्थी नहीं चला सकता। क्या ऐसे सारे युवकों का खून पानी हो चुका है जो आगे आकर दहेज का विरोध करें और कहें कि हम विवाह लड़की से करेगें ना कि उसके बाप के दहेज से ।


पिता -बेटा तू कल्पना की उड़ानें भर रहा है। पैसे की.......


चन्दन -नहीं पिता जी अब वो दिन दूर नहीं जब ये कल्पनाएँ साकार होंगी।आप जानते हैं, मैं शालिनी की बात एक जगह तय करके आ रहा हूँ बिना दहेज के ।


पिता -अरे लड़का लंगड़ा-लूला होगा। (चिढ़कर बोलते हैं।)


चन्दन -जी नहीं । लड़का न लंगड़ा है ना लूला। जूट मिल में काम करता है। एक पैसा दहेज नहीं लेगा लेकिन लड़की देखकर ही शादी करेगा । कल वो लोग आ रहे हैं।


पिता -सच ।


चन्दन -हाँ !मगर आप दयाल साहब को मेरे विवाह का इंकार लिख दीजिए । (चला जाता है)



सीन नं. 11



(रोली के घर की घंटी बजती है। पोस्टमैन नौकर को डाक देता है। नौकर मि.दयाल को दो पत्र देता है । एक रोली का, एक उनका। दयाल साहब रोली का खत उसे देते हैं और चला अपना स्वयं पढ़ते हैं दोनों अलग-अलग सोफे पर पैठे हैं।)


रोली अपना खत पढ़ती है-


‘रोली’
पिता जी से ज्ञात हुआ कि तुम्हारे डैडी हमारा रिश्ता लेकर आये थे । मुजे अफसोस है कि इन दोनों बुजुर्गों ने आपस में दहेज तय कर लिए जिसके मैं सख्त खिलाफ हूँ अतः मैंने विवाह से इंकार कर दिया । आशा है कि तुम मेरे जज्बातों की कद्र करोगी और अपने डैडी को भी समझाओगी। हम यह शादी न कर एक मिसाल कायम करेगें अपने उसूलों की और वायदे के अनुसार स्वस्थ मैत्री निभायेंगे।
तुम्हें यह जानकर खुशी होगी कि- ‘मुझे शहर में एक नौकरी मिल गई है, मिले तो चर्चा करेंगे। ’


रोली -पिताजी, मैं कहती थी ना कि चन्दन ऐसा नहीं है । ये लीजिए पढ़ लीजिए उसका खत । (तब तक दयाल साहब अपना खत पढ़ चुके होते हैं उसे रोली को देते हुए कहते हैं तुम इसे पढ़ो।)


रोली दूसरा खत पढ़ती है-


आदरणीय दयाल साहब, चूँकि चन्दन दहेज के विलकुल पक्ष में नहीं है, और मैं भी उसकी बातों से सहमत हो गया हूँ, हमें शादी इसी शर्त पर मंजूर होगी कि आप एक पैसा दहेज न देगें।
‘देवीदीन खत्री’


पत्र पढ़कर रोली पिता की ओर देखती है।


दयाल -बेटी अब क्या इरादा है।


रोली -(शरमा कर) डैडी, कहकर उनके सीने से लग जाती है। (शादी की शहनाइयां बज उठती हैं।)



(मध्यान्तर)


सीन नं. 12


(चन्दन बीफ्रकेस लिए आफिस से घर पहूँचता है । दरबाजे पर नेम प्लेट हैं ‘चन्दल-रोली’ । चन्दन अंदर आने से पहले प्यार से उसमें उँगली फेरता है । रोली उसे चाय पकड़ाती है ।)

चन्दन -रोली हमारे विवाह को कितना समय हो गया ।


रोली -क्यों- क्या बात है ?


चन्दन -यूँ ही ! सोचता हूँ अपनी शादी के इतने दिन हो गए, न तो तुम्हें कभी कोई प्रजेंट लाकर दी और न ही कहीं घुमाने ले जा सका ।


रोली -कैसी बातें करते हो । क्या मुझे मालूम नहीं कि तुम्हारा सीमित आय में अभी यह सब संभव नहीं । अच्छा मैने कभी तुमसे शिकायत की या तुम्हें कभी ऐसा आभास हुआ ।


चन्दन -नहीं आभास तो नहीं हुआ । लेकिन मेरा भी तो कुछ फर्ज है । सुनो कल मेरी नौकरी का एक वर्ष पूरा होने जा रहा है । कल के बाद मैं रेगुलर हो जाऊँगा । सोचता हूँ एक माह की तन्ख्वाह एडवांस ले लूँ और फिर कुछ दिन के लिए कही बाहर चलें । हम भी कुछ खंडाला-वंडाला जैसा कर आएँ ।


रोली -अरे कल तो हमारी शादी की साल गिरह है । तुम आफिस से जरा जल्दी आ जाना य़ मैं तुम्हारे पसंद की खीर बनाऊंगी । फिर घूमने चलेगें ।


चन्दन -अरे वाह ! तो ऐसा करते हैं मैं कल रात के शो की टिकट लेता आऊंगा तुम खाना मत बनाना । होटल में खाएंगें और पिक्चर देखेगें, ऐश करेंगे और क्या ? (रोमांटिक स्टाइल में बोलता है ।)


रोली -ठीक है, मगर जल्दी आना ।


चन्दन -रोली, क्यों ना सेलीब्रेशन ट्रायल आज ही हो जाए ।


रोली -क्या कहा........(प्यार से आँख दिखाती है ।)


चन्दन -हाँ, हाँ, हर्ज ही क्या है ? (उसे अपनी ओर खींचता है ।)



सीन नं. 13


(चन्दन आफिस के लिए तैयार है । रोली को आवाज देता है । रोली आकर उसका टीका करती है, आरती उतारती है और पैस छूती है ।)



चन्दन -अरे, अरे ये सब क्या कर रही हो ?


रोली -इतनी जल्दी भूल गए, आज शादी की साल गिरह है ना ।


चन्दन -अरे हाँ ! तो पैर थोडी ना छूते हैं । साल गिरह के दिन गाल छूते हैं वो भी होठों से । इस तरह ........।


रोली -अच्छा आज तुम्हारी तनख्वाह मिलेगी ना । बाजार से कुछ सामान लाना है । लिस्ट मैंने तुम्हारे शर्ट की जेब में रख दी । लौटते समय लेते आना ।


चन्दन -हुजूर ! तनख्वाह तो मिलेगी, वो भी डबल । एक महीने का एडवांस । लेकिन सामान आज नही आयेगा, आज तो चन्दन हनीमुन मनायेगा अपनी हनी के साथ, नो होम-वर्क । पाँच बजे तैयार रहना । अच्छा चलूँ-बाय !

(रोली चन्दन को जाते देखती है उसकी आवाज गूँजती है –आज तो चन्दन हनीमून मनायेगा, अपनी हनी के साथ । वह शरमाती है । शीशे के सामने अपने चेहरे को देखते हुए कुछ गुनगुनाती है और नहाने चल देती है ।)



सीन नं – 14



(चन्दन कार्यालय में बैठा फाइल देख रहा है । तभी आफिस का कैशियर आकर उसकी टेबल पर एक लिफाफा रखता है ।)


कैशियर -चन्दन जी ये रही आपकी दो माह की पगार, और यहाँ साइन कर दीजिए ।


चन्दन -दो माह की । लेकिन अभी तो मैंने एडवांस की एप्लीकेशन भी नहीं दी । अच्छा-अच्छा मैंनेजर साहब से बात की थी उन्होनें ग्रांट कर दिया होगा। (खुश हो जाता है।)


कैशियर -जी नहीं ! ये आपकी आखिरी तनख्वाह है। आपकी छंटनी कर दी गई है और कंपनी के नियम के मुताबिक यदि किसी कर्मचारी की छंटनी कंपनी बगैर नोटिस दिए करती है तो उसे एक माह की तनख्वाह और दी जाती है।


चन्दन -मेरी छँटनी......लेकिन क्यों ? (चकरा जाता है)


कैशियर -ताकि आप कनफर्म न हो सकें । क्योंकि यदि आप कनफर्म हो गए तो कम्पनी को नियम के मुताबिक अन्य सुविधायें मसलन-एल.टी.सी., इन्क्रीमेंट, बोनस, मेडिकल फैसीलिटी वगैरह देनी पड़ेगी।


चन्दन -ये तो सरासर अन्याय है, मैं मैनेजर साहब से मिलता हूं। (चन्दन तेजी से मैनेजर साहब के कमरे में घुसता है लेकिन लौटता है तो चेहरे पर पसीने की बूंदे है। वह धीरे-धीरे अपनी टेबल तक पहुँचता है। लिफाफा अपने ब्रीफकेस में रखता है फिर एक भरपूर नज़र आफिस में चारों तरफ डालता है और चला जाता है।)

उदास चन्दन सड़क में यूँ ही टहलता रहता है फिर एक होटल में जाता है और चाय का आर्डर देता है। उसके कानों में रोली की आवाज सुनाई पड़ती है।


“आज शादी की साल गिरह है.....जल्दी आना। आज तो पगार मिलेगी....ना...पगार मिलेगी ना......जल्दी आना......साल गिरह .....पगार...जल्दी आना .....”


वह सिर झटकता है, एक सिगरेट सुलगाता है और चेहरे पर एक मुस्कान लाकर एक साड़ी की दुकान पर पहुँचता है। साड़ी लेकर बाहर आता है तो एक भिखारी उससे कहता है “अल्लाह आपकी नौकरी में बरक्कत दें ।” चन्दन उसे घूर कर देखता है फिर न जाने क्या सोच तक कुछ पैसे दे देता है। घड़ी की ओर नजर उठाता है और टैक्सी को आवाज देता है। टेक्सी में चढ़ते समय एक वेणी वाली आ जाती है तो एक वेणी लेकर बैग में रख लेता है। दरवाजे पर रोली को गुड़िया की तरह सजा देखकर उदास चन्दन, मुस्कुराने लगता है। फिर टैक्सी से उतरे बैगर, ब्रीफकेस उस थमा कर कहता है- “जल्दी ताला लगा कर वर्ना पिक्चर नहीं मिलेगा। ”

(पिक्चर देखने के बाद रोली कहती है-अब ।)

चन्दन -अब क्या ! डिनर इन कैंडल लाइट ।(दोनों हँसते हैं। रेस्त्रां में डांस हो रहा है। चन्दन कभी-कभी सीरियस हो जाता है।)


चन्दन -यदि लार्डशिप की इजाजत हो तो बन्दा एक पैग चढ़ाले।


रोली -मगर क्यों ?


चन्दन -क्योंकि...क्योकिं बन्दा आज....... बहुत खुश है।


रोली -इजाजत है मगर केवल एक।

(खाना खाकर दोनों घर पहुँचते हैं। चन्दन बैग खोलकर रोली को साड़ी देता है, ये रही मेरी सी भेंट साल गिरह की। फिर बेणी जूड़े में लगाकर और ये रही पति की भेंट पत्नी को-सदा इस वेणी की तरह महको। रोली जाने लगती है तो लिफाफा देकर कहता है और यह रही लक्ष्मी, गृहलक्ष्मी के लिए ।)

रोली -अरे वाह, ढेर लगा दिया उपहारों के।


चन्दन -अरे अभी असली उपहार तो दिया ही नहीं, जरा चेन्ज करके तो आओ ।


रोली -शैतान....(थोड़ी देर में कपड़े बदलकर आती है।) चन्दन, तुम साड़ी लाये, शाम से इतना खर्च किया लेकिन तुम्हारी पगार का लिफाफा अभी भी भारी है। लगता है एडवांस मिल गया ।

चन्दन बिस्तर पर लेटा है उसे कैशियर की आवाज सुनाई पड़ती है- ‘ये रही आपकी दो माह की पगार । कम्पनी का यह नियम ......’


दूसरी ओर रोली की आवाज आती है-चलो अच्छा हुआ एडवांस ले लिया । अब कुछ दिन की छुट्टी ले लो तो डैडी, व पापा दोनों को देख आएँ।’


चन्दन (बिस्तर पर ठंडी सांस लेकर धीरे से बड़बड़ाता है) अब तो छुट्टी ही छुट्टी है। (रेडियो का स्विच आन करता है तो गाना आ रहा है- दिल जलता है तो जलने दो .....)

रोली आकर उसके बगल में लेट जाती है । उसकी ओर देखकर मुस्कुराती है चन्दन भी जबरन मुस्कुराता है और उसे बाहों के घेरे में ले लेता है।



सीन नं. 15


(सुबह-सुबह चन्दन ‘वैकेन्सी’ कालम पढ़ रहा है, रोली चाय लेकर आती है तो चन्दन पृष्ठ बदल देता है।)

रोली -9 बज गए सरकार ! आफिस नहीं जाना क्या ?


चन्दन -आफिस....हाँ जाना क्यों नहीं। (बाथरूम की तरफ बढ़ता है,लौटता है तो रोली अखबार देखकर बोलती है।)


रोनी -चन्दन ये न्यूज तुमने पढ़ी !


चन्दन -कौन सी ?


रोली -एक आदमी ने बेरोजगारी से तंग आकर अपनी पत्नी को जहर देकर आत्महत्या भी कर ली।
(चन्दन तौलिए से सिर पोंछता-पोंछता रुक जाता है।)


रोली -इंसान को परिस्थितियाँ कितना कमजोर बना देती है !


(थोड़ी देर बाद जाने लगता है।)


रोली -क्या बात है ! आज बगैर बैग लिए ?


चन्दन -अरे, लाओ जल्दी ! मैं तो भूल गया था।


(चन्दन बैग लेकर निकलता है, दिन भर नौकरी के चक्कर में इधर-उधर भटकता है और शाम को घर ऐसे पहुँचता है जैसे आफिस से लौटा हो। ) ऐसी ही एक सुबह :


चन्दन -रोली जरा मेरी सर्टीफिकेट की फाइल तो निकाल देना ।


रोली -क्यों ? क्या कहीं और अप्लाई कर रहे हो। ये नौकरी अच्छी नहीं लग रही।


चन्दन -(घबराकर) नहीं, अच्छी तो है .......! फिर (मुस्कुराकर) तुम्हीं तो कहा करती हो कंम्पटीशन मेंबैठकर देखो । मैं भी सोचता हूँ हर्ज क्या है ? अच्छा चलूं देर हो रही है। (जाता है)



सीन नं. -16


(एक सुबह चन्दन तैयार होकर निकलने को होता है कि रोली पूछती है चन्दन तुम्हारे पास कुछ रुपये होंगे)

चन्दन -जेब टटोल कर....आज तो नहीं। तुम ऐसा करो बैंक से निकाल लेना।


रोली -यह तो गलत है । हम बैक में पैसे बुरे वक़्त के लिए रखते हैं इस तरह निकाल लेगें तो .....।
चन्दन -(धीरे-से अब और कौन सी मुसीबत होगी (फिर रोली से) अरे तुम निकाल लो इस बार....तनख्वाह मिलेगी तो ...ब्याज सहित भर दूँगा ।


(रोली मुस्कुराती है) फिर कहती है ‘अच्छा तुम दस मिनट रूक नहीं सकते ।’


चन्दन -क्यों ?


रोली -कुछ नहीं, बाजार से कुछ सामान लेना है। तुम्हारे साथ चलती तो तुम्हारे आफिस के पास उतर जाती और शापिंग कर लेती।


चन्दन -(घबराकर) नहीं, तुम अकेली चली जाना। मुझे आज जल्दी पहुँचना है।

(चन्दन जाता है, थोड़ी देर बाद रोली भी निकलती है। दोपहर को सिटी बस से आ रही होती है तो पार्क में चन्दन जैसा एक व्यक्ति बैठा दिखाई पड़ता है । वह आश्चर्य से घड़ी देखती है। शाम को जब चन्दन घर आता है तो चाय देते समय वह उसे पुछती है-चन्दन तुम आफिस से कितने बजे छूटते हो।

चन्दन -5 बजे, क्यों ? (उसके चेहरे पर शिकन)


रोली -कुछ नहीं, सोचती हूँ दिन भर अपनी कुर्सी में बैठे-बैठे ऊब नहीं जाते ? कहीं बाहर नहीं जाते ?


चन्दन -ना बाबा ना ! कुर्सी छोड़ना मुश्किल हो जाता है और आज तो लंच के लिए भी नहीं उठ पाया ।
रोली (-मन में) वो कोई और होगा . (फिर चन्दन से ) अच्छा चलो धूम आते हैं ।


चन्दन -(अपने से) सारा दिन तो घूमता हूँ (फिर रोली से) चलो। (बाजार में अचानक मिर्जा मिल जाता है, दोनों गले मिलते हैं।)


मिर्जा -घूमने जा रहे हो।


चन्दन -हाँ....ऐसे ही, आओ तुम भी।


मिर्जा -ना बाबा- दाल बात में मूसर चंद नहीं बनना ।


(तीनों हँसते हैं) भई शादी के बाद आज पहलीबार मिले हो और आज ही मेरी ‘बिखरी नज्में’ छप कर बाजार में आई है इस खुशी में आओ एक-एक काफी हो जाये।


चन्दन -मुबारक हो, मगर ........


मिर्जा -मगर-वगर कुछ नहीं, अब चल सीधे । आइये भाभी, तीनों होटल में जाते हैं। (होटल के बाद)


मिर्जा -अच्छा चलें


रोली -कभी घर आइये ना ।


चन्दन -हाँ यार ! एक ही शहर में रह कर तू....कल आ ।


रोली -ऐसे नहीं ! रात का खाना भी साथ खाएंगे ।


मिर्जा -अच्छा, शनिवार की शाम आता हूँ । (विदा)



सीन नं. -17



(रात को सोते समय रोली हो रह-रह कर पार्क में बैठा आदमी दिखाई देता है। दूसरे दिन चन्दन के जाने के बाद वह घर से निकल कर एक पब्लिक बूथ सो चन्दन के कार्यालय में टेलीफोन करती है।

रोली -मैं मिस्टर खत्री से बात करना चाहती है।


उधर से मिस्टर खत्री! ऐसा तो कोई आदमी हमारे यहाँ नहीं है ।


रोली -आप ‘राहुल कंस्ट्रक्शन’ से बोल रहे हैं ना । वो आपके यहाँ असिस्टेंट हैं, चन्दन खत्री ।


उधर से -माफ कीजिएगा, चन्दन खत्री पहले काम करते थे मगर उनकी कभी की छँटनी हो चुकी है ।


रोली -छँटनी ?


उधर से -जी हाँ उन्हें दो माह की पगार देकर अलग कर दिया गया है ।



(रोली के हाथ से टेली फोन छूट जाता है । किसी तरह वह घर पहुँचती है । रह-रह कर उसे टेलीफोन की आवाज़ सुनाई पड़ती है – ‘उनकी तो कभी की छँटनी हो गई ।’ वह कभी बैठती है, कभी लेटती है फिर टहलने लगती है ।) स्वतः बड़बड़ाती हैः

यह तुमने क्या किया चन्दन ? इतनी बड़ी लड़ई अकेले लड़ रहे हो और मुझे खबर तक नहीं । मुझ पर कुछ तो भरोसा किया होता, हम दोनों मिल कर लड़ते । अब क्या करूँ ! कैसे तुम्हारी परेशानी हल करुँ ? नौकरी करुँ । तभी चन्दन के शब्द गूँजतें हैं- ‘नारी को घर में रहना चाहिए ।’ तुम्हें वह पसंद कहाँ है ? अगर तुम्हें पता चल गया कि मैं नौकरी करती हूँ तो तुम्हारे स्वाभिमान को चोट लगेगी । तो क्या करूँ ? फिर कुछ निश्चय कर अखबार देखने लगती है । कुछ नोट कर अपने पर्स में रख लेती है ।


सीन -18



अब चन्दन के बाद रोली भी सुबह निकल कर दफ्तरों के चक्कर लगाने लगती है।एक सुबह लैयार होता है तो रोली को आवाज देकर कहता है- ‘आज सटर्डे है- मिर्जा आयेगा ।’

रोली -अरे हाँ- मैं तो भूल ही गई थी ।


चन्दन -बाजार से कुछ लाना है ।


रोली -नहीं घर में सब है । हाँ तुम लोग कुछ लोगे तो ले आना । (अचानक उसे याद आता है कि जन्दन की जेब तो खाली होगी ।) सुनो ! कल मैं तुम्हारी आलमारी साफ कर रही थी तो तुम्हारी किसी पैंट से कुछ रुपये गिर पड़े । तुम कितने लापरवाह हो, अभी लाकर देती हूँ ।



(अन्दर जाती है और चुपके से अपने आरनामेंट बाक्स से कुछ रुपये लाकर उसे देती है ।)

(चन्दन उससे वगैर निगाह मिलाए चला जाता है । घर से निकलकर वह सीघी पोस्ट आफिस जाता है । कुछ लिफाफे व पोस्टल आर्डर व पोस्टल आर्डर खरीदता है । फिर अखबार निकालकर अर्जी लिखने लगता है । शाम जब घर पहुँचता है तो मिर्जा बैठा मिलता है ।) उसे देखते ही चन्दन चेहरे में मुस्कान लाकर कहता है – “क्यों बे भूख, सुबह से आ गया था क्या” दोनों हँसते हैं । चन्दन ड्रिंक्स निकालता है रोली खाना लगाती है । हँसी मजाक के बीच खाना खत्म होता है तथा मिर्जा अपनी पुस्तक से एक नज़्म पढ़ता है –

“जीवन की आपाधापी में,
जब पड़ते तब उल्टे मोहरें
आशाओं के अड़ियल छौने,
तपती रेती में कब ठहरे ।
स्मृति का यह दंश अनुठा,
पैठ चुका है, उतना गहरे ।
सपनों को सौगंध दिलाई,
साँसों पर बैठाये पहरे ।
नोच दिए मन के डैने पर,
विस्मृति कब हो पाये चेहरे ।।”

(नज़्म सुन कर माहौल थोड़ा बोझिल हो जाता है । तीनों अपने-अपने ग़मों में ! मिर्जा उनेहें पुस्तक भेंट कर चला जाता है ।)


सीन नं. 19



(प्रतिदिन की तरह चन्दन के घर से निकलने के बाद उसे दिन भी रोली नौकरी की तलाश में निकलती है । और आज उसे उद्योग विभाग में नौकरी मिल जाती है ।)


अब रोली रोज-रोज चन्दन को विदा कर अपनी नौकरी में जाने लगती है और उसके लौटने के पूर्व घर आ जाती है। धीरे-धीरे एक माह और गुजर जाता है। रोली को पहली पगार मिलती है। शाम को चन्दन के घर आने पर –



रोली -आज मैं बहुत खुश हूँ चन्दन ।(चाय देती है।)


चन्दन -अच्छा-क्या बात है ?


रोली -पिछले माह मैंने लाटरी के दो टिकटें खरीदी थीं एक में आज इनाम निकला है-पूरे एक हजार रुपये का।


चन्दन -क्या ?


रोली -जी हाँ एक हजार रुपये । मगर तुम बड़े लकी हो ।


चन्दन -लकी और मैं ?


रोली -हाँ ! इनाम तुम्हारे नाम पर ली गई टिकट पर ही निकला है। पर्स से रुपये निकाल कर । ये रहे आपके रुपये


चन्दन -लेकिन....तुम्हारीं रखो।


रोली -ठीक है तुम्हारी तरफ से घर खर्च के लिए रख लेती हूँ । तुम तनख्वाह से जो मुझे घर खर्च देने वाले थे वह मुझे न देकर इस माह बैंक में डाल देना-ठीक।


चन्दन -बिल्कुल ठीक। (चन्दन राहत की साँस लेता है।)


रोली -(सौ रुपये निकाल कर) अच्छा लो इसे रख लो।


चन्दन -क्यों ?


रोली -अरे भाई इनाम का कुछ शेयर तो रखो। जबरन रुपये उसकी जेब में डाल देती है।


चन्दन -कोई लेटर नहीं आया रोली !


रोली -नहीं तो-कोई आने वाला था क्या ?


चन्दन -नहीं, बस ऐसे ही।


सीन नं. -20



(पार्क में रोली व चन्दन बैठे हैं।)



रोली -एक बात पूछूँ, बुरा तो न मानोगे।


चन्दन -कैसी बातें करती हो, बोलो।


रोली -अगर तुम्हारी इजाजत हो तो मैं भी कहीं नौकरी करने लगूँ।


चन्दन -मेरे होते हुए तुम्हें नौकरी की क्कया जरूरत ? क्यों, घर खर्च मेंकुछ परेशानी है ?(अब उसकी आवाज में दम न था।)


रोली -नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं ? बस बैठे-बैठे बोर हो जाती हूँ ।


चन्दन -नहीं रोली ! मैं इस, पक्ष में नहीं हूँ और मैं जानता हूँ महिलाओं को लोग दफ्तर में किस निगाह से देखते हैं, उनका कितना शोषण होता है। तुम घर में बैठी कुछ लिखा-पढ़ा करो सारी बोरियत दूर हो जायेगी । (वह फिर अपनी पर आ गया)


रोली -अच्छा चन्दन, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि तुम कोई उद्योग घंधा शुरू करो – अपना उद्योग । सुना है आज कल सरकार इसके लिए लोन भी देती है।


चन्दन -हाँ देती तो है मगर उसमें बड़ी दिक्कतें हैं।


रोली -दिक्कतें ! अरे हाँ, यदि आया । लोन तो बेरोजगार युवकों को ही दिया जाता है तुम्हें कैसे मिल पायेगा । तुम तो इम्पलाइड हो, है ना ! (कनखियों से उसकी ओर देखती है।)


चन्दन -वही तो। (चन्दन नजर नहीं मिलाता।)


रोली -और लगी लगाई नौकरी छोड़ना तो बेवकूफी होगी। जाने दो, मैं भी कहाँ बे सिर-पैर की बातें लेकर बैठ गई । (फिर थोड़ा रूक-कर ।) लेकिन रहता बड़ा मजा, यदि तुम्हारा अपना कोई रोजगार होता तो तुम उसमें मुझे भी सहायक बना लेते । फिर दोनों मिलकर वह स्कीम बनाते कि अपना बिजनेस टाप पर होता औरर तुम लात मार देते इस नौकरी को –है ना।


चन्दन -(धीरे से मुस्कुराता है, फिर भावुक होकर) रोली सच में मैं तुम्हें कुछ न दे सका । तुम्हें महल से लाकर झोपड़ी में डाल दिया । बड़े ऊँचे इरादे थे लेकिन वक़्त के आगे कुछ नहीं चली । सदा ही तुम्हें अभावों में रखा पर तुमने उफ तक नहीं की। आज तक कभी अपने घर, अपने ऐश्वर्य की चर्चा तक जुबां पर न लाई । शायद इसलिए कि मुझे बुरा लगेगा। मैंने तुम पर बहुत अन्याय किया है रोली।


रोली -तुम ऐसा क्यो कह रहे हो ? समझते हो। अरे तुम्हें पाकर तो मैं निहाल हो गई, चन्दन । मैंने केवल तुम्हें चाहा था-कोई ऐश्वर्य नहीं । मुझे तुम मिल गए-सारा जहाँ मिल गया। चन्दन ऐसा कभी मत सोचना ....रोली –चन्दन को अलग मत समझना। (इतना कहते-कहते वह उसके पंधे पर सिर रखकर सिसकने लगती है।)

घर आकर दोनों अपने पलंग पर लेटते हैं। तो धुन सुनाई देती है-

‘जो तुमको है पसंद ,वही बात करेगें......।’



सीन नं.-21



(सुबह चन्दन उठता है तो टेबल के ऊपर अखबार के साथ ‘रोजगार समाचार’ देखकर रोली को आवाज देता है- ये रोजगार समाचार कौन मँगाने लगा?)

रोली -(अन्दर से) अरे वो कल बाजार से कुछ सामान लाई थी । दुकानदार ने सामान उसी में लपेटकर दे दिया था ।

चन्दन चिढ़कर उसे फेंकता है । सीलिंग फैन की हवा से उसके पन्ने-पन्ने अलग हो जाते हैं । एक पेज असके सामने गिरता है जिस पर मोटे अक्षरों में लिखा है-‘प्रदेश के शिक्षित बेरोजगारों को विशेष प्रोत्साहन’ चन्दन उसे उठाकर पढ़ने लगता है –


‘जरूरत मंद बेरोजगार नवयुवको के लिए सुनहरा अवसर । सरकार ने यह तय किया है कि जो नवयुवक किसी नये उद्योग को आरंभ करने में दिलचस्पी रखते हैं उन्हें सरकार उचित मार्गदर्शन एवं आसान तरीके से ‘स्वरोजगार योजना के तहत’ न्यून ब्याज दरो पर ऋण उपनब्ध करायेगी । नवयुवक अपनी योजना के साथ अपने जिला उद्योग विभाग से संपर्क करे ।’


चन्दन को शाम को शाम की रोली बात याद आती है-क्या ही अच्छा होता कि तुम्हारा अपना कोई उद्योग होता। आज कल सरकार उसके लिए ऋण भी देती है।.....लेकिन तुम बेरोजगार नहीं हो यह स्कीम तो.....


चन्दन -(बड़बड़ाता है) नहीं, मैं भी बेरोजगार हूँ । और इधर-उधर देखकर पेपर जेब में रख लेता है।

रोली जो चुपचाप पर्दे के पीछे से यह सब देख रही होती है एक निश्चिंतता की सांस लेकर अंदर चली जाती है । फिर चन्दन का टिफिन लाकर देती है। चन्दन सदा की भांति उसे लेकर जाता है तो रोली देर तक उसे देखती रहती है। फिर आफिस जाने की तैयारी में जुट जाती है।



सीन नं. 22



(अचानक चन्दन रोली के दफ्तर में पहुँचता है। रोली उसे देखकर छुप जाती है। चन्दन कुछ देर केंद्र निदेशक के कमरे में रूक कर चला जाता है। रोली अपनी सीट पर बैठती है तो चपरासी आकर कहता है कि उस साहब बुला रहे हैं। रोली साहब के चेंबर में घुसती है।)

रोली -यस सर !


निदेशक -रोली जी, अब तक कितनी अर्जियाँ, अपने पास आ चुकीं ?


रोली -जी करीब 200, जिनमें से आपने 50 केस सेलेक्ट किए हैं।


निदेशक -अच्छा ये एक और एप्लीकेशन उन्हीं में लगा जीजिए । बड़ी अच्छी योजना लेकर आया था । प्रतिभाशाली दिखता है। एम. कॉम फर्स्ट क्लास है, पर बेरोजगार । आजकल के युवकों में न जाने क्यों नौकरी का इतना भूत सवार रहता है। अरे यह प्रोजेक्ट रिपोर्ट तो इतनी अच्छी बनाई गई है कि कोई भी मेहनती युवक इससे लाखों कमा सकता है।


आप वो फाइल मुझे दे दीजिए । हेड आफिस की मीटिंग में ये सारे केसेंस फायनल होना है मैं अभी जाऊँगा।


रोली -जी ! सर क्या इसी माह में इनका निर्णय आ जाएगा।


निदेशक -निर्णय ! अरे एक तारीख से इन्हें अपना प्रोजेक्ट आरंभ कर देना चाहिए । तुम्हें मालूम नहीं, मुख्यमंत्री इसमें कितना व्यक्तिगत इन्ट्रेस्ट ले रहे हैं। प्रोग्रेस रिपोर्ट हर माह उनके पास जाती है।

इससे बेहतर और क्या हो सकता है। जिनती मेहनत करो उतना लाभ कमाओ और नौकरी में....हूँ हं । 15 वर्ष से मैं उसी पोस्ट पर घिसट रहा हूँ और आगे भी कोई ठिकाना नहीं है। घिसी-पिटी लीक पर ही कलम रगड़ते रहना है। अपनी प्रतिभा-टेलेन्ट का कोई उपयोग नहीं । और इस योजना में भरपूर मौका मिलता है अपने दिमाग का उपयोग करने व उससे लाभ उठाने का । इससे इंसान में आत्म विश्वास बढ़ता है। कुछ कर गुजरने की आकांक्षा रखने वाले अपने सपने साकार कर सकते हैं। सिर्फ यही नहीं इससे देश की प्रगति में भी वे सहायक होते हैं, ऐसे नवयुवक एक आदर्श स्थापित बन सकते हैं। शासन की यह नीति यकीनन सराहनीय है जिसने नवयुवकों के लिए नया मार्ग प्रशस्त किया है।



सीन नं. -23



(रोली आफिस से निकलकर सीधी मंदिर में जाती है। वहाँ आरती हो रही है । वह चुपचाप खड़ी रहती है। पुजारी प्रसाद देता हैउसे लेकर घर आती है। तो देखती है कि चन्दन आ चुका है। उसे देखकर वह थोड़ा सकपकाती है।)

चन्दन -कहाँ गई थीं, मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ।


रोली -जरा-मंदिर चली गई ती । लो प्रसाद खा लो ।( प्रसाद देती है।) बैठो मैं अभी तुम्हारे लिए चाय लेकर आती हूँ ।



सीन नं. -24



कुछ दिनों बाद । एक सुबह पोस्टमैन चन्दन को रजिस्ट्री लाकर देता है चन्दन उसे पढ़कर । खुशी से चीख उठता है-


रोली मेरा लोन पास हो गया है। तुम्हारा सपना साकार होने का वक्त आ गया । हमारा अपना उद्योग होगा....’ ‘रोली इंटरप्राइजेज’


(रोली आटा लगे हाथों से अंदर से दौड़ कर आती है।)

रोली -पर तुम्हारी नौकरी ?


चन्दन -न....नौकरी ।(हिचकिचाता है) अरे लोगी मारो नौकरी को । तुम जल्दी से चाय पिलाओ मुझे अभी जाना है। उद्योग विभाग।


रोली -अच्छा सुनो ! उधर जा रहे हो तो मेरा भी एक काम कर देना । अभी आयी । (थोड़ी देर में अन्दर से एक पत्र लाकर देती है) इसे तुम उसी आफस में दे देना।


चन्दन -उसी आफिस में ! (चौंकता है।) (फिर लिफाफा खोलकर पढ़ता है जो रोली का नौकरी से स्तीफा होता है। )रोली ये तुम ...नौकरी ...मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा ।


रोली -हाँ चन्दन ! लेकिन कभी इसलिए नहीं पूछा कि तुम्हारे स्वाभिमान को ठेस न पहुँचे।


चन्दन -लेकिन अब यह स्तीफा !


रोली -बस चन्दन ! मैं अब मुक्त हुई। गृहस्थी की लड़खड़ाती गाड़ी को पटरी पर बनाये रखने के लिए मुझे जो भी उचित एवं आवश्यक लगा वही मैंने किया अब इसकी जरूरत नहीं है ।


चन्दन -तुम कितनी महान हो रोली ! मैं ही गलत था। नारी को गृहस्थी की गाड़ी को सुचारू रूप से चलाते रहने के लिए आवश्यकता पड़ने पर घर के बाह कदम रखना पड़े तो उसे गलत नहीं समझना चाहिए । मुझे माफ कर दो रोली ।


रोली -नहीं चन्दन ! कैसी बातें करते हो । मगर हाँ, तुमसे एक शिकायत आवश्यक है-तुमने अगर मुझसे अपनी छंटनी की बात न छुपायी होती हो शायद हम दोनों मिलकर और आसानी से इस समस्या का हर निकाल लेते । चूंकि हम दोनों इस मुश्किल से एक दूसरे से छुपा कर अलग-अलग जूझते रहे, इसलिए हमें देर लगी । वर्ना शायद निदान शीघ्र एवं बेहतर मिलता और दोनोंको इतनी मानसिक यातना ना झेलनी पड़ती ।पति-पत्नी को एक –दूसरे के सुख-दुख, में समान रूप से साझी होना चाहिए । किंतु तुमने मुझे केवल सुख का ही साथी माना, यही दुःख है।


चन्दन -तुम ठीक कहती हो। गृहस्थी की गाड़ी सुचारु रूप से चलाने के लिए दोनों पहियों का साथ-साथ रहना व चलना जरूरी है।


रोली -चन्दन पता है तुमको यशोधरा को सिद्धार्थ से सबसे बड़ी शिकायत क्या थी ?


चन्दन -क्या ?


रोली -कि वह उससे कह कर क्यों नहीं गए ?


चन्दन -आई एम सारी रोली ! (उसे गले लगाता है।)

पीछे सूरज उदय होता हुआ दिखाई पड़ता और चन्दन-रोली एक दूसरे का हाथ पकड़े जाते हुए दिखाई देते हैं।